Thursday, 8 November 2018

कर्मन की गति न्यारी

25 अक्टूबर का दिन था शरद पूर्णिमा अभी पिछले  दिवस ही गई थी। आकाश में चाँद अभी कुछ देर पहले ही उठा था। उसकी चांदनी अभी भी पूर्णिमा सी ही थी।उस शीतल चांदनी में पृथ्वी नहा रही थी। रोज़ की तरह ऑफिस से आ कर थोड़ा सुस्ताया। पत्नी ने रात का भोजन तैयार कर दिया था। पर अभी खाने की इच्छा नहीं थी। सोचा पहले थोड़ा घूम लें फिर भोजन करेंगे। पत्नी जो सारा दिन से घर मे ही थी, सहर्ष तैयार हो गई। हल्की हल्की ठंडक शुरू हो चुकी थी। मैंने ट्रैक सूट की जैकेट पहन ली तो पत्नी ने स्टोल ले लिया। हम ताला लगा बाहर कॉलोनी में आ गए। दो चक्कर लगाते न लगाते गिल दम्पति मिल गए। बात चल रही थी बच्चों के दूर चले जाने की और माता पिता के एकाकीपन की। बात चल निकली शरद पूर्णिमा पर बनी खीर की।  तभी दूसरी और से सामने वाले शर्मा जी का नोकर उनका कुत्ता घुमाता आ गया। मुझे कुत्तों की नस्ल की कोई जानकारी नहीं है। पर ये नस्ल कुछ आक्रमक होती है ऐसा मुझे बताया गया है। मेरे लिए ये कोई नई बात नहीं थी। पर आज वो लड़का जरूर नया था। उसने कुत्ते का पट्टा पकड़ा हुआ था जो जरूरत से ज्यादा लम्बा किया हुआ था। ये कुत्ता जब छोटा सा आया था तभी से साथ चलने वालों पर भोंकता और झपटता था। पर वो लड़का जो इसे टहलता था पट्टे से इसे खींच कर रखता था। हम भी इससे दूर से ही निकलते थे कि कंही काट न ले। उस दिन वो लड़का नया था और पट्टा भी लम्बा था। जैसे ही ये हमारे सामने से निकला, ये मुझ पर भोंकते हुए झपटा। पट्टा लम्बा होने से ये मुझ तक आसानी से आ पँहुचा और जब तक मैं प्रतिक्रिया करता इसने मेरी पिंडली दबोच ली। इसके नुकीले दांत मेरे लोअर में से होते हुए मेरी खाल में गड़ गए। मैंने बहुत पैर झटका पर ये आसानी से छोड़ने वाला नहीं था। आखिर बहुत दिनों बाद इसे ऐसा अवसर हाथ लगा था। जब इसने मेरा पैर छोड़ा तो सब ने कहा कि कुछ नहीं हुआ बस लोअर ही तो पकड़ा है। पर ये तो मुझे ही पता था कि लोअर के साथ मेरी पिंडली भी इसके दांतो की पकड़ में थी। रोशनी वँहा कम थी फिर भी लोअर ऊपर कर के देखा तो एक पूरे वृताकार स्थान में दाँतो के चिन्ह थे और खून बह रहा था। मैंने कुत्ते के मालिक को फ़ोन कर सूचित किया और मैं घर आ गया। साबुन से ज़ख्म धोया और डेटॉल लगा ली। शर्मा जी और गिल साहब दोंनो ही आ गए थे। गिल साहब का  बेटा गाड़ी ले आया था। हम पास के हॉस्पिटल में जा पँहुचे। शर्मा जी ने बताया कि उनके कुत्ते को इंजेक्शन लगे हुए हैं, पर डॉक्टर का कहना था कि पांच एन्टी रेबीज़ तो लगवाने ही पड़ेंगे। तो लग रहे हैं। चार लग गए हैं। एक तोअभी लगवा कर लौटा हूँ। पाँचवा 14 दिन बाद लगेगा। जब भी उस कुत्ते को देखता हूँ, और दूरी बढ़ा लेता हूँ। ज़ख्म अब भर चला है।पर कसक बाकी है। पर इसमें किसी का क्या दोष? तुलसीदास जी कह गए हैं- काहू न कोई सुख दुःख कर दाता। किसी पूर्व जन्म का बैर होगा जो इसने इस जन्म में निकाल लिया। कर्म था जो कट रहा है। किसी ने गाया है- संतन कर्मन की गति न्यारी। यही सोच कर संतोष करता हूँ कि शायद कोई बड़ी चोट होनी थी जो प्रभु ने इतने में ही भुगता दी।खाली था सो निज व्यथा लिख डाली।कोई और कारण नहीं था। मन लगाने का ये भी तो एक तरीका है।

एक और कल्पना जगत

बचपन से ही दीवाली पूजन के बाद पूजन के स्थान पर बैठना मुझे बहुत भाता है। जब दिए बुझने के कगार पर होते हैं। हटरी पर लगी मोमबतियां भी आख़री लों के साथ बुझने को होती हैं। ढेर सारा रंग बिरंगा मोम पिघल के नीचे  इकट्ठा हो चुका होता है। बस एक बड़ा दिया तेल से भरा जल रहा होता है, जिसे रात भर जलना है । कंही ऐसा न हो कि लक्ष्मी जी आएं और अंधेरा पा कर लौट जाएं। ऐसे में वँहा बैठ मैं कल्पना में एक गाँव की रचना कर लेता हूँ जिसके बाहरी भाग पर जो मिट्टी के शेर सजे हैं वो जीवित हो उठते हैं। अंदर के खिलौने घोड़े, गाय, बकरी सब सुरक्षित हैं। वो गुज़रियाँ भी जो रंग बिरंगे परिधान पहने सिर पर मटका उठाये खड़ी हैं। चौखटों में खील बताशे भरे हैं। खांड के खिलौने और बताशे रखे हैं। मुरमुरे और चने के गुड़ में बने लड्डू भी हैं। भोग लगी मिठाइयां हैं, फल हैं औऱ साथ मे अमृत सा चरनामृत है जो सब को देने के बाद थोड़ा सा बच गया है। कितनी शांति है इस काल्पनिक गांव में। मैं वहाँ बैठ रात 12 बजे का इंतज़ार करता हूं जब मां देहली पर सतिया काढेगी। दो बताशे ऊपर की चौखट के बीच में चिपका कर पूजन करेगी। अभी भी वंही बैठ उन पलों को जी कर आ रहा हूँ। कौन कहता है कि मेरी उम्र हो चली है। मैं तो अभी वही बच्चा हूँ जो वर्षो पहले था।