बड़ी ही भीषण गर्मी है। सूरज जैसे आग बबूला हो रहा है। तारकोल की सड़कों का तारकोल भी पिघल गया है। बन्द शीशों की कारो का ए सी जँहा अंदर बैठने वालों को शीतलता दे रहा वंही बाहर चलने वालों को भभका रहा है। पेड़ पौधे सब गर्मी से बेहाल है। पक्षियों की विकलता देखी जा सकती है। रिक्शा वाले सिर पर कपड़ा बांधे, किसी ऊंची इमारत के साये में खड़े सुस्ता रहे हैं।
यमुना जी का आधि-भौतिक स्वरूप-
यमुना का पानी भी सूख चुका है। नदी अपना विस्तृत फैलाव छोड़ कर सिमट गयी है। जल की गहराई भी कम हो गई है। जल प्रवाह मन्थर गति से चल रहा है। हिमालय के ऊंचे शिखरों से निकल कल्लोल करती ये अल्हड़ नदी, मैदान में आते आते अपना सारा अल्हड़पन खो देती है। जैसे कोई अल्हड़ युवती विवाह पश्चात भरे पूरे घर में आ सारी चंचलता छोड़ दे। अभी तो इस नदी को लंबा सफर तय करना है। हरियाणा के भू भागों को सींचती अभी अभी ये दिल्ली में प्रविष्ट हुई है और श्री कृष्ण की नगरी मथुरा की और अग्रसर है। गोकुल होते हुए, ताज महल के पीछे से इस नदी को आगे की और बढ़ना है। प्रयाग राज में जा कर यमुना गंगा में मिल कर एकरूप हो जाती है। कुछ लोगो का मानना है कि यँहा तक ही यात्रा है इस नदी की। फिर ये लुप्त हो जाती है। और नदियों की भांति ये सागर में नहीं मिलती। प्रयाग के संगम पर यमुना और गंगा का जल अलग अलग अलग दृष्टि गोचर होता है। दोनों नदियां एक साथ बहते हुए भी अलग अलग पहचानी जाती हैं। सरस्वती तो पहले से भी अदृश्य हो बहती है संगम पर। इससे आगे यमुना नहीं दिख पड़ती। केवल गंगा की अथाह जल राशि रह जाती है सागर तक की यात्रा पूरी करने को।
ग्रीष्म ऋतु और यमुना-
गर्मी ने इसे छोटी छोटी शाखाओं में विभक्त कर दिया है। पानी की जंगली पत्तों वाली बेल जगह जगह इसके अंदर फैल गई है। उन्हीं बड़े बड़े पत्तों वाली बेल को लेकर ये नदी बहे जा रही है। इसके बीच बने मंदिर की पताका दीख रही है। किनारे आद्र हैं। बालू मिट्टी जगह जगह बिखरी पड़ी है। दूर दौड़ते वाहनों के शोर से परे, पास के निगम बोध घाट के विलापों से निर्लिप्त यह नदी बहे जा रही है। कुदसिया घाट से आगे, पुराने लोहे के पुल के नीचे से बहते हुए निज़ामुद्दीन पुल पार करते हुए ओखला की और जाती ये जल राशी मुझे एक अलग ही शांति, एक अलग ही आनन्द देती है। इसके किनारे बैठ इसे बहते हुए देखना बड़ा ही भला मालूम होता है। ऐसा लगता है मानो जीवन की भाग दौड़ से थक कर कोई क्लान्त बेटा अपनी माँ की गोद में आ गया हो।
यादों के झरोखों से-
यादों में एक बड़ी खराबी है। इनका पिटारा जब भी खुलता है, खुलता चला जाता है। यमुना का वर्णन करते करते मैं अपने बचपन में जा पँहुचा हूँ। ये नदी मुझे तब से जानती है जब मैं 8-10 वर्ष का रहा होऊंगा।
दिल्ली तब शायद इतनी विस्तृत नहीं थी। न ही इतनी आधुनिक थी। तब की दिल्ली मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त थी - एक भाग यमुना नदी के उस पार था तो दूसरा इस पार। मेरी दुनियाँ तो यमुना नदी के उस पार तक ही सीमित थी। गांधी नगर में तब इतने मकान नहीं थे। आस पास तराई के इलाकों में खेती होती थी। यमुना से होकर शीतल वायु शाम को मंद मंद बहती थी।
