Tuesday, 31 October 2017

मेरा गांव -एक कल्पना

मेरा छोटा सा गावँ दूर हिमाचल की पहाड़ियों के नीचे बसा है। कल ही यँहा पँहुचा हूँ। कार की इस लम्बी यात्रा के पश्चात यँहा आ बहुत सुकून मिलता है। आज की संध्या आखरी है। कल लौटना है। मैं बाहर कुछ दूर टहलने निकल आया हूँ।

मेरा घर गावँ का अंतिम घर है जिसके बाद गहन जंगल फैला है दूर दूर तक। आधुनिकता से दूर, बहुत दूर इस गाँव के लोग सीधे साधे भोले बाशिंदे है जिनकी पहाड़ो पर खेती है। कहने को खेती है पर पैदावार इतनी ही होती है जिससे गुज़ारा चल जाये। जंगली सूअर, हिरण, नीलगाय जैसे पशु और तोते जैसे पक्षी काफी फ़सल बर्बाद कर देते है। यूँ तो किसान बीच खेत में छप्पर डाल रात में रुकते भी हैं पर फिर भी फ़सल पूरी तरह से सुरक्षित नहीं रख पाते। फिर रात में अकेले रुकना निरापद भी तो नहीं।

जैसा नाम है मेरे प्रदेश का वैसा ही रुप भी है। हिम के आँचल सा फैला, उसके विशाल वक्षस्थल को मानो ढकता हुआ सा है मेरा प्रदेश। यँहा की हवा कितनी स्वच्छ है। साँस लेता हूँ तो गहरी साँस ले कर फेफड़ो में भर लेने को जी करता है। दिल्ली की दूषित हवा से काले हो चुके फेफड़े हर साँस के साथ गुलाबी रंगत पाते जाते हैं। एक ऊर्जा का संचार हो रहा लगता है। धमनियों में बहता लहू अपनी रंगत फिर से पा तेज़ी से दौड़ने लगता है।

दिल की धड़कन तेज़ हो जाती है चलते चलते। पहाड़ो पर चलने की आदत कँहा रही अब! नीला अम्बर यँहा बहुत नीचे आ गया लगता है। शायद मैं ही ऊंचाई पर हूँ। ऊँचे ऊँचे देवदार और चीड़ के वृक्षों के बीच साँय-साँय करती हवा एक अजीब सा संगीत गाती प्रतीत होती है। जब ये संगीत लहरी कर्णपुटों में प्रवेश करती है तो मन उदास हो उठता है। दूर कँही कुछ महिलाएँ हिमाचली लोक संगीत उच्च स्वर में गा रही है। कोई चरवाहा शाम ढले भेड़ो का झुंड ले कर लौट रहा है ,मधुर बांसुरी की तान पर कोई लोक धुन बजाता। बीच बीच में उसका भेड़ो को हाँकने का स्वर भी सुनाई देता है। सूर्य भी अस्ताचल में लौट रहे है। घरों से धुआँ उठना शुरू हो चुका है। जल्द ही मेरा गाँव सो जाएगा।

मेरे घर का ठीक पीछे एक पानी का कुंड है। रात में बाघ वँहा पानी पीने आता है। उसके आने पर उसके शरीर की गंध जो जलते ऊन से निकली गंध से मिलती जुलती है उसकी उपस्थिति का एहसास करा देती है। वैसे भी वह तेंदुए की तरह दबे पाँव नहीं आता। हल्की हल्की दहाड़ और घुर्राहट से भी वह अपने आगमन की सूचना देता है। वैसे वह एक जेंटलमैन बाघ है यदि आपको ये संबोधन उचित लगे तो। आज तक उसने किसी ग्रामीण पर हमला नहीं किया। अधिक से अधिक बाहर अहाते में बंधे भेड़-बकरी ही उसका निशाना होते हैं यदि वह क्षुधा पीड़ित है तो। और कई बार तो गांव वाले उसके मुंह से शिकार खींच भी लेते है।

रात हो चली है। आकाश में पूर्णिमा का चांद चमक रहा है। अचानक हवा में जले ऊन की सी गंध घुल गई है।अहाते में बंधे पशु भी अचानक बेचैन हो गए हैं। शायद वह पानी पीने आ रहा है। मैं भी अंदर आ जाता हूं और कुंडी लगा लेता हूं। सुबह जल्दी ही दिल्ली के लिए निकलना है। ड्राइवर खाना खा कर सो चुका है। भोजन की इच्छा नहीं है। मैं भी अपने बिस्तर पर आ लेटता हूँ। बाहर से हल्की हल्की घुर्राहट आ रही है। शेष सन्नाटा बिखरा है। बस झींगुर अपना संगीत बजा रहे हैं। साँय-साँय करती हवा मेरी टिन की छत मानो उड़ा ले जाना चाहती है। पलकें बोझिल हैं। मैं स्वप्निल संसार में जा चुका हूँ। हिम आच्छादित चोटियों के बीच तैर रहा हूँ। देवदारों के सबसे ऊँचे वृक्ष से भी ऊपर उठ चुका हूँ मैं। सफ़ेद बादलों के रुई के गुच्छों से अठखेलियाँ करता सारी चिंताओं से मुक्त हूँ। यँहा से देख पा रहा हूँ तो बस वो है मेरा   गांव।

Friday, 20 October 2017

एक अलग दीवाली

कल दीवाली थी। पर एक अलग सी दीवाली थी। नहीं था पटाखों का शोर। नहीं थी आतिशबाजियाँ अपनी विभिन्न रंगों की रोशनी से अमावस के आकाश को आलोकित करतीं। नहीं था दम घोटने वाला धुआँ। न ही थी बारूद की चिर परिचित गन्ध। न थी फुलझडियां, न चकरी, न अनार। न ही उतरे थे घरों से नीचे लोग मिलने जुलने।  दूर कभी कभी कोई आतिशबाजी आकाश को रंगों से भर देती। कहीं कोई इक्का-दुक्का बम धमाका कर नीरवता को भंग कर देता। शान्त, अनमनी सी बत्तियां जरूर जल रही थी। पेड़ो पर लगी ये लाइटे यूँ तो देखने में सुन्दर लग रही थीं पर वह छोटी सी चिड़िया जो इन झरमुटों में अपना रैन बसेरा करती थी आज परेशान थी। इतनी रोशनी में उसे समझ नहीं आ रहा था कि अभी दिन है या रात ढल चुकी है। मच्छरों के झुंड के झुंड तेज हैलोजेन लाइट के ऊपर मंडरा रहे थे। अगली सुबह मैंने इन्हें कार्पेट की तरह नीचे बिछा पाया। प्रेम करना तो कोई इनसे सीखे।  कुछ लोग तीन पत्ती से लक्ष्मी जी को अपनी ओर लाने के प्रयत्न में थे।

पत्नी के साथ बाहर टहलते हुए अंजीर के ऊंचे पेड़ के नीचे लगे छोटे पेड़ो को देखकर मैंने कहा कि देखो ये छोटे पेड़ कितने सुरक्षित हैं कि इनके ऊपर कोई बड़ा है। घर में सबसे बड़ा होना भी कितना असुरक्षित सा लगता है। ये दीवाली अलग सी है। इसलिए भी कि यह पहली दीवाली है जब पिताज़ी साथ नहीं है। ऊंचा सा वो वृक्ष जो विगत पांच दशकों  से भी अधिक समय तक हमारे ऊपर था, आज नहीं है। अचानक लगने लगा है कि उस वृक्ष की जगह शायद मैं खड़ा हूँ। हाँ, ये दीवाली अलग थी।