Saturday, 26 June 2021

बदलते मौसम

पूरा जून जाने को है पर बदरा नहीं बरसे। आषाढ़ के भी कुछ दिन निकल गए पर कुछ नहीं हुआ। जेठ को क्या कहें वो तो मुझ सा सूखा रूखा ही रहता है। रोज़ उम्मीद के साथ शुरू होती है और रोज़ शाम आते आते उम्मीद टूटने लगती है। शायद रात में बरसें। पर सुबह फिर धरा सूखी ही मिलती है। पहले यही बदरा कितना बरसा करते थे। अब न जाने किसका श्राप लग गया है। कितने ताल तलैय्या भर जाया करते थे। कागज़ की नाव तैराते हम थकते नहीं थे।आज तो उमस बहुत है। शायद बरसें। पर झूठी उम्मीद से मन तो बहल सकता है धरा की प्यास तो नहीं बुझ सकती। 

कुछ गिलहरियों ने पूरी दुपहरी उधम किया। आम के पेड़ पर चढ़ उतर खूब शोर मचाया। चिड़ियों ने भी धूप से बचने को घनी पत्तियों की छाया का सहारा लिया। मैं इन के लिए पानी भर कर रख देता हूँ पर ये पानी पीने आती नहीं हैं। आस पास कहीं और इन्हें निरापद स्रोत मिल गया दिखता है। 

चींटियों का आवागमन भी इन गर्मियों में बहुत बढ़ गया है। दरवाजों की चौखटों के नीचे से ये छोटा सा जीव मिल जुल कर ढेर मिट्टी रोज़ निकाल देता है। मेरी पत्नी मिट्टी हटाते हटाते थक गई है पर ये चीटियां नहीं थकी। उसी रफ़्तार से रोज़ मिट्टी निकलना बदस्तूर जारी है। चोखट नीचे से खोखली हो चुकी हैं। पर इन्हें क्या?  इन्हीं दरारों में छोटे छोटे नव आगन्तुकों ने बाहर की दुनियां देखने के लिए सिर उठा लिया है। मैं इन्हें तोड़ता नहीं हूँ। बढ़ने देता हूँ। थोड़े दिनों में इन पर फूल सज जाएंगे। तितलियाँ, भोरें और मधु मक्खियां इन पर मंडराएंगी। 

कभी गर्मियों भी सुहानी लगा करती थीं। सबसे ज्यादा गर्मियों के आकर्षण तो गर्मियों की छुट्टियां होती थी। बर्फ का ठंडा दूध रात में और सिल बट्टे पर पिसी ठंडाई कभी कभी दिन में। आमो की बहार, जामुनों की भरमार, लीची, आड़ू, आलू बुखारे, तरबूज और ख़रबूज़े। अब क्या क्या गिनाएं। छत को धोना फिर छत पर सोना। नीम की कड़वी  निबौली, और पेड़ के मीठे शहतूत। बर्फ में लगी खिरनी और ठंडे ठंडे लौकाट। मिट्टी के घड़े में बर्फ में कलमी शोरा और साबत नमक डाल के तम्बाकू के डिब्बों में जमी आइसक्रीम। माँ के सोते है चुपके से खिसकना और भरी तपती दुपहरिया में खेलना। छत की तपती डोलियों पर शाम को पानी डालना और देर तक उस सुगन्ध को सूंघना। पास के पेड़ से लिसोड़े तोड़ना और फटी पतंग उसके लेस से चिपकाने का व्यर्थ प्रयत्न करना। औऱ न जाने क्या क्या। अब गर्मियां वैसी नही होती। न ही बारिश ही वैसी होती है और न ही सर्दियां ही। या तो मौसम बदल गए हैं या फिर हम बड़े हो गए हैं। 

बरबस वो ग़ज़ल याद हो आई - मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी।

 


