Tuesday, 17 November 2015

लोहे का पुल और मैं

बहुत पहले एक फ़िल्म आई थी - गीत गाया पत्थरों ने।तब लगता था कैसा अजीब सा नाम है । पत्थर भी कँही गाते हैं। पर बड़े होकर ये समझ आई की सुनो तो पत्थर भी बोलते हैं। पत्थर ही क्यों हर वो निर्जीव वस्तु बोलती है जिससे आप जुड़े हैं।

अगर आप कश्मीरी गेट बस अड्डे से आई टी ओ की ओर जाएँ तो आप लोहे के पुल को बिना देखे नहीं जा सकते। हालाँकि आप इस पुल पर नहीं जायेंगे ,पर ये बरसों पुराना पुल आपको अपनी मौजूदगी का एहसास अवश्य करवा देगा। यमुना जो आज सूख चुकी है और जँहा पानी है वँहा नाले में परिवर्तित हो चुकी है, उस पर खड़ा ये जर्जर पुल आज भी ढो रहा है वाहनों के और रेल गाड़ियों के भार को। बिना कोई शिकायत करे खड़ा है ये पुल जो मेरा बचपन से साथी रहा है।

ये जोड़ता है यमुना बाजार को गांधी नगर से। वो ही गांधी नगर जो आज एशिया का एक बड़ा रेडी मेड मार्किट है। उसी गांधी नगर से सटा है कैलाश नगर जँहा मेरा जन्म हुआ था। जँहा मेरी गर्भ नाल गडी है। तभी तो आज 57 वर्ष बाद भी वो स्थान मुझे बरबस खींचता है अपनी और। और ये पुल भी।

जब से मैनेँ होश संभाला है ये पुल मेरा साथी रहा है। सेंकडो बार मैनेँ इस पुल को पार किया होगा। कभी पैदल, कभी साइकल पर, कभी तांगे या फिर बस मेँ। नीचे बहती कलकल करती यमुना, ऊपर भागते वाहन और सबसे ऊपर दौड़ती रेल।

बात पुरानी है। जब कैलाश नगर इतना भीड़ भाड़ वाला नहीं था। स्कूटर तो एक दो के पास ही होता थे। कार की तो बात ही मत करिये। यमुना पर बना ये एक मात्र मुख्य पुल था । रंग रोगन हो कर जब ये चमकता हुआ दीखता था इसके बनाने वालों पर हैरानी होती थी। रात को इसके ऊपर लगी ट्यूब लाइट्स इसको रोशन कर देती थी।

पापा के साथ जब मैं साइकल पर आगे बैठ कर इस पुल से गुजरता था तो लगता था अब यमुना मेँ गिरा, तब यमुना मेँ गिरा। पापा बिलकुल इसकी रेलिंग से सटा कर साइकल चलाते थे। नीचे बहती गहरी यमुना की नीली आभा लिए अथाह जल राशि और ऊपर वाहन।

इस पर अगर ऊपर रेल आ जाय तो सारा पुल काँप उठता था। मानो हिल कर अपनी ख़ुशी प्रगट कर रहा हो। लाख कोशिश करने पर भी पुल पर से कभी रेल दिखती नहीं थी। रेल के गुजर जाने पर फिर से थम जाता था कांपता हुआ पुल।

जब यमुना मेँ जल राशि कम होती थी और यमुना आस पास का क्षेत्र छोड़कर सिमट जाती थी तो उसका फैलाव और गहराई दोनों कम हो जाते थे । आस पास किसानों की झोपड़ियां कुकर मुत्ते सी उग आती थीं। किसान वँहा फूलों की और सब्जियों की खेती करते थे। पुल पर से गुजरते हुये नीचे गेंदे के बासन्ती और पीले फूलों की देखना बहुत भला लगता था। फूलों की खेती के चारों और लगी हरी सब्जियां देख कर लगता था मानो कोई हरे बार्डर की चादर बिछा दी गई हो जिसके बीच में बासन्ती फूल काढे गए है।

मुझे याद है किशोरावस्था मेँ मैं पैदल वाले पुल पर आ खड़ा हो घण्टों इस सुंदरता को निहारता रहता था । यमुना की ठंडी हवा और वातावरण में फैली गेंदे की महक युवा होते मन को और बेचैन कर देती थी। यमुना को बहते देख लगता था जैसे यमुना नहीं पुल बहे जा रहा है और साथ में बह रहा हूँ मैं - भावनाओ मेँ जो उमड़ती है किशोरावस्था के हर मन मेँ। मेरी एकाग्रता भंग होती थी ऊपर से धड़धड़ाती किसी रेल गाड़ी से।

