आज शाम आस्था चैनल पर भागवत कथा का रसास्वादन कर रहा था। कथा वाचक ने बताया कि उनके एक संत मित्र है वह अक्सर ये कहते हैं कि आजकल दिखावट का, सजावट का और बनावट का जमाना है। अच्छे हैं या नहीं, अच्छे दिखना सब चाहते है। सुंदर हैं या नहीं, सुंदर दिखना सब चाहते हैं। कितनी गहरी बात है। अच्छा होना, सुंदर होना यँहा बाहरी नहीं है वरन भीतरी है। असली सुंदरता भीतरी संस्कारो से, भीतरी गुणों से होती है न कि बाहरी आडम्बर से , वस्त्रों से या लीपा-पोती से। पर आजकल तो सौंदर्य प्रसाधनों की भरमार है और क्या लड़के क्या लड़किया सबमें एक दूसरे से अधिक सुंदर दीखने की होड़ लगी है। विज्ञापन इस प्रतिस्पर्धा को और हवा दे रहे हैं। गुण विहीन और संस्कार विहीन ये पीढ़ी कँहा जा रही है? आज़कल की आधुनिकता की कसौटी ये है कि जितने ज्यादा आपके बॉय फ्रेंड या गर्ल फ्रेंड है आप उतने ही आधुनिक है। आप लिव-इन रेलशनलशिप में रहते हैं या उसे ग़लत नहीं मानते तो आप की सोच फारवर्ड है वरन आप बैकवर्ड हैं। आप शराब, सिगरेट पीते है तो आप सोसाइटी में उठने-बैठने लायक़ हैं वरन आप तथाकथित उच्च सोसाइटी में शिरक़त करने लायक नहीं हैं। अधिकारियों के लिए तो ये शौक फ़रमाना बहुत ही ज़रूरी माना जाता है वरना लोग आपसे ये पूछते भी संकोच नहीं करते कि अरे आप अधिकारी कैसे बन गए। कुछ तो इससे भी आगे जा कर ये भी पूछते है कि आपने इस धरती पर आ कर कुछ किया ही नहीं जब ऊपर जाओगे तो ऊपर वाले को क्या जवाब दोगे? ये वह जमात है जो ये समझती है कि भगवान ने इन्हें यही सब करने के लिए इस धरती पर भेजा है। क्रोध भी आता है और तरस भी। पर इन सवालों के जवाब में कुछ न कह कर बस एक हल्की सी मुस्कराहट से ही काम चल जाता है। और यही इन सवालों का उचित जवाब भी है। खैर, मैं बात कर रहा था ऊपरी आडम्बर की । एक संत ने इसे बहुत ही अच्छे ढंग से समझाया है। उन्होंने कहा कि मल-मूत्र से भरे घड़े को बाहर से कितना ही सज़ा लो, उसके अंदर भरी गंदगी गंगा जल में तो नहीं बदल जाएगी। अच्छे से तैयार होकर रहना कोई ग़लत बात नहीं है। पर साथ-साथ हमें अपने अन्दर के गुणों को भी विकसित करना ज़रूरी है। ये वह सुगन्ध है जो कस्तूरी की सुगन्ध की भांति बिना कस्तूरी के दिखे भी चंहु और फैलती है।
Saturday, 11 November 2017
Tuesday, 7 November 2017
दिल्ली - एक गैस चैंबर
नवम्बर मध्य की एक सुबह नोएडा जाना हुआ। एक गर्डर लॉन्चिंग फंक्शन था। दिन के साढ़े दस बजे होंगे। निज़ामुद्दीन पुल पर जो कि आम तौर पर साफ़ रहता है, धुंध की गहरी चादर ढकी थी। ये सर्दियों की आम धुंध नहीं थी वरन हवा की ज़हरीली चादर थी जिसने पूरी दिल्ली को ढका हुआ है। ये इतनी घनी थी कि थोड़ी दूरी पर भी साफ दिखाई नहीं दे रहा था। अक्षर धाम मन्दिर की विशाल इमारत भी सड़क से नहीं दीख पड़ रही थी। ये चादर थी PM 2.5 की। इसे पार्टिकुलेट मैटर 2.5 भी कहते हैं। इन सूक्ष्म कणों का व्यास 2.5 माइक्रोमीटर या उससे भी कम होता है। यह कण ठोस या तरल रूप में वातावरण में होते हैं। इसमें धूल, गर्द और धातु के सूक्ष्म कण शामिल हैं जिसमें सल्फर और नाइट्रोजन ऑक्साइड शामिल है।
