हवा में बर्फ सी ठंडक थी पर धूप अच्छी खिली हुई थी। पैंट की जेब में हाथ डाले और कोट के आगे के बटन बंद कर मैं चल पड़ा। बाहर काफी चहल पहल थी। शिवाजी ब्रिज के स्टेशन के लिए जँहा से अंदर जाना पड़ता है, उसके मुहाने पर कई सारे फल वाले बैठते हैं। मैं इन्हें पिछले 35-40 वर्षों से देख रहा हूँ। उसकी पास दो तीन पपीते वाले खड़े रहते हैं। वो सब आज भी यथा स्थान थे। मुझे लगता है कि ये लोग पीढ़ी दर पीढ़ी यँहा जमे हुए हैं। लोग बाग कटे पपीते का आनन्द ले रहे थे। उनमें से ज़्यादा बुजुर्ग या फिर अधेड़ उम्र के लोग थे।
मुझे अपना एक मित्र याद हो आया। हम दोनों अक़्सर दोपहर के भोजन के बाद बाहर आ जाते थे। दूसरी ओर से इसी समय इरवो के कर्मचारी भी आ जाते थे पपीता खाने। इनमें मेरे रेलवे के भी कुछ रिटायर्ड सहयोगी थे। वो जब भी मेरे मित्र को पपीता खाने की दावत देते तो वह कुछ न कुछ बहाना कर टाल जाता। मैंने एक दिन पूछ ही लिया कि आखिर वो पपीता क्यों नहीं खाता। उसका जवाब था कि पपीते के प्रयोग से पौरुष शक्ति कम हो जाती है। ये कह कर वो जोर से हँसा और मैं समझ नहीं पाया कि ये बात उसने हास्य में कही थी या गम्भीरता से। कारण चाहे कुछ भी हो पर पपीता खाने वाले अक्सर बुजुर्ग ही देखे जाते हैं! आज भी वँहा ऐसे ही लोगों का जमघट था।
मैं आगे बढ़ा तो जर्जर पड़े कैम्पाकोला के प्लांट पर नज़र पड़ी। ये शुरू से ऐसा नहीं था। मैंने इस बॉटलिंग प्लांट को काम करते देखा है। क्या शान थी इस प्लांट की। स्कूली बच्चे ग्रुप में इसे देखने आते थे। न जाने क्या हुआ कि आज ये वर्षो से बंद पड़ा है। इसके दरवाज़े पर एक गार्ड अवश्य है पर ये पूरी तरह जर्जर हो चुका है। इसके गेट के सामने जो एक पुरानी पत्रिकाओं की दुकान थी, वो अभी भी वंही है। यँहा से पुरानी पत्रिकाएं सस्ते दामों पर ली जा सकती हैं। वो अलग बात है कि आजकल पत्रिकाएं पढ़ता ही कौन है! इस भीड़ भाड़ से आगे बॉटलिंग प्लांट के सामने खड़ी कारो के कतारों से निकलता हुआ मैं शंकर मार्किट के गलियारे में आ जाता हूँ। यँहा से इरवो ऑफिस जाने के लिए रास्ता शंकर मार्किट के पीछे की ओर जाता है। अच्छी चौड़ी सड़क है। गाड़िया अंदर चली जाती हैं। इसीके कोने में एक महिलाओं के लिए बिंदिया, नेलपॉलिश, बालों के क्लिप और पिन इत्यादि की एक छोटी सा स्टॉल है। कुछ लड़कियां वँहा ख़रीदारी कर रही थीं। साथ में ही सटी हुई एक लेडीज़ पर्स की छोटी सी दुकान भी है। मैं निरुला पनीर की दुकान के सामने से निकला। ये यँहा की बहुत पुरानी पनीर की मशहूर दुकान है। सादे पनीर के साथ आपको जीरा पनीर, नूडल्स, अंकुरित दाल, सोयाबीन चाप, कच्चा मावा और कई प्रकार के मसाले मिल जायेंगे। लेडीज़ सूट और साड़ी की दुकान के आगे तरह तरह के परिधानों से सुस्सजित प्लास्टिक के मॉडल्स खड़े हैं जिन्होंने आधा गलियारा रोक लिया है। उसके आगे टँगी साड़ियों और सूट पीस पर दामों के स्टिकर लगे हैं। नेट की साड़ी 750 रुपये में ली जा सकती है। गलियारे में ही एक शककरकन्दी वाला अपने खोमचे को लिए खड़ा है। हरी हरी कमरख एक ओर सजी है। दो लड़कियां उससे भुनी शकरकन्दी के दोने बनवा रही थी। उसमें वो मसाला बुरक कर नींबू निचोड़ रहा था। मेरे मुंह में पानी आ गया। पर मैं शकरकन्दी नहीं खा सकता। मन मार आगे बढ़ गया। कुछ ही आगे, एक स्टॉल पर गाज़र का गर्म हलवा मिल रहा था। पास ही गर्म मुलायम गुलाब जामुन चाशनी में डूबे थे। कुछ लोग खाने के बाद, मीठे का आनन्द ले रहे थे। मैंने उससे निगाहें हटा लीं। गलियारे के दूसरी और एक औरत, टेबल क्लाथ बेच रही थी। दूसरी और से आती एक अन्य महिला को उसने नमस्ते की और नए वर्ष की शुभकामनाएं दीं। शायद वो वँहा अक्सर आया करती थी। उस महिला ने भी मुस्करा कर अभिवादन स्वीकार किया और आगे बढ़ गई।
