Thursday, 24 October 2019
ये दिल मांगे मोर!
Monday, 14 October 2019
मन वृन्दावन
मौसम एक बार फिर से करवट ले रहा है। वातावरण में ग़ुलाबी ठंडक है। फ़िज़ा में एक खुशबू सी है जो अल्ल सुबह या फिर देर रात को बाहर निकलो तो रन्ध्रों को छूते हुए हवा में तैरती हुई आगे बढ़ जाती है।
कल शरद पूर्णिमा थी। चाँद अपने पूरे यौवन पर कीकर के पेड़ के पीछे जल्दी ही आ गया था। कुछ कुछ पत्तियों के पीछे छिपा था ,पर उसकी सिंदूर मिश्रित लालिमा हल्का सा पीताभ रंग लिए उसे आज एक अलग ही रूप दे रही थी। उसकी चमक के आगे तारागण अपनी चमक खो कर बहुत ही मद्धम से दीख रहे थे। अपने पूर्ण गोलाकार मंडल के चंहु ओर आभा की छटा बिखेरता वो कब कीकर के पेड़ के पीछे से सरक कर ऊंचा उठ आया, पता ही नहीं चला। अब वो काले आकाश में आ टँगा था। सिंदूरी रंग लाली त्याग कर पूर्णतया पीताभ हो आया था। कितनी शांति है इस चन्द्र मंडल में! कितनी शीतलता है इसमें! ठीक सूर्य के विपरीत ! मन वृन्दावन बढ़ चला है। जँहा महारास की तैयारी है।
बृज की गोपियों का विरह बढ़ाता शरद पूर्णिमा का ये पूर्ण चन्द्र वृन्दावन के आकाश पर उदित हो रहा है। पास ही बहती यमुना में दृष्टिगोचर होता उसकी लहरों में प्रतिबिम्बित हो उस अगाध जल राशि के साथ क्रीड़ा करने लगा है। ऐसा लगता है मानो ढेर सा सिंदूर यमुना जल में घुल गया है। यमुना तट पर बिछी शीतल बालू पर बिखरे कण इसके प्रकाश में चांदी से चमकने लगे हैं।
अभी थोड़ी देर में श्री कृष्ण पधारेंगे। गोपियों के कई जन्मों की तपस्या का फल आज फलीभूत होने वाला है। यमुना तट पर मन्द मन्द समीर बह चली है। रात-की-रानी, चम्पा और बेला के पुष्पों की महक से सारा प्रदेश सुवासित हो उठा है। पूर्णिमा का चन्द्र आकाश में पूरी तरह से उदित हो चुका है। प्रकृति ने मानो महारास के लिए सारी तैयारी कर दी है। ये वातावरण में वंशी की तान किसने छेड़ दी? स्वर लहरी दूर से पास आती जा रही है। गोपियां विस्मित हो स्वर लहरी की दिशा में देखने लगी हैं। कँहा है वो जो ये जादुई तान छेड़ रहा है?
मृग और मृगी अपने अपने छोनो के संग खिंचे चले आये हैं। अपने बड़े बड़े नयनों से निर्मिमेष देखते हुए अपने कानों के दोनो को स्वर की दिशा में खड़े कर उस स्वर माधुरी को पी रहे हैं। यमुना जल की गति मंथर पड़ गई है। जल राशि आगे बहना नहीं चाहती।
तभी अचानक से गहन वन से श्री कृष्ण प्रकट हुए। घुँघराली नीली अलकें, कानों में मकराकृत कुण्डल, बिम्बा फल के सदृश होंठ, सुन्दर विशाल नयन, सिर पर मयूर पिच्छ, मोतियों सी दन्तावली, गले में वैजयन्ती माल, पुष्पों का क्षृँगार ओर पीताम्बर धारण किये, करोड़ो कामदेवों के मद को चूर करते हुए, धीमी सी मधुर तान वंशी के रन्ध्रों से छेड़ते सबके बीच श्री कृष्ण के प्रकट होते ही सब ठगे से रह गए। पूर्ण चन्द्र ने भी अपनी गति मानो रोक दी हो। पूरी प्रकृति विस्मित सी हो रुक गई है। सभी पाषाण मूर्ति हो गए। चन्द्र की चमक भी फीकी पड़ गई।
तभी मेख सी गम्भीर वाणी में श्री कृष्ण ने गोपियों से कहा, "अरी गोपियों! मध्य रात्रि का समय है। इस समय तुम सब को घर से बाहर नहीं रहना चाहिए। अतः अपने अपने घर लौट जाओ। तुम्हारे पति, सास, श्वसुर, और बालक चिंतित होंगे। तुम्हारी बाट देखते होंगे। तुम सब घर लौट जाओ।
अपने आराध्य, अपने प्रियतम के मुख से ऐसी निष्ठुर वाणी सुन गोपियों के दुःख की सीमा न रही। उनकी आंखों से अश्रु बह चले। उनके होंठ शुष्क पड़ गए। उन्होंने भांति भांति से श्री कृष्ण को समझाया। अपने लौकिक पति और सगे संबंधियों के संबंधों की असारता बताई। और फिर जब श्री कृष्ण ने देखा कि गोपियों का अनुराग सच्चा है, लौकिक वासना से परे है, तब वँहा प्रारम्भ हुआ दिव्य महारास।
जो आज भी होता है। कल की शरद पूर्णिमा पर भी हुआ था। बस अंतर इतना है कि हम अपने सीमित नेत्रों से उसे देख नहीं पाते। क्योंकि हम उस दिव्य लीला में प्रवेश के अधिकारी नहीं है। आज भी उच्च आत्माओं को, सन्तों को सुबह कुछ आभूषण मिलते हैं जो रात्रि की रास लीला के नृत्य करते समय यमुना की बालू में गिर पड़े थे। धन्य हैं वे संत जिन्हें ऐसा कुछ अनुभव हुआ है।
और जँहा तक महारास के वर्णन का प्रश्न है, मैं तो क्या, स्वयं शेष भी अपने मुख से इसका पूर्ण वर्णन करने में स्वयं को असमर्थ पाते है। फिर भी श्री भागवत के पाँच अध्यायों में इसका वर्णन शुकदेव जी ने किया है। रास में दोष बुद्धि रखने वालों से मेरा आग्रह है कि इसे न पढ़े।