Friday, 24 February 2017

जब मैंने साईकिल चलाना सीखा

मैं शायद दूसरी कक्षा में रहा होऊंगा। फरीदाबाद न्यू टाउनशिप में अपने नाना और मांसी के साथ रहता था। बाटा चौक पर मेरा स्कूल था जंहा हम खुले में पेड़ के नीचे टाट पट्टी बिछा कर पढ़ते थे। सूद बहनजी एक स्टैंड पर ब्लैक बोर्ड लगा कर हमें पढ़ाती थी। हम तख्ती, क़लम और दवात से लिखते थे या फिर स्लैट और स्लेटी से।

स्कूल के सामने एक खुला नाला था जिस पर टिड्डे उड़ते रहते थे। सामने दिल्ली- मथुरा मार्ग था जिसके एक ओर फैक्टरी मालिकों की कोठियां थी तो दूसरी और कुछ न था। सड़क के दोनों औऱ इमली और जंगल जलेबी के वृक्ष कतार में खड़े थे जिन से हम आते जाते गुलेल से इमली की कटारे और जंगल जलेबी तोडा करते थे। एक दो इमली के वृक्ष भूत के लिये बदनाम थे। उन पर पत्थर फेंकना तो दूर हम उनके नीचे से भी नहीं गुज़रते थे। स्कूल से आते, कोठियों के शुरू होने से पहले कीकर के छोटे छोटे कई वृक्ष थे जिन की नीची टहनियों पर गंदे कपडे झूलते रहते थे। इन के नीचे बाटा फैक्टरी से निकला कुछ रबड़ का कूड़ा भी पड़ा रहता था जिसे कबाड़िये फ़ेंक जाते थे। हम को इस कूड़े में से गुलेल के लिये रबड़ और चमड़े की खोज रहती थी।

मेरा एक मित्र था- बद्री जिसका जिक्र मैंने "चुम्बक" में किया है। एकदम विपिन्न, फटेहाल सुदामा सा। संपन्नता में मैं कोई कृष्ण तो नहीं था पर नाना जी किसी फैक्ट्री में इंजीनियर थे और मैं अपेक्षाकृत सम्पन्न था। बद्री एकदम गोरा चिट्टा और लाल था। फटे वस्त्रों में भी वह ऐसा लगता था जैसे कोइ लाल गुदड़ी में छिपा हो। पिता थे नहीं, माता जैसे तैसे पाल रही थी।

तो मैं बात कर रहा था साईकिल चलाने की। बद्री के पास एक ऊँची पुरानी साईकिल थी जिस में न ब्रेक थे और न घण्टी। सीट पर भी मात्र स्प्रिंगो का जाल था और गद्दी नदारद थी। टायर घिसे हुए थे और चेन ढ़ीली होने के कारण जल्दी उतर जाया करती थी। पर बद्री उस साइकल को कैंची बखूबी चला लेता था। उसका उपयोग वह गेंहू पिसवाने, कोयले की चूरी लाने जैसे काम के लिये करता था। उसे साईकिल चलाते देख मेरा भी बाल मन मचल उठता था। पर साईकिल मेरे कद से कँही ऊँची थी और मैनें जब भी प्रयत्न किया वह मुझे ले कर गिर जाती थी और मैं अपने घुटने और कोहनियाँ छिलवा बैठता था। बद्री तुरंत कँही से बीड़ी नंबर 22 के पैकेट की पतली सी पन्नी ढूंढ़ कर छिले स्थान पर चिपका देता था। उन दिनों यही टिटनेस का इंजेक्शन था हमारे लिये।

