एक दिन उत्कट इच्छा हुई कि जँहा मेरा जन्म हुआ वो घर देखकर आऊँ। आज साठ वर्ष बीतने पर कैसा होगा वह मकान। शायद जीर्ण शीर्ण हो गया हो। खोजते खोजते मैं उस स्थान पर जा पँहुचा। बहुत कुछ बदल गया था। यमुना का लोहे वाला पुल पार करके जो पोखर था, जिसमें भैंसे अक्सर पड़ी रहती थीं वो अब वँहा नहीं था। वो चौड़ी सी पोल् अलबत्ता मुझे मिल गई जँहा से मुख्य सड़क से अन्दर जाते थे। कुछ भी जाना पहचाना नहीं था। जँहा वो मकान था उसकी जगह कोई और ही भवन खड़ा था। मैं ठगा सा खड़ा उसे देखता रहा। मेरा बचपन मेरी आँखों के सामने आ गया। स्मृतियां जी उठीं। चल चित्र चलने लगा। पुराना समय जीवंत हो उठा।
मैं तब बहुत छोटा था। पांच- छह वर्ष का रहा होऊँगा। वो घर जिसमें मेरा जन्म हुआ , उसी में मैं पला बड़ा था। एक कमरे और रसोई का ये किराए का घर मुझे बहुत प्रिय था। शायद इसलिए भी की मेरी गर्भ नाल इसी आँगन में गड़ी थी या शायद इसलिए कि मैंने इसमें ही होश संभाला था।
दूसरे कमरे के नाम पर इसमें एक छोटा आयताकार स्टोर था, जिसके ऊपर लकड़ी के पट्टो से बनी एक दुछत्ती थी जिस पर कबाड़ भरा था। उसी स्टोर की एक दीवार तोड़ कर रसोई घर में जाने का रास्ता बनाया गया था। वैसे इस छोटी सी रसोई का एक दरवाज़ा बाहर आंगन की तरफ़ भी खुलता था।
माँ बताती थी जब मेरा जन्म हुआ तो इस घर में बिजली नहीं थी। लालटेन से ही काम चलता था। पर जब से मैंने होश संभाला, यँहा बिजली आ चुकी थी। हमारे कमरे से एक बड़ी सी खिड़की पीछे सड़क की और खुलती थी, जिस पर हल्का पर्दा टँगा था। गर्मियों की दोपहरी में पीछे वाले खाली प्लाट पर बना हैंड पंप जब कोई चलाता था, तो उसकी चुरम्म चूँ की लय बद्ध आवाज़ मुझे लोरी जैसी लगती। ठंडी हवा से वो झीना पर्दा उड़ता रहता और मुझे नींद आने लगती।
आंगन में कबूतरों का जमावड़ा रहता। गुटूर गूँ करते जब वो अपनी गर्दन फुलाते तो मैं ध्यान से उन्हें देखता। वो भी अपनी गोल गोल लाल आँखों से मुझे ताकते रहते। अचानक मैं भाग कर उनके बीच पँहुचता और वो पंख फड़फड़ाते झुंड में उड़ कर छत की मुंडेर पर जा बैठते।
मेरे पास एक तिपहिया साईकल थी जो नाना जी ने दी थी। पूरे आँगन में मैं उसे गोल गोल भगाता। पीछे की सीट पर छोटे भाई को बिठा लेता। या फिर कभी वो धक्का लगाता और मुझे पैडल नहीं मारने पड़ते। घर से हथौड़ी,प्लास और तेल की कुप्पी ले मैं आँगन के एक कोने में अपनी दुकान जमा लेता। छोटा भाई तिपहिया साईकल मरम्त के लिए मेरी दुकान पर लाता, और मैं उसे उल्टी खड़ी कर एक दो जगह हथोड़े से ठोकता, प्लास से इधर उधर कसता, कुप्पी से पहियों में तेल देता और कागज़ के बने नकली नोट ले कर साईकिल उसे दे देता। बचपन हमारा इतना ही सरल था।
कुछ समय बाद जब पीछे के प्लाट पर मकान बना तो पीछे वाली खड़की बन्द हो गई। उसकी जगह तीन खाने वाला एक आला निकाल दिया गया। पीछे से आती हवा और हैंड पम्प का संगीत दोनों ही बन्द हो गए।