मैं शुरू से अंतर्मुखी रहा हूँ। मेरे मित्र बहुत कम हैं।तब तो एक दो ही थे। गर्मियों मेँ रात का खाना खा कर मैं अकेला ही टहलने निकल पड़ता था। पुस्ता पार कर के कब पैदल पुल पर आ जाता था पता ही नहीं चलता था। चांदनी रात मेँ पुल पर खड़े हो कर नीचे बिछी बालू को देखता रहता था। उस पर पड़े चाँदी के कण चाँद की रौशनी मेँ चमकते थे। चाँद का प्रतिबंब यमुना जल मेँ पड़ता था। शांत मंथर गति से बहती यमुना भी चाँद के प्रतिबिम्ब को स्थिर नहीं रख पाती थी।

जैसे जैसे रात गहराती थी पुल पर वाहनों की आवाजाही कम होती जाती थी। ग्यारह बजते बजते इक्का दुक्का वाहन ही पुल से गुजर रहे होते थे। जब मैं लौटता था तो तांगे वाले अपना अपना घोड़ा खोल रहे होते थे। तांगे के पिछले हिस्से में रखा घास का गट्ठर निकाल बंधे हुए घोड़े के आगे डाल वो घर जाने का उपक्रम करते दीखते थे। दिन भर का थका पशु भी अब आराम करेगा - ये सोच कर मुझे अच्छा लगता था।

मेरा बिस्तर भी छत पर तैयार होता था। नीचे से सुराई मेँ पानी भर कर ठन्डे बिस्तर पर जब मैं जा लेटता था तो मन अभी भी उसी पुल पर अटका होता था। ऊपर टंगे चमकते चाँद को देखते देखते कब निंद्रा अपनी गोद मेँ ले जाती पता नहीं चलता। मैं सो जाता था एक और सुबह का स्वागत करने के लिए। और पुल भी विश्राम करता था अगली सुबह वाहनों का बोझ ढोने के लिए। वो क्रम जो आज भी जारी है।

Wednesday, 11 November 2015

त्यौहार और तिरोहित होता आनंद

कहते हैं जो आप बचपन मेँ होते हैं वही आप ता उम्र मरने तक रहते हैं। ये बात आत्मा की दृष्टि से तो ठीक है पर मन के सन्दर्भ मेँ मुझे ठीक नहीं लगती। बचपन का मन, किशोरावस्था का मन, यौवन का मन और वृद्धावस्था का मन सब अलग अलग होते है। यही कारण है कि आज की दीवाली - जब हम अपेक्षाकृत ज्यादा सम्पन्न हैं, बचपन की दीवाली जब इतनी सम्पन्ता नहीं थी, उस के मुकाबले फीकी सी प्रतीत होती है।

यूँ तो त्योहारों का सिलसिला तब हरियाली तीजों से ही शुरू हो जाता था जब माँ के साथ मैं यमुना किनारे बने बाग़ मेँ उन्हें झूला झूलते देखने जाया करता था, पर दीवाली की आहट दशहरे से आने लगती थी। हल्की हल्की गुलाबी सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी दिन जल्दी छिपने लगता था। मूंगफली के ठेलों से उठता धुंआ और शाल मेँ लिपटे हम बच्चे जब राम लीला देखते थे तो आज की मॉल मेँ बने पीवीआर थियटर से कँही अधिक आनंद आता था।

कार्तिक मास के प्रारम्भ से सुबह शाम तुलसी पर माँ दिया जलाया करती थी। शाम के झुटपुटे मेँ तुलसी पर जलता दिया कितना भला लगता था। शरद पूर्णिमा पर चांदनी रात मेँ भगवान को छत पर ले जा कर खीर भोग आती थी। पूरी रात खुली खीर में चंद्र किरण पड़ती रहती थी और सुबह वो अमृत तुल्य खीर प्रसाद मेँ मिलती थी।

फिर आती थी करवा चौथ। व्रत माँ का और चरत हमारा। फिर अहोई अष्टमी आ जाती थी । माँ हम बच्चों की दीर्घ आयु के लिए व्रत रखती थी। जँहा अहोई की पूजा होती थी वंही दीवाली पूजन किया जाता था। मिट्टी के करुओं को हल्दी से सजा कर उनमे पानी भर कर दस दस पैसे के सिक्के डाल देते थे। उनके ऊपर मैदा की पपड़िया रख दी जाती थी। मीठे और नमकीन टुनटुने मुनमुने बनते थे। अहोई माता का चित्र लगाकर सिंघाड़े,गन्ने, बैंगन,शकरकंदी आदि से पूजा होती थी। मीठे गुलगुले बनते थे। फिर धन तेरस पर कोई एक बर्तन ख़रीदा जाता था।

