Monday, 18 October 2021

मैना, गिलहरियां व रेल का फाटक

कार्तिक प्रारंभ होने  में बस एक दिन शेष है। इन दिनों बरसात सामान्य तो नहीं कही जा सकती। कल से पानी बरस रहा है मानो सावन चल रहा हो। रात रह रह के मेघ गरज़ रहे थे। मैंने पर्दा हटा के देखा तो तड़ित भी रह रह के कौंध रही थी। अंधेरे आकाश पर चमकीली रेखाएं अचानक जल उठतीं और तुरन्त ही विलीन भी हो जाती। चाँद जो पूर्ण यौवन की दहलीज़ पर खड़ा है, मेघों की गरज़ से डरकर बादलों में कहीं छिप गया है। 

आज सुबह उठा तो भी रिमझिम रस की फुहार बरस रही थी। और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, दिल्ली की हवा का मिज़ाज जो कुछ दिनों से बिगड़ा हुआ था, कुछ ठीक हुआ है। अक्टूबर और नवम्बर के बीच पराली जलने से जो दम घोटू हवा इस शहर की हो जाती है, एक एक साँस मुश्किल कर देती है। रही सही कसर पटाखों का धुँआ पूरी कर देता है। मुझे तो चिन्ता सताती है ओड इवन के लागू होने की। समय पर काम पर पहुँचना एक बड़ी समस्या बन जाती है। वैसे भी पैट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं। सोचता हूँ, कार छोड़ ही देनी चाहिए। एक बारिश ही एकदम से हवा साफ़ करने में सक्षम है। इसलिए बे मौसम भी बरसती रहे तो अच्छा है। 

पर बहुत से लोगो के लिए ये बारिश भी मुसीबत बन जाती है। बेघरों के लिए तो आसमान ही छत है। वो ही टपकने लगे तो वो बेचारे कहाँ जाएं! बहुतों के लिए तो यही बारिश काल बन जाती है। आज ही पढ़ रहा था केरल में 22 लोगों की जान चली गई। 

आज छुट्टी पर हूँ । उकता कर बॉलकोनी में आ बैठा हूँ। ये मैना पक्षी अल्ल सुबह से शोर कर रहे हैं। आम के पेड़ की घनी पत्तियों में छिप कर शायद छिपा छिपी खेल रहे हैं। इन्हीं को देखने कुर्सी डाल बाहर आ गया हूँ। पत्ता पत्ता वर्षा से धुल खिल उठा है। बड़े प्रयत्न के बाद पत्तो में छिपी मैना देख पाया हूँ। अलबत्ता गिलहरियां जरूर पेड़ से उतर तने पर आ मुझे देख चिल्ला रही हैं। मैना की आवाज बहुत तेज़ है। एकदम ऊँचे स्वर में चिल्लाती हैं। सामने के छोटे झाड़ पर लाल रंग के पुष्प खिले हैं। पीली तितलियों का एक जोड़ा इन में पराग तलाश रहा है। एक छोटी सी चंचल चिड़िया जो शायद इसी पेड़ पर रहती है कुछ सशंकित सी है। मैं मोबाईल कैमरे से उसे पकड़ने का प्रयत्न करता हूँ पर वो दूर है। बड़ा कैमरा निकलने और जूम लैंस लगाने का मूड नहीं है। जब तक ट्राइपॉड पर फिक्स करूँगा ये उड़ जाएगी। बूंदा बांदी फिर शुरू हो गई है। मैना अपने तीखे स्वर में चिल्लाये जा रही है। छोटी चिड़िया उड़ गई है। माली आ कर आम के पेड़ की छटाई के लिए कहता है। मैं स्वीकृति दे देता हूँ। छटेगा तो ऊपर की और बढ़ेगा। नीचे की क्यारी में ग़ुलाब लगने हैं उन्हें भी बढ़ने को धूप चाहिए। पिछले वर्ष आम खूब ही फला था। पेड़ पौधे हैं तो जीवन है। पशु पक्षी हैं तो प्रकृति है। प्रकृति है तो हम हैं। आवश्कता है इस तारतम्यता को समझने की। कल की तुलना में आज इसकी आवश्यकता अधिक है। पर हम तो विकास चाहते हैं। किसी भी कीमत पर। प्रकृति का दोहन हो तो होता रहे। किसे चिंता है! मेरे देखते देखते मेरे आस पास कितना कुछ इस विकास की भेंट चढ़ चुका है। अभी कुछ दिन पूर्व ही रोशनआरा बाग से कार द्वारा आना हुआ। 

बरसों बाद इस जगह से गुजरा था। मैं पुराना रेल का फाटक ढूंढ़ रहा था पर अचानक अंडर-पास के मुहाने पर आ गया। ये कब हुआ!  कितना कुछ बदल गया है यहाँ। ऊपर से गुज़रती रेल की पटरी के नीचे  ये अंडरपास कब कर के बन गया! जब तक मैं समझ पाता, कार उस अंधेरी गुफ़ा में आ चुकी थी जिसकी  दीवारों पर उकेरी आकृतियों को कृत्रिम रोशनियां प्रकाशित कर रही थी। बची हुई कसर कार की हैड लाइट ने पूरी कर दी थी। पलक झपकते ही अंडरपास से बाहर गुलाबी बाग की सड़क पर आ निकला था मैं- दिन की चकाचौंध के बीच एक बार फिर से। 