हवा में तैरते यह सूक्ष्म कण बढ़ते स्तर के साथ हमारे स्वास्थ्य पर सीधा असर डालते हैं। हमारे फेफड़े, सांस लेने की क्षमता और पूरा श्वसन प्रणाली तंत्र इस प्रदूषण से बुरी तरह प्रभावित होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार इसका 0-50 का स्तर सुरक्षित माना जाता है। 51-100 तक का स्तर मॉडरेट माना जाता है। 101-200 तक का स्तर असुरक्षित माना जाता है। 201-300 तक इसे अत्यधिक असुरक्षित की श्रेणी में रखा गया है। 300 से ऊपर ये स्तर ख़तरनाक हो जाता है। उसी शाम 7 बजे दिल्ली में एक स्थान विशेष में इसका स्तर 638 मापा गया। ये एक दिन में 45 सिगरेट पीने के बराबर है। बाद के दिनों में तो ये स्तर 900 से भी ऊपर पँहुच गया था।
आप शायद अनुमान भी नहीं लगा सकते कि उसी दिन कनाडा के टोरंटो शहर में PM 2.5 का स्तर क्या था- इसका स्तर मात्र 25 था!! और वँहा इसका स्तर 5 से 46 के बीच ही रहता है।
तो क्या हम गैस चैम्बर में नहीं रह रहे हैं?क्या दिल्ली- हमारी दिल्ली रहने लायक रह गयी है? शायद नहीं। पर जाएं तो कँहा जाएं? मुझ जैसे बहुत से लोग नोकरी के चलते या फिर और पारिवारिक कारणों से दिल्ली में रहने को बाध्य हैं। पर क्या दिल्ली छोड़ कर अन्यत्र जाना कोई विकल्प है? मेरे विचार से ये कोई विकल्प नहीं है। और हम क्यों छोड़े दिल्ली? क्यों न इस स्थिति को बदलें।
आप कहेंगे कहना आसान है पर करना कठिन। ये तो सरकार का काम है । उसे करना चाहिए। और हम कर भी क्या सकते हैं? हमारे पास संसाधन ही क्या हैं? पर सच तो ये है कि ये मात्र बहाने हैं। कई सारे उपाय हैं जो बिना संसाधन आसानी से किये जा सकते है। उदाहरण के लिए, अपने घर के आस पास पानी की छिड़काव की जा सकती है जिससे धूल न उड़े। स्वेच्छा से कार पूल की जा सकती है। वृक्षारोपण किया जा सकता है। कचरा जलाने से बचा जा सकता है। यदि आप मकान बनवा रहे है या मरम्मत करा रहे हैं तो कुछ समय के लिए उसे रोका जा सकता है। और ऐसे बहुत से उपाय हैं जिन्हें हम स्वेच्छा से कर सकते हैं।
पर हम तो स्वतंत्र है। डंडे की भाषा ही समझते है। सरकार यदि ये नियम थोप दे तो उसे कोसते हुए हम इन नियमों को बाध्य होकर मानेंगे। और हम में से कुछ तो ऐसे हैं जो तब भी नहीं मानेंगे। पकड़े जाने पर गर्व से जुर्माना देंगे और अपनी बहादुरी का ढिंढोरा पीटेगें। मुझे याद है पिछले वर्ष जब ओड-इवन लागू हुआ था तो कुछ लोगों ने जानबूझकर ओड डेज में इवन नम्बर की गाड़ी निकाली और चालान दिया। और यही नहीं, मीडिया में ये भी कहा कि हम तो चलायेंगे, जितनी बार चालान काटोगे, देंगे। कुछ ने तो 8 नम्बर पर मिट्टी लगा के उसे 3 बना कर ट्रैफिक पुलिस की आंखों में धूल झोंकने की नाकाम कोशिश की।
