बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी - गीत गाया पत्थरों ने।तब लगता था कैसा अजीब सा नाम है । पत्थर भी कँही गाते हैं। पर बड़े होकर ये समझ आई की सुनो तो पत्थर भी बोलते हैं। पत्थर ही क्यों हर वो निर्जीव वस्तु बोलती है जिससे आप जुड़े हैं।
अगर आप कश्मीरी गेट बस अड्डे से आई टी ओ की ओर जाएँ तो आप लोहे के पुल को बिना देखे नहीं जा सकते। हालाँकि आप इस पुल पर नहीं जायेंगे ,पर ये बरसों पुराना पुल आपको अपनी मौजूदगी का एहसास अवश्य करवा देगा। यमुना जो आज सूख चुकी है और जँहा पानी है वँहा नाले में परिवर्तित हो चुकी है, उस पर खड़ा ये जर्जर पुल आज भी ढो रहा है वाहनों के और रेल गाड़ियों के भार को। बिना कोई शिकायत करे खड़ा है ये पुल जो मेरा बचपन से साथी रहा है।
ये जोड़ता है यमुना बाजार को गांधी नगर से। वो ही गांधी नगर जो आज एशिया का एक बड़ा रेडी मेड मार्किट है। उसी गांधी नगर से सटा है कैलाश नगर जँहा मेरा जन्म हुआ था। जँहा मेरी गर्भ नाल गडी है। तभी तो आज 57 वर्ष बाद भी वो स्थान मुझे बरबस खींचता है अपनी और। और ये पुल भी।
जब से मैनेँ होश संभाला है ये पुल मेरा साथी रहा है। सेंकडो बार मैनेँ इस पुल को पार किया होगा। कभी पैदल, कभी साइकल पर, कभी तांगे या फिर बस मेँ। नीचे बहती कलकल करती यमुना, ऊपर भागते वाहन और सबसे ऊपर दौड़ती रेल।
बात पुरानी है। जब कैलाश नगर इतना भीड़ भाड़ वाला नहीं था। स्कूटर तो एक दो के पास ही होता थे। कार की तो बात ही मत करिये। यमुना पर बना ये एक मात्र मुख्य पुल था । रंग रोगन हो कर जब ये चमकता हुआ दीखता था इसके बनाने वालों पर हैरानी होती थी। रात को इसके ऊपर लगी ट्यूब लाइट्स इसको रोशन कर देती थी।
पापा के साथ जब मैं साइकल पर आगे बैठ कर इस पुल से गुजरता था तो लगता था अब यमुना मेँ गिरा, तब यमुना मेँ गिरा। पापा बिलकुल इसकी रेलिंग से सटा कर साइकल चलाते थे। नीचे बहती गहरी यमुना की नीली आभा लिए अथाह जल राशि और ऊपर वाहन।
इस पर अगर ऊपर रेल आ जाय तो सारा पुल काँप उठता था। मानो हिल कर अपनी ख़ुशी प्रगट कर रहा हो। लाख कोशिश करने पर भी पुल पर से कभी रेल दिखती नहीं थी। रेल के गुजर जाने पर फिर से थम जाता था कांपता हुआ पुल।
जब यमुना मेँ जल राशि कम होती थी और यमुना आस पास का क्षेत्र छोड़कर सिमट जाती थी तो उसका फैलाव और गहराई दोनों कम हो जाते थे । आस पास किसानों की झोपड़ियां कुकर मुत्ते सी उग आती थीं। किसान वँहा फूलों की और सब्जियों की खेती करते थे। पुल पर से गुजरते हुये नीचे गेंदे के बासन्ती और पीले फूलों की देखना बहुत भला लगता था। फूलों की खेती के चारों और लगी हरी सब्जियां देख कर लगता था मानो कोई हरे बार्डर की चादर बिछा दी गई हो जिसके बीच में बासन्ती फूल काढे गए है।
मुझे याद है किशोरावस्था मेँ मैं पैदल वाले पुल पर आ खड़ा हो घण्टों इस सुंदरता को निहारता रहता था । यमुना की ठंडी हवा और वातावरण में फैली गेंदे की महक युवा होते मन को और बेचैन कर देती थी। यमुना को बहते देख लगता था जैसे यमुना नहीं पुल बहे जा रहा है और साथ में बह रहा हूँ मैं - भावनाओ मेँ जो उमड़ती है किशोरावस्था के हर मन मेँ। मेरी एकाग्रता भंग होती थी ऊपर से धड़धड़ाती किसी रेल गाड़ी से।
मैं शुरू से अंतर्मुखी रहा हूँ। मेरे मित्र बहुत कम हैं।तब तो एक दो ही थे। गर्मियों मेँ रात का खाना खा कर मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ता था। पुस्ता पार कर के कब पैदल पुल पर आ जाता था पता ही नहीं चलता था। चांदनी रात मेँ पुल पर खड़े हो कर नीचे बिछी बालू को देखता रहता था। उस पर पड़े चाँदी के कण चाँद की रौशनी मेँ चमकते थे। चाँद का प्रतिबंब यमुना जल मेँ पड़ता था। शांत मंथर गति से बहती यमुना भी चाँद के प्रतिबिम्ब को स्थिर नहीं रख पाती थी।
जैसे जैसे रात गहराती थी पुल पर वाहनों की आवाजाही कम होती जाती थी। ग्यारह बजते बजते इक्का दुक्का वाहन ही पुल से गुजर रहे होते थे। जब मैं लौटता था तो तांगे वाले अपना अपना घोड़ा खोल रहे होते थे। तांगे के पिछले हिस्से में रखा घास का गट्ठर निकाल बंधे हुए घोड़े के आगे डाल वो घर जाने का उपक्रम करते दीखते थे। दिन भर का थका पशु भी अब आराम करेगा - ये सोच कर मुझे अच्छा लगता था।
मेरा बिस्तर भी छत पर तैयार होता था। नीचे से सुराई मेँ पानी भर कर ठन्डे बिस्तर पर जब मैं जा लेटता था तो मन अभी भी उसी पुल पर अटका होता था। ऊपर टंगे चमकते चाँद को देखते देखते कब निंद्रा अपनी गोद मेँ ले जाती पता नहीं चलता। मैं सो जाता था एक और सुबह का स्वागत करने के लिए। और पुल भी विश्राम करता था अगली सुबह वाहनों का बोझ ढोने के लिए। वो क्रम जो आज भी जारी है।