जल्दी में मुझसे टकराते टकराते बची। मुझे ऐसी परिस्थिति से बड़ी घबराहट होती है। यदि कोई महिला जान बूझ कर भी आपसे टकरा जाए तो वह "सॉरी" कह कर निकल सकती है। पर यदि आप कहीं गलती से भी किसी महिला से छू भी जाएं तो बस आपकी फिर खैर नहीं। अतः मैं तो इनसे दो फ़ीट की दूरी ले कर ही चलता हूँ। मेरा तो मानना है यदि सामने से साँप और महिला दोनों आ रहे हों तो भलाई इसी में है कि महिला से बचें। साँप के काटे का तो इलाज़ है पर यदि महिला ने सड़क पर हंगामा कर दिया तो आपको तो बस साक्षात प्रभु ही बचा सकते हैं।
खैर कुछ आगे पालतू कुत्तों के लिए बर्तन, फूड, उनके लिए घर, सर्दी के कवर आदि की दुकान है। उसके बाहर कुत्तों के बड़े बड़े से पोस्टर लगे हैं। पास ही दो आवारा कुत्ते धूप में सो रहे थे। आस पास की दुनियां से बिल्कुल बेखबर। उनसे कुछ आगे गलियारे की दीवार के सहारे एक भिखारी गन्दे से कम्बल में लिपटा लेटा था। कोई लड़का सामने से दस दस के कुछ नोट गिनता उसकी ओर आता दिखा। नोट देख उस भिखारी की आंखों में चमक आ गई। वो उठ बैठा और उस लड़के से पूछा, "कितने हैं?" उसका जवाब सुने बिना ही मैं आगे निकल आया।
शंकर मार्किट का गलियारा यँहा तक ही था। मेरे सामने था, कनॉट प्लेस का बाहरी सर्कल। सामने सड़क पर वाहन भाग रहे थे। मैं दायीं और चल पड़ा। यँहा कुछ खाने की दुकानें हैं जँहा, राज़मा- चावल, कढ़ी-चावल, सरसों का साग-रोटी आदि मिलता है। बहुत से लड़के लड़कियाँ गर्मा गर्म खाने का लुत्फ ले रहे थे। एक ही थाली मैं यँहा आपको, चावल, उसके ऊपर राज़मा या कढ़ी, अचार, पापड़, प्याज़ के लच्छे डाल कर सर्व किया जाता है। गर्मियों में यँहा दही की लस्सी भी खूब बिकती है। कुछ पेड़ के चारो और बने पक्के चबूतरे पर बैठे खा रहे थे तो कुछ सामने रखी गई ऊंची टेबल पर थाली रख खड़े खड़े खा रहे थे।
मुझे कुछ और आगे जाना था। सर्कल के फुटपाथ पर चलते हुए औटो मोबाईल की दुकानें, तस्वीरों की दुकानें देखता हुआ मैं चलता जा रहा था। सामने फुटपाथ पर अच्छी खासी भीड़ जमा थी। मुझे लगा कि कोई झगड़ा हो गया है। असल में ये भीड़ 'काके दे होटल' के ठीक सामने उन लोगों की थी जो अंदर जाने के लिए अपनी बारी के इंतज़ार में थे। मुझे मिंटो ब्रिज के सामने वाली सड़क पार करनी थी। मैं हरी बत्ती होने के इंतज़ार में था। मिंटो ब्रिज के ऊपर से कोई रेल धीरे धीरे सरक रही थी। यँहा कभी "लीडो" हुआ करता था जो अपने भद्दे डांस के लिए बदनाम था। बत्ती हरी हो गई थी । मैंने सड़क पार की और जल्द ही मैं भंडारी होम्योपैथी की दुकान के अंदर था। अपनी दवाइयां ले के मैं पुनः चल पड़ा उसी रास्ते से वापस अपने गंतव्य की ओर।
शंकर मार्किट नई दिल्ली का एक अलग ही चित्र प्रस्तुत करता है। जँहा भव्यता है तो सादगी भी है। जँहा अमीर दिखते हैं तो भिखारी भी हैं। जँहा हर जेब के लिए बाज़ार है। जिसने वर्षों से कई उतार चढ़ाव झेले हैं। जिन्हें वो ही जान सकते हैं जिन्होंने इस को बदलते हुए देखा है।