Saturday, 19 June 2021

गाँव

गाँव, देहात मुझे बचपन से ही अच्छे लगते हैं। विडम्बना ये है कि मेरा कोई गाँव ही नहीं है। अधिकतर लोग अपने गाँव जाते हैं। और मैं बचपन से ही सोचता हूँ कि हमारा कोई गाँव क्यों नहीं है। वैसे अब तो अधिकतर गाँव भी कस्बों में तब्दील हो गये हैं। और उनमें गाँव जैसी कोई बात बची नहीं। जीवन शैली में परिवर्तन हुआ है। आधुनिकता का राक्षस गाँवो की सरलता को निगल गया है। जो कुछ बचे खुचे गाँव बचे हैं, वहाँ भी राजनीति प्रवेश कर गई है। मूलभूत सुविधाओं से हीन ऐसी जगहों में कौन रहेगा और क्यों रहेगा। आजकल अजमेर आया हूँ। आज समधी जी के साथ गाँव जाना हुआ। सोचा इसे लिपिबद्ध कर लूँ जिससे स्मृति ताज़ा बनी रहे।

सुबह साढ़े आठ बजे समधी साहिब गाड़ी ले मुझे लेने आ गए। उनके साथ उनकी बड़ी बहू और पोती भी थीं। गाड़ी ड्राइवर चला रहा था और मैं आगे की सीट पर बैठा था। अजमेर की गलियों चौराहों से निकल कर हम जल्द ही ब्यावर राज मार्ग पर आ गए। मैंने पहली बार ड्राइवर को ध्यान से देखा। वह एक कम उम्र का लड़का था। काले रंग का जो मास्क उसने लगा रखा था वो नाक पर ऐसे लगा था कि मास्क दोनों और अच्छा खासा खुला हुआ था। मेरी समझ से ऐसा मास्क लगाना बस मास्क लगाने की औपचारिकता भर थी। उसका कोई लाभ नहीं होने वाला था। मेरे मन में आया कि इसे टोक दूँ, पर यँहा परिस्थिति भिन्न थी । अतः मैंने मौन धारण करना ही उचित समझा। 

गाड़ी अब राज मार्ग पर दौड़ रही थी और सीमित गति से आगे होने के कारण बार बार बीप कर रही थी। मैंने डिजिटल स्पीडोमीटर पर नजर डाली - हम 97-100 के बीच की गति पर थे। इतनी गति पर मैं असहज हो जाता हूँ। हम "तबीज़ी" गॉंव अपनी दायीं और छोड़ते "सराधना" की और बढ़ रहे थे । वैसे "सराधना" अहमदाबाद रेल मार्ग पर पड़ने वाला एक छोटा सा स्टेशन भी है। पर मेल एक्सप्रेस गाड़ियां यहां नहीं रुकती हैं। मील का पत्थर मुम्बई की दूरी 840 किलोमीटर दिखा रहा था। ये राज मार्ग 6 लेन का है और अजमेर से ब्यावर होते हुए जोधपुर जाता है। इसी से आगे उदयपुर, अहमदबाद होते हुए मुम्बई जाया जा सकता है।

"सराधना" से कोई डेढ़ किलोमीटर आगे हम अपने हाथ को बाईं और जाते एक कच्चे रास्ते पर मुड़ गए। वहाँ न कोई बोर्ड था और न ही किसी प्रकार का संकेत चिन्ह ही था जो यह दर्शाता हो कि ये रास्ता किसी गॉंव की और जाता है। मेरे जैसा बाहरी व्यक्ति तो ये स्वप्न में भी नहीं सोच सकता कि ये कोई रास्ता भी है। आगे उबड़ खाबड़ गड्ढों से भरा कच्चा रास्ता था। गाड़ी धीमी गति से हिचकोले खाती हुई आगे बढ़ रही थी। दोनों और खेत थे जिन पर शायद बुआई हो चुकी थी। कीकर की कांटेदार झाड़ियों की बाढ़ उनकी सुरक्षा कर रही थी। दो एक चरवाहे मिले जो बकरियां चरा रहे थे। एक भीनी सी मिट्टी की महक पूरे वातावरण में व्याप्त थी। एक सन्नाटा जो बस गाड़ी के इंजन के शोर से भंग हो रहा था, चंहु और पसरा था। मैं दोनों और मन्त्र मुग्ध सा देख विभोर हो रहा था। एक तीतर गाड़ी के आगे आगे चल रहा था। जैसे ही उसे मार्ग मिला वो खेत में घुस गया।