अब न वो रेल का फाटक ही बंद होता है। न ही वाहनों की कतार ही लगती है। न ही सामने से गुजरती रेल गाड़ी ही दिखती है। दिखता है तो अंडरपास का अंधेरा और वो सुरंग जहाँ से मैं अभी अभी निकला हूँ। समय ने कितना कुछ बदल दिया है। आप कह सकते हैं कि समय की बचत हुई है इस विकास से। पर मुझे कोई ज़ल्दी नहीं है। 

बरसों पूर्व जब ये अंडर-पास नहीं था, रोशनआरा पार्क से गुलाबी बाग आने के लिए अम्बाला की और जाती पटरियां पार करनी पड़ती थी। मेरे पास तब बजाज सुपर स्कूटर हुआ करता था। उधर से आते अक़्सर मुझे ये फाटक बंद मिलता था। और यदि खुला मिलता भी था तो मुझे बड़ी निराशा होती थी। मुझे इस बन्द फाटक पर रुक कर सामने से जाती रेल गाड़ी को देखना बहुत अच्छा लगता था। बहुत से स्कूटर या मोटरसाइकिल वाले अपना वाहन टेढ़ा कर के बंद गेट के नीचे से निकल जाते थे। पर मुझे कहाँ कोई जल्दी रहती! ट्रकों की कतार के बीच से धीरे धीरे अपना स्कूटर सरकता मैं फाटक के किनारे आ खड़ा होता था। आस पास उग आई वनस्पतियों को ध्यान से देखता।  किसी पेड़ की शाखा के नीचे खड़ा मैं रेल की प्रतीक्षा करता और प्रार्थना करता कि यह इन्तज़ार जल्द खत्म न हो। 

वो बूढ़ा गेट मैन मुझे अभी भी याद है। गाड़ी के निकल जाने पर वो धीरे कदमों से आता, और बड़े से हैंडल को घुमाता। लोहे के बेरिकेड के नीचे लटकती जंजीरे खनखना उठती। इस के साथ ही दोनों और खड़े वाहनों के इंजन भी घरघराते। धीरे धीरे बैरिकेड हवा में उठते जाते और गेट के खुलते ही "पहले मैं", "पहले मैं" की तर्ज़ पर वाहनों में होड़ लग जाती। एक मैं किनारे खड़ा भीड़ छटने की प्रतीक्षा करता। थोड़ी देर में सारा हल्ला गुल्ला शांत हो जाता। एक सुकून भरी नीरवता छा जाती। हवा की सरसराहट सुनाई देने लगती। पीछे लगे बाग में पक्षियों का कलरव पुनः मुखरित हो उठता। वो बूढ़ा गेट मैन पास में बनी अपनी छोटी सी कुटीर में, बान से बनी पुरानी चारपाई पर जा बैठता। उसके बैठने से ढ़ीली पड़ चुकी चारपाई पर झोल सा बन जाता। 

न जाने कब फाटक के पास वाली थोड़ी सी जमीन पर उसने ये कुटिया छवा ली थी। पटरियों की तरफ़ अंदर की और बनी इस छोटी सी फूस की झोपड़ी के चारो और बांस का आहाता बना था। अहाते के अंदर जो भी थोड़ी बहुत कच्ची जगह थी, वहाँ उसने मौसमी सब्ज़ियां लगा रखी थीं। गर्मियों में घीया और तोरई की बेलें उसकी कुटिया की छत पर छा जाती थीं। सफ़ेद और पीले पुष्पों से सजी ये कुटिया बहुत भली लगती थी। कई बार जब मैं कुटिया का पास रुक कर फाटक खुलने का इंतज़ार करता, तो रंग बिरंगी तितलियों और काले भौरों की पंक्तियां वहाँ पाता। सब्ज़ियों के साथ साथ बूढ़े बाबा ने कुछ पुष्प भी खिला रखे थे। शायद वो अकेला ही था क्योंकि मैंने उसके साथ सिवाय उसके हुक्के के, जो उसकी एक मात्र सम्पति प्रतीत होती थी, कभी भी किसी और को नहीं देखा। 

आज जब मैं अंडर-पास से निकल गया तो मेरी स्मृति में वो गेट मैन कौंध गया। आज भी वहाँ से गाड़ियां निकलती हैं पर आज वो फाटक नहीं है और न ही उसे खोलने बन्द करने वाला कोई गेट मैन ही है। दोनों विकास की दौड़ में बहुत पीछे छूट गए हैं। आज वहाँ वाहनों की कतारें नहीं लगती। न ही कोई मेरे जैसा अपने स्कूटर पर खड़ा रेलगाड़ी निकलने का इंतज़ार ही करता है।शायद इसे ही प्रगति या विकास कहते हैं। पर कितना कुछ छूट भी तो गया इस दौड़ में। 

कुछ माह पूर्व मेरा शालीमार बाग मैक्स हॉस्पिटल जाना हुआ। सामने से गुज़रती पटरियों को देख मैंने सोचा कि ये उसी गुलाबी बाग के फाटक से आ रही हैं जहाँ कभी रुककर मैं फाटक खुलने का इंतज़ार किया करता था। हो सकता है आप मुझे सनकी  समझें।  पर मैं तो ऐसा ही हूँ। आज भी अतीत से जुड़ा। मानस पटल पर अंकित स्मृतियों को टटोलता। विकास की इस दौड़ में ठहरा हुआ सा।