साथ वाले कमरे में जाजी अपने परिवार के साथ रहते थे। उनकी पत्नी मेरी माँ की अच्छी सहेली थीं। उनके बच्चे उम्र में मुझसे खासे बड़े थे। गर्मियों की शाम जाजी छत पर बैठ अपने परिवार के साथ झाँझ मंजीरों संग भजन गाया करते थे।
सामने वाले कमरे में एक पंजाबी परिवार रहता था। उन में जो घर की बुजुर्ग महिला थीं, वो आँगन में बैठ अक्सर चरखा कातती थीं। रुई की पूनियों से कैसे सूत बनता जाता था, मैं कुतूहल वश देखता रहता। उम्र ने उनके शरीर पर असंख्य झुर्रियां डाल दी थीं। कानों में वह बड़ी बड़ी सी बालियां पहने रहती थीं, जिससे उनके कान के छेद लंबे हो गए थे। सूत कातने से अवकाश मिलता तो वह खाट पर बैठ सेवईयां बनातीं या फिर अपने पोते की मालिश करतीं।
उससे सटे हुए कमरे में एक महिला अकेली रहती थी जिसका एक मात्र बेटा भूटान में कार्यरत था। वो कभी कभी माँ के पास आता था। बस ये चार परिवार रहते थे उस मकान में।
हमारे घर में हमारे अलावा भी कई और बिन बुलाए मेहमान थे। कबूतरों का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूँ। उनके अतिरिक्त, गौरेया, चूहे,छिपकलियां, ततैये और मधु मक्खियां भी थीं। कभी कभार भूले भटके तोते भी आ जाते थे। हाँ, बाहर बनी कोयले की कोठरी में सांप और बिच्छु भी रहते थे। ये सब पूरे अधिकार से इस घर में रहते थे। स्टोर की ऊपर की दुछत्ती तो चूहों के लिए सबसे निरापद स्थान था। दिन में वंही जा छिपते और रात में पूरे घर मे धमा चौकड़ी मचाते।
प्रत्येक चैत्र के आगमन से गौरेया भी आ धमकती। रौशनदान, ऊपर टँगे पंखे का कप या फिर छत और लकड़ी की सोट के बीच का स्थान इन्हें सबसे ज़्यादा पसन्द था। शायद इसलिए भी क्योंकि वँहा तक बिल्ली की पँहुच नहीं थी। इन्हीं जगहों में से कोई एक जगह चुन कर ये अपना घोंसला बना ही लेती थी। इस बात से बिल्कुल अंजान की छत पर लगा पँखा इनके लिए साक्षात काल ही था। जब भी ये आतीं, मेरा बाल ह्रदय कांप उठता कि कँही पँखे की चपेट में आ कर कट न जाएं! कई बार ये अकाल मृत्यु को प्राप्त हो जाती थी। एक बार ये घोंसला बना लें फिर माँ उसे हटाने नहीं देती थी। कहती थीं पाप लगेगा। किसी का घर तोड़ना अच्छी बात नहीं है।
शाम को छत पर माँ पानी डाल आती थी। जिससे दिन भर की तपत शांत हो जाय। रात तक छत ठंडी हो जाती थी। खुली छत पर बिस्तर लगा हम खूब धमा चौकड़ी करते। आसमान पर चाँद धीरे धीरे सरकता जाता और हम कहानी सुनते सुनते गहरी नींद में सो जाते। रात में प्यास लगने पर माँ सिरहाने रखी सुराही से पानी देती। मिट्टी की महक लिए वो ठंडा मीठा जल अमृत तुल्य लगता।
सोचते सोचते मैं मुख्य सड़क पर आ चुका था। ड्राइवर कार लिए मेरी प्रतीक्षा में था। बैठते ही मैंने कहा- चलो। अब मैं घर लौट रहा था। भूत से वर्तमान में। ऐसी असंख्य यादों को समेटता हुआ जो गांधी नगर के उस मकान से जुड़ी थीं जो आज समय की भेंट चढ़ गया था।