 कुछ मोड़ और मुड़ कर गाड़ी एक पक्के मकान के सामने जा रुकी। मैं समझ गया कि गंतव्य आ गया है।  दरवाज़ा खोल ज्यों ही नीचे उतरा, बहती पवन ने स्वागत किया। अन्य सब भी गाड़ी से उतर गए थे। ये बहुत ही छोटा गाँव था। कोई 10-15 घर रहे होंगे। ये वो लोग दे जिनकी खेती यहाँ थी और  इन्होंने यहीं अपना बसेरा कर लिए जिससे खेती की देखभाल हो सके।  लोहे का दरवाज़ा खोल हम अंदर आये। मेज़बान समधी साहिब के सबसे छोटे भाई थे। गत अप्रेल में ही इन्होंने कोविड से अपनी धर्म पत्नी को खो दिया था। अचानक बड़े भाई को आया देख भाव  विवह्ल हो गए। आंखों में आँसू भर आये और गला रुँध गया। इतनी सरलता इतना विशुद्ध प्रेम आजकल शहरों में कहाँ देखने में आता है।  आप का अपना स्वास्थ्य भी ठीक नहीं चल रहा था। बेटा खेती बाड़ी संभालता है। टीन शेड के नीचे बिछे दो पलँगो पर हम बैठ गए। हवा बहुत अच्छी चल रही थी। सामने कुछ भैंसे बंधी थी। कुछ बकरियां भी एक बाड़े में बंद थी। भैंसों के कानों में लगे पीले रंग के बिल्ले मेरी उत्सुकता बढ़ा रहे थे। आखिर मैं पूंछ ही बैठा। उनके बेटे ने हंसते हुए बताया कि इन्हें भैंसो का आधार कार्ड समझिये। जानवर से सम्बंधित सारी जानकारी इस पर अंकित है। उन्होंने बताया कि एक मोबाइल एप्प भी है जिस पर ये कोड डालने से सारी जानकारी उपलब्ध हो जाती है। जानवर यदि खो जाए तो ये कोड उनके मालिक का अता पता सब मिनटों में उपलब्ध करा देता है। और बिना इस टैग के सरकार की और से मुफ्त मिलने वाली दवाइयां और टॉनिक भी नहीं मिलते। 

सामने नीबूं के कुछ पेड़ लगे थे। यहाँ ज्वार, बाजरा और शायद मक्का की खेती होती है। गेंदे और हज़ारे के फूलों की खेती भी ये लोग करते हैं। अब तक मैं गेंदे और हज़ारे के फूलों को एक ही जानता था। पर यहाँ मुझे पता चला कि दोनों में अंतर होता है। पानी के लिए अभी भी राजस्थान का किसान वर्षा पर निर्भर है। इस बीच नए कृषि कानून और किसान आंदोलन को लेकर भी चर्चा हुई। कुछ नए पहलू सामने आए। शहर में बैठे हम लोग शायद इन पहलुओं को एक अलग परिपेक्ष्य में देखें पर काश्तकार के नज़रिए से देखें तो कई नई बातें सामने आती हैं। मुझे यहां का आम किसान नए कृषि कानून के पक्ष में लगा।  

मेरी कृषि और बागवानी में रुचि है । वो अलग बात है कि अपनी बॉलकोनी में मैं फूल पत्ती उगाने में भी कभी सफ़ल नहीं हुआ। पर गॉंव मुझे आकर्षित करते हैं। मिट्टी की सौंधी महक मुझे खूब लुभाती है। हरी भरी खड़ी फ़सल के बीच बहती हवा मुझे एक अलग ताज़गी प्रदान करती है। सरकंडो के बीच से सायं सायं जब हवा बहती है तो मेरे कानों को एक मधुर संगीत सा लगता है। तरह तरह के रंग बिरंगे पक्षी आस पास के झुरमुटों में अपना आशियाना बना लेते हैं। कहीं कहीं पेड़ो पर बया के घोंसलें लटके दिखते हैं जो हवा के साथ झूलते हैं। मन तो था कि कुछ घन्टे वहीं बैठ बतियाते रहें । पर समय न होने से लौटना पड़ा। उन्हीं टेढ़े मेढे उबड़ खाबड़ रास्तों से होती हमारी गाड़ी पुनः राज़मार्ग पर आ गई। मैंने मुड़ कर देखा, खेत और गॉंव कहीं दूर खो गए थे। बस उस छोर पर पहाड़ दिख रहे थे । हम एक बार फिर कंक्रीट के जंगल की और बढ़ रहे थे।