Friday, 22 June 2018

आशा

कहते हैं आशा ही समस्त दुःखो का मूल है। जो व्यक्ति किसी से कोई आशा नहीं रखता वही सुखी है। क्योंकि आशा जब पूरी नहीं होती तो व्यक्ति को घोर दुःख होता है जो बाद में क्रोध में परिणित हो जाता है। और क्रोध के बारे में गीता कहती है:-

क्रोधात भवति सम्मोह:, सम्मोहात स्मृति विभ्रम:
स्मृति-भ्रंशात बुद्धि-नाश:,बुद्धि-नाशात प्रणश्यति ॥ 
                                                   गीता 2.63

अर्थात, क्रोध में व्यक्ति को सम्मोह हो जाता है, सम्मोह से उसकी स्मृति भ्रमित हो जाती है और स्मृति भ्रमित होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और जिसकी बुद्धि ही नष्ट हो गई हो उसका विनाश हो जाता है।

तो एक आशा रखने से विनाश की संभावना रहती है। इसके विपरीत जिसे किसी से संसार में कोई आशा नहीं है, कोई अपेक्षा नहीं है, वह पृथ्वी पर प्रसन्न हो विचरता है। क्योंकि जब कोई आशा ही नहीं है तो उसके पूरा न होने से होने वाले दुःख का तो प्रश्न ही कँहा उठता है। हम संसार से कितनी आशाएं रखते है। पत्नी सानुकूल होगी तो गृहस्थ जीवन आंनद से कटेगा। पुत्र होगा तो बुढ़ापे की लाठी बनेगा। पुत्र वधु संस्कारी होगी तो हमारा ध्यान रखेगी। पुत्री का अच्छा घर वर मिल जाये तो हम आराम से जी सकेंगे, आदि आदि। आशाओं का, अपेक्षाओं का कोई अंत थोड़े ही है। सुरसा के मुख के समान ये बढ़ती ही जाती हैं। एक पूरी हुई नहीं कि दूसरी तैयार खड़ी है। शायद ही कोई कह सकता हो कि इस जीवन से उसकी सभी आशाएं, सभी अपेक्षाएं पूरी हो चुकी हैं। और इन्हीं कभी न समाप्त होने वाली असंख्य आशाओं से घिरा व्यक्ति कब काल को देहरी पर आ खड़ा होता है पता ही नहीं चलता। और इन्हीं अधूरी इच्छाओं के साथ वह मरता है और पुनः संसार में आता है। कहा भी है कि अतृप्त आशाएं ही संसार में जन्म का कारण हैं। जिसकी सभी आशाएं, इच्छाएं पूरी हो चुकी है उसकी तो मुक्ति ही समझिये।

श्री मदभागवत में पिंगला वेश्या की कथा आती है कि कैसे रात्रि में सज धज के वह धनिक की आशा करती दरवाज़े पर खड़ी रही। तीन पहर रात्रि व्यतीत हो जाने पर भी जब कोई धनिक न आता दिखा तो उसने धनिक की आशा त्याग दी और तब जाकर वह सुख की नींद सो पाई।

इन सब के बीच तो क्या हम मान लें कि हम किसी से कोई आशा नहीं रखेंगें। क्या इस प्रकार निराशा से भरा जीवन जीना सही है? निराशा तो जीवन में घोर अकर्मण्यता लाती है। और गीता कहती है, कर्म करो। गीता में अकर्मण्यता को उचित नहीं कहा है।

अमावस की रात के अंधकार को दूर करने का भरसक प्रयत्न करता पीपल के पेड़ तले एक छोटा सा दिया टिमटिमाता है। आकाश में चाँद नहीं है। छोटे छोटे असंख्य सितारे भी टिमटिमाते हुए आकाश का अंधकार दूर करने में लगे हैँ। तो क्या इस नन्हें दीये का और इन सितारों का प्रयत्न निरर्थक है? क्या इनका प्रयत्न अंधकार को दूर करने की आशा नहीं है? तो क्या ये आशा गलत है? क्या ये हार मान लें ? निराश हो जायें। क्या हम घोर निराशा की स्तिथि में हार नहीं मान जाते? क्या हम प्रयत्नशील रहते हैं निराशा के अंधकार में?

तो फिर सही क्या है? ये प्रश्न उठता है। इसका उत्तर भी कँही न कँही गीता ही देती है। कर्म करो पर फल की आशा मत रखो। फल मिलने, न मिलने, आपकी इच्छानुसार मिलने और विपरीत मिलने में उदासीन रहो, न कि निराश रहो। ये ही अंतर है। उदासीन रहने और निराश रहने में बहुत बड़ा अन्तर है। निराश व्यक्ति अकर्मण्य हो जाता है। वह कर्म से विमुख हो जाता है। इसके विपरीत कर्म योगी पूरे मनोयोग से कर्म करता है उसमें कोई कसर बाकी नहीं रखता । पर फल की प्राप्ति में उदासीन रहता है।

