'आषाढ का एक दिन' अभी समाप्त किया है। तब के पाठन में और अब के पाठन में बहुत अन्तर है। एक एक संवाद का अर्थ आज समझ आया है। कमाल का लेखन है। और इतना सशक्त प्रस्तुतीकरण है कि शुरू से अंत तक पाठक को बांधे रखता है। कालिदास का वापस आना और मल्लिका से उसका संवाद इस नाटक का ह्रदय है। विलोम का बीच में आना और फिर चले जाना मानो एक स्पंदन हो जो कालिदास को चले जाने पर विवश करता है।जीवन का एक (गलत) निर्णय जीवन की एवं संबंधों की दिशा बदल सकता है। क्योंकि समय किसीकी प्रतीक्षा नहीं करता । और जैसा विलोम ने कहा, "धूप और नैवेध लिए घर की देहरी पर रुका नहीं रहता"। उत्तम प्रस्तुति स्वर्गीय मोहन राकेश की।
Thursday, 9 July 2015
Tuesday, 7 July 2015
आषाढ़ का एक दिन - पुस्तक संस्मरण
ये शायद 1976 या 1977 का साल था। जब मैं दिल्ली यूनिवर्सिटी से स्नातक कर रहा था। मझे ठीक से याद नहीं पडता कि प्रथम वर्ष था या फिर द्वितीय। पर किसी एक वर्ष में हमारे कोर्स में एक नाटक था मोहन राकेश का लिखा। नाम था ' आषाढ़ का एक दिन' । तब भी मैंने इसे कई बार पढ़ा था। तब के युवा होते मन पर गहरा असर किया था इसके पात्रों ने। कितनी जीवंत रचना थी मानो सामने ही घटित हो रही हो। आज 38 वर्ष बाद आषाढ के इस माह में वो नाटक याद आ गया। कथानक आज धुन्धला हो चला है। स्मृति पर धूल जम चुकी है। जीवन की इस भाग दौड़ में ,समय के इतने अंतराल के बाद, पात्र भी याद नहीं रहे। इच्छा हुई कि फिर से पढ़ा जाय। पुस्तकालय में जाकर माँगा तो तुरंत उपलब्ध हो गया। अभी फिर से पढ़ रहा हूँ। एक एक करके सारे पात्र पुनः जीवंत हो रहे हैं। मल्लिका,अम्बिका,कालिदास,मातुल सभी। और मैं लौट रहा हूँ अपनी उस युवा अवस्था में जहाँ मन पर कोई नियंत्रण नहीं होता। जहाँ सपने होते हैँ और होता है उन्मुक्त गगन खुली उड़ान के लिए। जब आषाढ की पहली बारिश मन को अंदर तक भिगो जाती है। और जब नाटक के पात्रों में व्यक्ति स्वयं को देखने लगता है। एक बार फिर मैं युवा हो गया हूँ।
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