मेरे घर से बस सड़क पार करते ही यमुना बंध शुरू हो जाता था, जिसे यमुना पुस्ता भी कहते थे। तब वँहा कच्ची सड़क थी जिसे पार करते बंध के किनारे किनारे चलते कुछ ही दूर पर यमुना दृष्टि गोचर हो जाती थी। मैं रोज नियम से शाम को टहलते हुए इसके किनारे चला जाता था। तट पर कुछ एक नावें बंधी रहती थी जिन पर मैं चढ़ बैठता था। पानी के हलके हिलोरों से नाव डोलती थी और मैं नीचे हाथ कर के यमुना जल उछलता था। दूर लोहे के पुल पर आते जाते वाहन तो दीखते थे परन्तु उनका शोर मुझ तक नहीं आता था। बस ध्यान से सुनो तो यमुना जल की तरंगों के नाव से टकराने से जो ध्वनि पैदा होती थी वही सुनाई देती थी। टप, टप, टप- जैसे कोई तप कर रहा हो।
एक अजीब सा स्पंदन था उस खामोशी में भी। शाम को तट पर बैठ ढलते सूरज को देख कर न जाने मन कैसा कैसा होने लगता था। कुछ सफ़ेद बुगले उड़ते हुए नदी पार करते और उस पार बनी शास्त्री जी की समाधि के घने जंगल मे लुप्त हो जाते थे।
गर्मियों की छुट्टियों में यह स्थल मेरी सुबह की टहल का पसन्द दीदा स्थान हुआ करता था। यँहा से सूर्योदय देखना अपने आप में एक अनुभव था। नीली आभा लिये जल राशि मन्थर गति से बहती थी। जल इतना साफ कि तल की वस्तुएं देख लो। चुल्लू भर भर के इसके मीठे जल का कितना पान करता था मैं! छोटी मछलियाँ, टैडपोल और मेंढक इस के किनारे के उथले जल में अठखेलियाँ करते। जरा सी आहट से वह तितर-बितर हो जाते। छोटे छोटे घोंघों के शंख नुमा घर इस के किनारे की बालू से हम बीन लाते। गीली रेत से घर बनाते और बिगाड़ते। एक घर से दूसरे घर की बीच सुरंग खोदते। कभी केंचुए और केकड़ों से भी सामना हो जाता था।
इसके किनारे टमाटर, भिंडी और गैंदे की पौध अपने आप उग आती थी। इन्हें जड़ सहित उखाड़ कर , जड़ को गीली मिट्टी से लपेट कई बार मैं घर ले आता था। पर यह पौध लग नहीं पाती थी और दिन चढ़ते चढ़ते मुरझा जाती थी। मुझे याद है यंही से एक बार मैं चमेली की एक पौध ले गया था। वह बेल ऐसी फली कि सारा आँगन महकता रहता था। एक दिन उसे जल्दी बड़ा कर छत तक पहुँचाने की लालसा में उसमें कुछ यूरिया डाल दिया। सुबह तक सारी बेल जल कर काली पड़ गई।
वर्षा काल और यमुना-
वर्षा काल में यमुना क्रोधित हो उफन पड़ती। अपने तट बंध तोड़ती बहुत आगे तक बढ़ आती थी। उफनते मटमैले जल में गहरी गहरी भंवर पड़ती। बस यमुना बंध ही इसके वेग को थामे रहता। इन दिनों हम बच्चों का बंध की और जाना निषेध रहता था। कभी कभी लोहे के पुल पर खड़े होकर इसे देखने का अवसर मिलता था।
नदी की दुर्दशा-
आज नदी की यह दुर्दशा देख कर दुःख होता है। ये नदी दिल्ली का जीवन आधार है। हम क्यों इसे प्रदूषित करते जा रहे हैं? जिस डाल पर बैठे है उसे ही काट रहे हैं। यमुना को प्रदुषण मुक्त करने के सारे सरकारी प्रयत्न निष्फल रहे हैं। क्या हम इसके लिये जिम्मेवार नहीं है?
यमुना जी का आधि दैविक स्वरूप-
ये जो हमें जल रूप में दीखता है, ये तो यमुने माँ का आधि भौतिक स्वरूप है। आधि दैविक स्वरूप में तो ये श्री कृष्ण की चतुर्थ पटरानी के रूप में लीला रत हैं। कमल की कलियों का हार लिये, और कमल कलियों का ही हार धारण किये, मन्द चाल से कालिंदी अपने प्रियतम के श्रृंगार के लिये सदा अग्रसर हैं। शुक, मयूर और हंसो से युक्त तट पर यम की बहिन यमुना अद्भुत शोभा पा रही हैं। यमुने माँ के इस आधि दैविक रूप को शत शत नमन।