कितने ही वर्ष हो गए रेलवे से विदा लिए। पर अभी भी धमनियों में लहू नहीं रेल चलती है। ये तो पहला प्यार है जो कभी नहीं भूलेगा। आज भी दौड़ती रेल को देखकर एक रोमांच सा हो आता है। ये कैसा नाता है आखिर, जिसका खुमार उतरता ही नहीं। वो धड़ धड़ की आवाज, वो मीलों लंबी जाती समांतर पटरियां, वो रेल जाने के बाद हुए सूने प्लेटफार्म, वो प्लेटफार्म के ऊपर लगे शेड, वो चाय चाय चिल्लाते लोग, वो पटरियों के पास उग आई लंबी जंगली घास, वो साथ साथ बनी रेलवे कॉलोनियों के पुराने क्वाटर, वो पटरियों से आती अजीब सी चिर परिचित गन्ध। क्या क्या गिनाऊँ? कँहा तक गिनाऊँ?
पिछले दिनों फुर्सत में शिवाजी ब्रिज के प्लेटफार्म पर जा बैठा। सारी यादें एक एक करके फ़िल्म की तरह गुजरने लगी सामने से। कितने लोगों के साथ काम किया, कितने न जाने कँहा हैं। कितने तो दुनियां से ही रुखसत हो लिये। पर रेल वैसी ही है। इन सबसे ऊपर उठी हुई। अपने ही में खोई सी। हमेशा दौड़ती, गन्तव्य पर पहुँचने की जल्दी में।
देखते ही देखते जीवन निकल गया। रेल को मैंने अपने स्वर्ण वर्ष दिए तो रेल ने भी मुझे निराश नही किया।
आज भी रेल से उतना ही प्यार है जितना पहले दिन था। क्यों न हो? पहला प्यार जो ठहरा।
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