Saturday, 7 August 2021

अर्थ अनर्थ

शनिवार की सुबह बिस्तर छोड़ने का मन ही नहीं होता। मोबाईल का अलार्म बजते बजते थक कर बजना ही बंद हो गया। अपने राम कानों पर तकिया लगा कर सोये रहे। पंखे की हवा और सुबह की मीठी नींद; कौन कमबख्त उठे। 

पत्नी कब से जगा रही है। पर सोते को तो जगाया जा सकता है। जगे हुए को कौन जगा पाया है? चाय बिस्तर के सिरहाने साइड टेबल पर पड़ी थी। उनींदा सा उठा जल्दी से खत्म की और फिर पसर गया। पत्नी ने रात ही कहा था कि कल सुबह सैर पर जाओगे। आजकल सुबह की सैर पिछले कई माह से बंद है। मन ही नहीं होता मास्क पहन कर उसी कम्पाउंड में चक्कर लगाने का। मन भी अजीब चीज़ है। कई बार अकारण ही परेशान रहता है। मैं इससे कई बार पूँछ चुका हूँ- प्यार से, दुलार से, फटकार से कि आख़िर बता तो परेशानी क्या है? पर सब व्यर्थ। ये कुछ बताता ही नहीं। और खुश भी नहीं रहता। अवसाद से घिरा मन न तो सुबह सैर के लिए तैयार होता है न ही योग और प्राणायाम के लिए। बस ऑफिस के लिए मुझे धकेलता है क्योंकि ये भी जानता है कि वहाँ तो जाना ही है। ऐसे मैं छुट्टी की सुबह तो ये मचल ही जाता है कि सोते रहो। उठना क्यों है!

काम वाली कमरे में सफ़ाई के लिए आ चुकी थी। झाड़ू लगाने से पहले उसने पँखा बन्द किया। एकदम से गर्मी हो गई। पर अपने राम नहीं उठे। पत्नी ने तेज़ आवाज़ में रेडियो चला दिया पर बन्द करवा कर फिर सो गए। आख़िर आठ बज गए। पत्नी ने कहा कि घर में कोई सब्ज़ी नहीं है, मदर डेरी चलना ही पड़ेगा सब्ज़ी के लिए। मन तो कतई राज़ी न था। बेमन से उठे, मुँह धोया गाड़ी की चाबी उठाई और पार्किग से गाड़ी निकाल चलने ही वाले थे कि ध्यान आया मास्क तो लगाना ही भूल गए। पत्नी को भेजा कि मास्क ले आओ। जितने मास्क आया, स्टीयरिंग पर सिर रख के दो मिनट आँखें बंद कर ली। नींद अभी भी पलकों पर ही थी। मन ने कहा , "मैं न कहता था कि वहीं सोते रहो।" खैर, सब्ज़ी और फल ले सही सलामत घर पर आ गए।

बैठे ही थे कि पत्नी ने कहा, "वो वर्मा जी को देखो। सुबह शाम दौड़ते हैं। और गुप्ता जी तो रोज़ सुबह दौड़ लगाते हैं। पड़ोस के सक्सेना जी भी नियम से सुबह सैर करते हैं। और ऊपर वाले तो यूनीवर्सिटी गार्डन में जाते हैं। पत्नी हमारी शुभ चिन्तक है। वो चाहती है कि हम भी अपने स्वास्थ्य के प्रति जागरूक रहें। पर हम भी कहाँ चुप रहने वाले थे। अपने आलस्य को भी तो सही ठहराना था। तो हो गए अपने राम शुरू।

हमने कहा देखो हर व्यक्ति का जीवन जीने का अपना अपना नज़रिया है। कुछ दौड़ लगाते हैं तो कुछ आराम फ़रमाते हैं। वैसे अगर देखा जाए तो आदमी की शारीरिक संरचना दौड़ने के लिए नहीं बनी। अगर प्रभु चाहते कि ये दौड़े तो उसे घोड़ा बनाते न कि आदमी। अब प्रश्न ये उठता है कि फिर वो दौड़ता क्यों है। जैसे आदमी की शारीरिक संरचना मांस भक्षण के लिए नहीं बनी पर फिर भी वो स्वाद के लिए माँस खाता है ऐसे ही हालाँकि आदमी के पैर दौड़ने के लिए नहीं बने हैं पर फिर भी वो जनून के लिए दौड़ता है। कुछ मैराथन दौड़ते हैं फिर अपने फ़ोटो सोशल मीडिया पर पोस्ट करते हैं। ये भी एक जनून ही है, अपने को औरों से अलग दिखाने का। ये  मैराथन दौड़ने वाले ओलिंपिक तक या तो  पँहुचते ही नहीं हैं और या वँहा की भीड़ में पिछड़ जाते है। 

और ये कहना तो गलत ही है कि हम में से केवल कुछ लोग ही भागते हैं। हकीकत तो ये है कि हम सभी भाग रहे हैं। कोई परेशानियों से भाग रहा है तो कोई जिम्मेदारियों से। कोई जिन्दगी से भाग रहा है तो कोई घर से। कोई  गॉंव से भाग रहा है तो कोई शहर से। कोई कानून से भाग रहा है तो कोई डर से। सभी भाग ही तो रहे हैं। 

जब हम पढ़ते थे तो गोपाल प्रसाद व्यास की एक कविता हमारी पाठ्य पुस्तक में थी। शीर्षक था ,"आराम करो"। उस कविता से हम इतने प्रभावित थे कि पढ़ते पढ़ते ही खर्राटे लेने लगते थे।  पिताजी सुबह धक्का मार कर सामने वाले पार्क में भेजते थे कि दो चार चक्कर लगा कर आओ। हम तो बैंच पर हाथ का तकिया लगा गोपाल प्रसाद व्यास को याद करते करते सो जाया करते थे। वो कविता आज भी ज़हन में ताज़ा तरीन है। एक बानगी देखो।

"अदवायन खिंची खाट में जो 
पड़ते ही आनंद आता है।
वह सात स्वर्ग, अपवर्ग, मोक्ष 
से भी ऊँचा उठ जाता है।
जब 'सुख की नींद' कढ़ा तकिया, 
इस सर के नीचे आता है,
तो सच कहता हूँ इस सर में, 
इंजन जैसा लग जाता है।"

हमारी इस बक बक से पत्नी तंग आ गई थी। बोली, "अर्थ का अनर्थ करना तो कोई आप से सीखे।" इसी बक झक में नौ बजने आ गए थे। अपने राम ने भी तौलिया उठाया और नहाने चल दिये।