Wednesday, 11 November 2015

त्यौहार और तिरोहित होता आनंद

कहते हैं जो आप बचपन मेँ होते हैं वही आप ता उम्र मरने तक रहते हैं। ये बात आत्मा की दृष्टि से तो ठीक है पर मन के सन्दर्भ मेँ मुझे ठीक नहीं लगती। बचपन का मन, किशोरावस्था का मन, यौवन का मन और वृद्धावस्था का मन सब अलग अलग होते है। यही कारण है कि आज की दीवाली - जब हम अपेक्षाकृत ज्यादा सम्पन्न हैं, बचपन की दीवाली जब इतनी सम्पन्ता नहीं थी, उस के मुकाबले फीकी सी प्रतीत होती है।

यूँ तो त्योहारों का सिलसिला तब हरियाली तीजों से ही शुरू हो जाता था जब माँ के साथ मैं यमुना किनारे बने बाग़ मेँ उन्हें झूला झूलते देखने जाया करता था, पर दीवाली की आहट दशहरे से आने लगती थी। हल्की हल्की गुलाबी सर्दी पड़नी शुरू हो जाती थी दिन जल्दी छिपने लगता था। मूंगफली के ठेलों से उठता धुंआ और शाल मेँ लिपटे हम बच्चे जब राम लीला देखते थे तो आज की मॉल मेँ बने पीवीआर थियटर से कँही अधिक आनंद आता था।

कार्तिक मास के प्रारम्भ से सुबह शाम तुलसी पर माँ दिया जलाया करती थी। शाम के झुटपुटे मेँ तुलसी पर जलता दिया कितना भला लगता था। शरद पूर्णिमा पर चांदनी रात मेँ भगवान को छत पर ले जा कर खीर भोग आती थी। पूरी रात खुली खीर में चंद्र किरण पड़ती रहती थी और सुबह वो अमृत तुल्य खीर प्रसाद मेँ मिलती थी।

फिर आती थी करवा चौथ। व्रत माँ का और चरत हमारा। फिर अहोई अष्टमी आ जाती थी । माँ हम बच्चों की दीर्घ आयु के लिए व्रत रखती थी। जँहा अहोई की पूजा होती थी वंही दीवाली पूजन किया जाता था। मिट्टी के करुओं को हल्दी से सजा कर उनमे पानी भर कर दस दस पैसे के सिक्के डाल देते थे। उनके ऊपर मैदा की पपड़िया रख दी जाती थी। मीठे और नमकीन टुनटुने मुनमुने बनते थे। अहोई माता का चित्र लगाकर सिंघाड़े,गन्ने, बैंगन,शकरकंदी आदि से पूजा होती थी। मीठे गुलगुले बनते थे। फिर धन तेरस पर कोई एक बर्तन ख़रीदा जाता था।

फिर छोटी दीवाली पर माँ सुबह जल्दी उठा देती थी। दही में चाँदी को देखा जाता था। दिया जला कर हल्दी उबटन लगा कर माँ नहलाती थी। और इंतज़ार होता था अगले दिन आने वाली दीवाली का। रात मे हटरी रख कर उसमे खीलें डाली जाती थी।

माँ सारे त्यौहार खूब रच बस कर करती थी।कहती थी सौ दुश्मनों के  सर पर पैर रख कर साल भर का त्यौहार आता है। उन दिनों गैस कँहा होती थी। अंगीठी जला करती थी। माँ बहुत सारे पकवान  व मिठाईयां बनाया करती थी। सुबह माँ स्नान कर के घी और तेल से जले दीये मनसा करती थी।

दीवाली की पूजा के स्थान को हटरी से सजाया जाता था। गणेश लक्ष्मी की मिट्टी से बनी प्रीतिमा के साथ चौखटे रखते थे। सेठ सेठानी, शेर चीते और भी कई तरह के मिट्टी के खिलौनों से पूजा स्थल को खूब सजाया जाता था।चौखटों में खील बताशे भर कर ऊपर खांड से बने खिलोने रख दिए जाते थे। पूजा के समय हटरी के ऊपर और सब तरफ रखे दिये और रंग बिरंगी मोमबत्तियां जब एक साथ जलती थी तो शोभा देखते ही बन पड़ती थी। फल, मेवा, मिठाई और पकवानों के साथ धूम धाम से माँ लक्ष्मी की पूजा होती थी। बीच बीच में बड़े लोग शंख नाद करते थे। पंचामृत स्नान कराया जाता था।

और इसके बाद शुरू होता था पटाखों का सिलसिला। रंग बिरंगी माचिस, फुलझड़ी, रौशनी देने वाले तार, फिरकनी और अनार खूब चलते थे। एक टिकिया को जलाने पर साँप बनता था। आवाज करने वाले बम मुझे कभी नहीं भाये। पर कर क्या सकता था सिवाय कानों पर हाथ रखने के आलावा। फिर पक्का खाना खाने को मिलता था।

पूजा स्थल की मोमबत्तियां तब तक बुझ चुकी होती थीं। पर एक बड़ा दीया हटरी पर सारी रात जलता रहता था। माँ कहा करती थी कि लक्ष्मी जी जब आएं अंधकार नहीं मिलना चाहिए। मैं पूजा स्थल के पास बैठ जाता था और कल्पना करता था कि सभी खिलोने जीवित हैं और एक गावँ में हैं। यँहा सभी मिल जुल कर रहते हैं। धीरे धीरे गावँ की सीमा समाप्त हो रही है और जंगल शुरू हो गया है। वँहा शेर चीते हैं। और भी बहुत सी कल्पनायें बाल मन में जन्म लेती थीं। इसी मैं रात गहरा जाती थी। पर हम नहीं सोते थे।

रात को 12 बजे माँ शोर्ति पूजती थी। देहरी पर ऊपर वाली चोखट के बीच में रोली से सतिया बना कर एक बताशा चिपकाया जाता था।

जैसे जैसे रात ढलती पटाखों का शोर कम होता जाता था। और रात मेँ थक कर बाल मन गाढ़ निंद्रा मेँ लीन हो जाता था।

सुबह हम उन पटाखों को बीन लेते थे जो बिना चले रह जाते थे। उन्हें खोल कर उनका बारूद एकत्रित कर के उसे रात मेँ जलाते थे और खुश होते थे। इस दिन गोवेर्धन पूजा होती थी। अन्न कूट का आयोजन किया जाता था। फिर भाई दूज सम्प्पन होने पर ही दीवाली पूजन का सामान उठाया जाता था।

ये सब आज भी होता है। पर आज माँ नहीं है। और सब भाई बंधु भी दूर दूर हैं।आज व्यक्ति अकेला हो गया है। बचपन का मन भी कँही खो गया है। सब कुछ वैसे ही होता है पर वो आनंद कँही तिरोहित हो चुका है।

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