फिर छोटी दीवाली पर माँ सुबह जल्दी उठा देती थी। दही में चाँदी को देखा जाता था। दिया जला कर हल्दी उबटन लगा कर माँ नहलाती थी। और इंतज़ार होता था अगले दिन आने वाली दीवाली का। रात मे हटरी रख कर उसमे खीलें डाली जाती थी।

माँ सारे त्यौहार खूब रच बस कर करती थी।कहती थी सौ दुश्मनों के  सर पर पैर रख कर साल भर का त्यौहार आता है। उन दिनों गैस कँहा होती थी। अंगीठी जला करती थी। माँ बहुत सारे पकवान  व मिठाईयां बनाया करती थी। सुबह माँ स्नान कर के घी और तेल से जले दीये मनसा करती थी।

दीवाली की पूजा के स्थान को हटरी से सजाया जाता था। गणेश लक्ष्मी की मिट्टी से बनी प्रीतिमा के साथ चौखटे रखते थे। सेठ सेठानी, शेर चीते और भी कई तरह के मिट्टी के खिलौनों से पूजा स्थल को खूब सजाया जाता था।चौखटों में खील बताशे भर कर ऊपर खांड से बने खिलोने रख दिए जाते थे। पूजा के समय हटरी के ऊपर और सब तरफ रखे दिये और रंग बिरंगी मोमबत्तियां जब एक साथ जलती थी तो शोभा देखते ही बन पड़ती थी। फल, मेवा, मिठाई और पकवानों के साथ धूम धाम से माँ लक्ष्मी की पूजा होती थी। बीच बीच में बड़े लोग शंख नाद करते थे। पंचामृत स्नान कराया जाता था।

और इसके बाद शुरू होता था पटाखों का सिलसिला। रंग बिरंगी माचिस, फुलझड़ी, रौशनी देने वाले तार, फिरकनी और अनार खूब चलते थे। एक टिकिया को जलाने पर साँप बनता था। आवाज करने वाले बम मुझे कभी नहीं भाये। पर कर क्या सकता था सिवाय कानों पर हाथ रखने के आलावा। फिर पक्का खाना खाने को मिलता था।

पूजा स्थल की मोमबत्तियां तब तक बुझ चुकी होती थीं। पर एक बड़ा दीया हटरी पर सारी रात जलता रहता था। माँ कहा करती थी कि लक्ष्मी जी जब आएं अंधकार नहीं मिलना चाहिए। मैं पूजा स्थल के पास बैठ जाता था और कल्पना करता था कि सभी खिलोने जीवित हैं और एक गावँ में हैं। यँहा सभी मिल जुल कर रहते हैं। धीरे धीरे गावँ की सीमा समाप्त हो रही है और जंगल शुरू हो गया है। वँहा शेर चीते हैं। और भी बहुत सी कल्पनायें बाल मन में जन्म लेती थीं। इसी मैं रात गहरा जाती थी। पर हम नहीं सोते थे।

रात को 12 बजे माँ शोर्ति पूजती थी। देहरी पर ऊपर वाली चोखट के बीच में रोली से सतिया बना कर एक बताशा चिपकाया जाता था।

जैसे जैसे रात ढलती पटाखों का शोर कम होता जाता था। और रात मेँ थक कर बाल मन गाढ़ निंद्रा मेँ लीन हो जाता था।

सुबह हम उन पटाखों को बीन लेते थे जो बिना चले रह जाते थे। उन्हें खोल कर उनका बारूद एकत्रित कर के उसे रात मेँ जलाते थे और खुश होते थे। इस दिन गोवेर्धन पूजा होती थी। अन्न कूट का आयोजन किया जाता था। फिर भाई दूज सम्प्पन होने पर ही दीवाली पूजन का सामान उठाया जाता था।

ये सब आज भी होता है। पर आज माँ नहीं है। और सब भाई बंधु भी दूर दूर हैं।आज व्यक्ति अकेला हो गया है। बचपन का मन भी कँही खो गया है। सब कुछ वैसे ही होता है पर वो आनंद कँही तिरोहित हो चुका है।