अक्टूबर,2018 माह की रीडर्स डाइजेस्ट के संपादकीय अंश का हिंदी भावार्थ-
"जब मेरा बेटा छह माह का था तो मैं अपने काम पर वापस आ गई थी।ये एक बड़ा निर्णय था पर मुझे लेना था। मेरा आधा मन सदा ये कोशिश करता रहता कि मैं जल्दी से अपना काम समाप्त करुँ जिससे मैं अपने बच्चे के पास घर लौट सकूं।कभी कभी मुझे अचानक भय लगने लगता कि क्या होगा अगर मेरे बच्चे के साथ कुछ गलत हो गया तो? फिर एक अपराध बोध सा होता, एक घुटन सी होने लगती जब भी मैं किसी छोटे बच्चे को उसकी माँ की गोद में किसी तस्वीर में देखती।
बच्चे को आया के पास छोड़ कर आना सबसे मुश्किल कार्य था। जैसे ही मैं तैयार होती वो जान जाता कि मैं जाने वाली हूँ। वह मुझे अपनी नज़रो से ओझल ही नहीं होने देता था। और फिर मैं घड़ी देखती कि मुझे देर हो रही है, तो हम टीवी चला कर उसका ध्यान बटाते और मैं चुपके से निकल लेती।हर बार ये इतना आसान भी नहीं होता था, पर मैंने ये लुका छिपी का खेल उसके साथ महीनों खेला। जब वह कुछ शब्द जोड़ कर वाक्य बनाने लगा, तो उसने पहली बार मुझे जो कहा, वह मैं कभी नहीं भूल सकती। उसने कहा था, "माँ, मुझ से कह कर जाया करो।"
आज भी उन धुंधले,चिन्ता भरे दिनों को सोच कर मेरा ह्रदय दुखता है। और तब मुझे ये विश्वास होने लगा था कि मैंने जो किया है इसकी सज़ा मुझे मिलेगी। वो समय आएगा जब मैं उसके लिए तरसूंगी और वह इतना व्यस्त होगा कि उसके पास मेरी पीड़ा जानने का समय ही नहीं होगा। और फिर उसके लिए नीड छोड़ने और कॉलेज जाने का समय आएगा। आज वो हाई स्कूल में है और वो संभावना मुझे और अधिक पास दीख रही है।.......
......ये हर माता पिता की और बच्चे के प्यार की और बिछोह की कहानी है। ये कहानी है अकेलेपन की और उसके दर्द की जो पीढ़ियों से चली आ रही है।............"
-संघमित्रा चक्रबर्ती