Saturday, 6 July 2019

बदलता सामाजिक परिवेश

कल शाम मैं प्रतिदिन की भांति संध्या को कार्य से वापस आ कार से उतर कर घर की तरफ़ बढ़ा ही था कि पड़ोस में रहने वाले 6-7 वर्ष के बालक पर नज़र पड़ी जो अपनी लम्बी सी टॉय गन से खेल रहा था। मुझे देखते ही उसने अपनी टॉय गन मुझ पर तान दी और मुँह से ठांय ठांय की ध्वनि करते हुए मानो गोलियां चलाने लगा। तब तक मैं उसके काफी पास आ चुका था। मैंने कहा, "अच्छा तो मुझ पर ही गोलियां चलाने लगे! मुझे क्यों मार रहे हो?" उसने तुरंत कहा, 'आप तो बूढ़े हो चुके हो।' मैं आवाक रह गया।

घटना बहुत मामूली है , पर इसने मुझे सोचने पर विवश कर दिया कि ये सब इस मासूम के दिमाग़ में किसने भरा कि बूढ़े लोगों की आवश्यकता नहीं है। उन्हें तो मार देना चाहिए। बच्चा जो अपने आसपास के परिवेश में देखता है उसे ही अपनाता है- बिना ये सोचे कि क्या अच्छा है और क्या बुरा। पिछले कुछ चार पांच दशकों में सामाजिक ताने बाने में आमूल चूल परिवर्तन आया है इससे इनकार नहीं किया जा सकता। परिवार जो संयुक्त हुआ करते थे, एकल हो गए हैं। पैसा कमाने की दौड़ में पति-पत्नी दोनों भाग रहे हैं। बच्चों को संस्कार कौन दे? बिना विवाह के साथ रहने का चलन आम हो गया है। विवाह करके बच्चे पैदा करने और पालने की जिम्मेदारी से  पति-पत्नी कतराने लगे हैं। कपड़े कम से कम पहनने में लोग गर्व महसूस करने लगे हैं। बराबरी की होड़ में लड़कियां वो सब करने लगी है जो लड़के किया करते थे बिना ये जाने कि वो सब ऐब लड़को पर भी शोभा नहीं देते। बोल चाल की भाषा इतनी नीचे गिर गई है कि जो जितनी ज्यादा गालियां देना जानता है वह उतना ही "बिंदास" समझा जाता है। समाज में  बुज़ुर्गो की अनदेखी हो रही है। माता-पिता की संपत्ति पर आंख गड़ाये बच्चे उनके मरने की बाट देख रहे हैं। और जल्द संपत्ति हथियाने की उतावली में उन्हें मारने में भी संकोच नहीं कर रहे हैं।

अभी पिछले दिनों की खबर थी कि मां की पेंशन मिलती रहे इसलिए बेटे ने मां के मरने के बाद उसका हाथ काट कर फ्रीज़र में रख छोड़ा जिसका अंगूठा चस्पा कर वह पेंशन लेता रहा। एक और खबर थी कि विदेश में रहता बेटा मां को साथ ले जाने के बहाने उसकी सारी संपत्ति बेच उसे एयरपोर्ट पर छोड़ के स्वयं उड़ गया। ऐसी कितनी ही खबरें आपको रोज़ पढ़ने को मिल जाएंगी। आप इन्हें स्वीकारें या नकारे, पर सत्य तो यह है कि सामाजिक परिवेश पूरी तरह से बदल गया है, और तेज़ी से बदल रहा है। ये बदलाव कँहा जा कर रुकेगा, कहना कठिन है।

आवश्यकता इस बात की है कि माता पिता बच्चों को बुजर्गों का महत्व, उनके बने रहने की ज़रूरत समझाएं। बच्चों के सामने, घर के बुजुगों से सम्मान से पेश आये। उनका आदर करें। नहीं तो उन्हें भी जीवन संध्या में अपने बच्चो से तिरस्कार और उपेक्षा ही मिलने वाली है। वो कहावत है न, " बोया पेड़ बबूल का तो आम कँहा ते होय"।