इस दृष्टिकोण से विचार करें तो पाएंगे कि वह छोटा सा दिया अपना भरसक प्रयत्न कर रहा है अंधकार को दूर करने का। पर उसकी ये इच्छा कदापि नहीं है कि वह सूर्य बन जाये। जितना भी अंधकार वह दूर कर पा रहा है उदासीन भाव से कर रहा है। पर निराश हो कर अकर्मण्यता को प्राप्त नहीं हो रहा। जब तक तेल है, बाती है वह जलेगा, भरसक जलेगा क्योंकि ये उसका कर्म है।

हम भी किसी से आशा न रखें। पर निराश भी न हों। सन्तान का भली भांति भरण पोषण करें, जितनी सामर्थ्य है शिक्षित करें क्योंकि ये हमारा  कर्म है।  इस आशा से नहीं कि बड़े होकर बच्चे हमें सुख देंगे। ऐसे ही विद्यार्थी पूरी मेहनत से पढ़ाई करें, पूरी तन्मयता से पढ़े क्योंकि ये विद्यार्थी का कर्म है, इसलिए नहीं कि परीक्षा में अव्वल आएं।

इस कसौटी पर जितनी बार भी आप परखोगे आपको एक ही उत्तर मिलेगा कि सच्चे कर्म योगी बनें। सच्चा कर्म योगी निराशा के बारे में तो जानता ही नहीं। अकर्मण्यता क्या होती है उसे पता ही नहीं होता। कर्म करने में उसका कोई मुकाबला नहीं कर सकता पर फल की उसे किंचित भी आशा नहीं होती। वह पूर्णतया उदासीन होता है। ऐसा व्यक्ति अपने कर्मो से बंधता नहीं। पूरे संसार का यदि वह वध भी कर दे तो भी उसे किंचित भी पाप नहीं लगता। वह पानी में कमल की तरह निर्लिप्त रहता है। और सुख से विचरता है। उदासीनता और नैराश्य में अंतर न कर पाने के कारण ही ये दुविधा उठ खड़ी होती है।  इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि वास्तव में आशा ही समस्त दुःखो का कारण है। आइये, आशा त्यागे और सुख से जियें।

Monday, 11 June 2018

बेचारे मर्द

आखिर ऐसा मेरे साथ ही क्यों होता है? माना कि प्रभु की दुनियां रंग बिरंगी है, पर ये विभिन्न रंग मुझे ही क्यों गाहे बगाहे दीख पड़ते हैं? या हो सकता है, मैं कुछ ज्यादा ही ध्यान देता हूँ आस पास की घटनाओं पर।

कल ही की बात है, किसी कार्य वश बाजार जाना हुआ। जलेबियां लेनी थीं। हलवाई ने कहा, घान उतर रहा है थोड़ा समय लगेगा। यदि आपको कोई और कार्य हो तो कर आइये। मुझे याद आया कि मेरे पास सैंडो बनियान नहीं हैं। आधी बाजू की कमीज या टी शर्ट से  बनियान की बाहर झांकती बाज़ू से मुझे असहजता होती थी। सर्दियां गए कितना समय हुआ पर अभी तक सैंडो बनियान नहीं आई। सोचा, आज मौका है, यही काम करते हैं।

सो पँहुच गया पास की होज़री शॉप पर। वँहा एक पति पत्नी पहले से मौजूद थे। उनकी बातचीत से पता लगा कि पति को अंडरवियर लेने थे। पर पति बेचारा  पीछे खड़ा था और श्रीमति जी मोल भाव कर रही थीं। कई सारे मर्दाने अंडरवियर काउंटर की शोभा बढ़ा रहे थे, पर श्रीमति जी को कोई पसंद ही नहीं आ रहा था।

"अच्छा, यूरो है क्या आपके पास?"
"देखता हूँ।" कहते हुए दुकानदार पीछे मुड़ा, और मुझे "यूरो" अंडरवियर का विज्ञापन याद आ गया।
"नहीं, बहनज़ी, "यूरो" तो नहीं है।"
दुकानदार के चेहरे पर झल्लाहट नज़र आ रही थी।
"अच्छा, तो इसी में कलर दिखाओ।" एक जाना माना ब्रांड उठाते हुए वह बोलीं।
इस बार हिम्मत कर पति ने मुँह खोला, "इसमें व्हाइट मिलेगा?"
इस पर दुकानदार झल्ला उठा,"अरे मेरे भाई, व्हाईट कलर अंडरवियर में नहीं आता "
"पर वो डिब्बे पर तो उसने पहना है।"
"पहना होगा। मेरे पास नहीं है।"  कह कर वह मेरी तरफ मुखातिब हुआ।
"हाँ भाई साहिब, आपके क्या चाहिए ?"
उसे जवाब देते हुए, कनखियों से मैं देख पा रहा था कि अपने लिए अंडरवियर खरीदने में बेचारे पति की एक नहीं चल रही थी। कलर, ब्रांड और साईज़ सब उनकी श्रीमति जी तय कर रही थीं। और वह महाशय, भीगी बिल्ली बन पीछे खड़े बगले झांक रहे थे।
"बेचारे मर्द! " यही दो शब्द थे, जो बनियाने लेकर बाहर आते हुए मेरे मुँह से निकले थे।