एक शाम मैंने पुनः बद्री से कहा कि मुझे साईकिल चलाना सिखा। वह मान गया। हम दोनों साईकिल ले कर पैदल पैदल दिल्ली-मथुरा मार्ग पर आ गए। वंही न्यू टाउनशिप का बस स्टैंड था। उन दिनों DTU की बसें कश्मीरी गेट से फरीदा बाद के रामलीला मैदान तक चलती थी। ये बसें न्यू टाउनशिप की सवारियों को यँहा उतारने को रूकती थीं। इसी बस स्टैंड से दिल्ली की ओर जाने के लिये एक ढलान था। बद्री मुझे ढलान के ऊपर ले गया। एक पेड़ के सहारे उसने मुझे स्प्रिंग लगी सीट पर बैठा दिया। फिर वह मुझे सड़क के बीच में ले आया। धक्का देने से पहले उसने मुझे समझाया कि यदि साईकिल दाएं गिरने लगे तो हेंडल थोडा सा बायें घुमाना और यदि बायें झुके तो हल्का सा दाएं घुमाना। जब नीचे जा कर रोकनी हो तो सड़क किनारे लगे किसी पेड़ से टकरा देना। इस गुरुमंत्र के साथ उसने साईकिल को जोर से धक्का दिया। एक तो ढलान और उस पर धक्का। दो पहियों की ये सवारी लुढ़क पढ़ी तेजी से। मैं बताई गई विधि से हैंडल दाएं बायें करने लगा । पर ऐसे भला कँही साईकिल चलती। मैं सामने से आते दिहाड़ी मजदूर से जा भिड़ा औऱ गिर पड़ा। वह बेचारा दिन भर की कमाई से आटा, और रसोई करने का सामान ले कर आ रहा था। सामने कुछ ही दूरी पर उनकी झुग्गियां बनी थीं।उसे क्या पता था कि ये विपदा अचानक से आ पड़ेगी। उसका आटा, दाल सब बिखर कर मिट्टी में मिल गए। मुझे भी काफी चोट आई थी। मैंने उठते हुए देखा तो बद्री भाग चुका था। जब तक वह मजदूर उठ पाता मैं भी अपनी चोटो की परवाह न करते हुए साईकिल छोड़ कर भाग लिया। पीछे मुड़ मुड़ के देखता जाता कि कंही वो व्यक्ति पीछे तो नहीं आ रहा। थोड़ी दूर पर बद्री मिल गया। मुझे देखते ही उसने पूछा कि साइकिल कँहा है। मैंने हाँफते हुए कहा कि वो तो वंही पड़ी है। उसने कहा कि चल साइकिल ले कर आयें। पर वँहा तो साईकिल थी ही नहीं। बद्री रोने लगा। मैंने उसे ढाढ़स दिया कि नाना जी फैक्ट्री से आते ही होंगे हम उनसे बात करेंगे।

सारी बात बताने पर बहुत डाँट पडी। नाना जी हमें ले कर उसकी झुग्गी पर ढूंढते हुए पंहुचे। उसे नुकसान की भरपाई कर साइकिल छुड़ा लाये।

ये था साईकिल सीखने का प्रथम अनुभव।

Saturday, 18 February 2017

पहला प्यार

कितने ही वर्ष हो गए रेलवे से विदा लिए। पर अभी भी धमनियों में लहू नहीं रेल चलती है। ये तो पहला प्यार है जो कभी नहीं भूलेगा। आज भी दौड़ती रेल को देखकर एक रोमांच सा हो आता है। ये कैसा नाता है आखिर, जिसका खुमार उतरता ही नहीं। वो धड़ धड़ की आवाज, वो मीलों लंबी जाती समांतर पटरियां, वो रेल जाने के बाद हुए सूने प्लेटफार्म, वो प्लेटफार्म के ऊपर लगे शेड, वो चाय चाय चिल्लाते लोग, वो पटरियों के पास उग आई लंबी जंगली घास, वो साथ साथ बनी रेलवे कॉलोनियों के पुराने क्वाटर, वो पटरियों से आती अजीब सी चिर परिचित गन्ध। क्या क्या गिनाऊँ? कँहा तक गिनाऊँ?

पिछले दिनों फुर्सत में शिवाजी ब्रिज के प्लेटफार्म पर जा बैठा। सारी यादें एक एक करके फ़िल्म की तरह गुजरने लगी सामने से। कितने लोगों के साथ काम किया, कितने न जाने कँहा हैं। कितने तो दुनियां से ही रुखसत हो लिये। पर रेल वैसी ही है। इन सबसे ऊपर उठी हुई। अपने ही में खोई सी। हमेशा दौड़ती, गन्तव्य पर पहुँचने की जल्दी में।

देखते ही देखते जीवन निकल गया। रेल को मैंने अपने स्वर्ण वर्ष दिए तो रेल ने भी मुझे निराश नही किया।

आज भी रेल से उतना ही प्यार है जितना पहले दिन था। क्यों न हो? पहला प्यार जो ठहरा।