कल दीवाली थी। पर एक अलग सी दीवाली थी। नहीं था पटाखों का शोर। नहीं थी आतिशबाजियाँ अपनी विभिन्न रंगों की रोशनी से अमावस के आकाश को आलोकित करतीं। नहीं था दम घोटने वाला धुआँ। न ही थी बारूद की चिर परिचित गन्ध। न थी फुलझडियां, न चकरी, न अनार। न ही उतरे थे घरों से नीचे लोग मिलने जुलने। दूर कभी कभी कोई आतिशबाजी आकाश को रंगों से भर देती। कहीं कोई इक्का-दुक्का बम धमाका कर नीरवता को भंग कर देता। शान्त, अनमनी सी बत्तियां जरूर जल रही थी। पेड़ो पर लगी ये लाइटे यूँ तो देखने में सुन्दर लग रही थीं पर वह छोटी सी चिड़िया जो इन झरमुटों में अपना रैन बसेरा करती थी आज परेशान थी। इतनी रोशनी में उसे समझ नहीं आ रहा था कि अभी दिन है या रात ढल चुकी है। मच्छरों के झुंड के झुंड तेज हैलोजेन लाइट के ऊपर मंडरा रहे थे। अगली सुबह मैंने इन्हें कार्पेट की तरह नीचे बिछा पाया। प्रेम करना तो कोई इनसे सीखे। कुछ लोग तीन पत्ती से लक्ष्मी जी को अपनी ओर लाने के प्रयत्न में थे।
पत्नी के साथ बाहर टहलते हुए अंजीर के ऊंचे पेड़ के नीचे लगे छोटे पेड़ो को देखकर मैंने कहा कि देखो ये छोटे पेड़ कितने सुरक्षित हैं कि इनके ऊपर कोई बड़ा है। घर में सबसे बड़ा होना भी कितना असुरक्षित सा लगता है। ये दीवाली अलग सी है। इसलिए भी कि यह पहली दीवाली है जब पिताज़ी साथ नहीं है। ऊंचा सा वो वृक्ष जो विगत पांच दशकों से भी अधिक समय तक हमारे ऊपर था, आज नहीं है। अचानक लगने लगा है कि उस वृक्ष की जगह शायद मैं खड़ा हूँ। हाँ, ये दीवाली अलग थी।
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