कभी कभी जब मैं थक जाता हूं जिंदगी की भाग दौड़ से, तो मन करता है ठहर जाऊं तनिक । थोड़ा विश्राम कर लूं। मन खाली हो जाय विचारों से और पुनः छोटा बन मां की गोद में सिमट छिप जाऊं उसके आँचल तले। गहरी सांस के साथ भरूं उसकी साड़ी की महक।
या फिर सुदूर किसी पहाड़ी की तराई में बसे छोटे से गावँ में जा रहूं, जँहा न ये इमारतों के जंगल हों, न फ़रेबी आदमी। न पैसे की चमक दमक हो, न दिखावटी दुनियां। बाहर एक छोटा सा बगीचा हो जिसमें रंग बिरंगी तितलियां उड़ती हों। पराग के लोभी मधुकर घूमते हों। उसके पीछे छोटा सा सब्ज़ियों का बगीचा हो। खिड़कियों से हिम आच्छादित चोटियां दिखती हों। गर्म चाय का भाप उठता कप हो, हवा में ठंडक हो और मेज़ पर अखबार पड़ा हो। देवदार और चीड़ के पेड़ों की कतारों से छन कर आती हवा हो और कोई काम न हो।
पर ऐसा होता कँहा है? न मां है और न पहाड़ो का कॉटेज ही। है तो बस मुंगेरी लाल के हसीन सपने, जो थकने पर खुली आँखों से दिखते हैं।