ये सब क्या है? ये सब ये दिखाने की कोशिश है कि हम नहीं सुधरेंगें। दिल्ली होती रहे प्रदूषित, देश होता रहे विदेशों में बदनाम, हमें क्या? हम तो स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं जो जी चाहेगा करेंगे। यही सोच हमें विदेशों के नागरिकों से अलग करती है। वँहा के नागरिक अपने देश से प्यार करते हैं। नियम पालन करने में गर्व महसूस करते हैं।
मेरी बेटी जो कैलिफोर्निया में थी उसने बताया कि वँहा रेड लाइट सड़क पार करने वाले पैदल लोग नियंत्रित करते हैं। यदि आपको सड़क पार करनी है तो आप सड़क किनारे लगा बटन दबा दें तो ग्रीन लाइट रेड हो जाती है। सड़क पर भागती गाड़ियां उसका सम्मान करती हुई थम जाती हैं। आप सड़क पार करिये, दूसरी और लगा बटन दबा कर रेड लाइट फिर से ग्रीन करिये और गाड़ियां चल पड़ेगी।
और एक हम हैं-एकदम विपरीत। रेड लाइट पर भी या तो रुकेंगे नहीं। और यदि रूक भी जाएंगे तो हम कार या बाइक को धीरे धीरे सरकाते रहेंगे और मौका देख कर रेड लाइट जम्प करके भाग जाएंगे। मुझे तो पीली लाइट पर गाड़ी रोकते हुए डर लगता है। क्योंकि मेरे पीछे आने वाला लगातार हॉर्न दे कर बता रहा होता है कि उसकी रुकने की कोई मंशा नहीं है। और यदि मैं रुका तो कुचला जाऊंगा। यँहा स्थिति ऐसी है कि आप चाह कर भी नियम पालन नहीं कर सकते।
हम नियम तोड़ने में गर्व महसूस करते हैं। समस्या ये है कि दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद हमें जो आज़ादी मिली वह बिना ज़िम्मेदारी के मिली। यँहा हम रेड लाइट जम्प करने को आज़ाद है। सड़क पर बाइक पर सर्कस करने को आज़ाद है। कूड़ा जलाने को आज़ाद है। प्रदूषण फैलाने को आज़ाद है। बिना हेलमेट बाइक चलाने को आज़ाद हैं। अभिव्यक्ति की आज़ादी का दुरुपयोग करने को आज़ाद हैं। नदियों में कैमिकल बहाने को आज़ाद है। वो सब कुछ करने को आज़ाद है जो करना मना है। औऱ इतना ही नहीं, हम मात्र आज़ादी का दुरुपयोग ही नहीं करते वरन उस दुरुपयोग पर गौरान्वित भी महसूस करते है। यदि बुराई बुराई के रूप में आये तो उसे सुधारा जा सकता है। पर यदि बुराई अच्छाई के रूप में सामने आये तो उसका सुधार संभव नहीं।
ऐसे में सरकारें कुछ भी क्यों न कर लें, स्थिति में आपेक्षित सुधार नहीं हो सकता। आवश्यकता है हमें ज्यादा ज़िम्मेदार बनने की। सरकार के साथ कंधे से कंधा मिला कर काम करने की। मात्र सरकार को कोसने से कुछ नहीं होगा। अदालतें भी कुछ खास नहीं कर पाएंगी। कितने ही ट्रिब्यूनल बन जाएं, कुछ अन्तर नहीं आने वाला जब तक हम- इस शहर के निवासी अपना आचरण न सुधारें।
केवल आज़ादी अराजकता लाती है। जिम्मेदारी के साथ आज़ादी एक ऐसे समाज का निर्माण करती है जो सम्मान के साथ रहने लायक हो। जँहा हम नियमो के पालन में गर्व करें न कि नियमो के उल्लघंन में। जँहा हम कह सके कि दिल्ली हमारी है, देश हमारा है हम ही सँवारेगे हमें ही सँवारना है।