बचपन से ही दीवाली पूजन के बाद पूजन के स्थान पर बैठना मुझे बहुत भाता है। जब दिए बुझने के कगार पर होते हैं। हटरी पर लगी मोमबतियां भी आख़री लों के साथ बुझने को होती हैं। ढेर सारा रंग बिरंगा मोम पिघल के नीचे इकट्ठा हो चुका होता है। बस एक बड़ा दिया तेल से भरा जल रहा होता है, जिसे रात भर जलना है । कंही ऐसा न हो कि लक्ष्मी जी आएं और अंधेरा पा कर लौट जाएं। ऐसे में वँहा बैठ मैं कल्पना में एक गाँव की रचना कर लेता हूँ जिसके बाहरी भाग पर जो मिट्टी के शेर सजे हैं वो जीवित हो उठते हैं। अंदर के खिलौने घोड़े, गाय, बकरी सब सुरक्षित हैं। वो गुज़रियाँ भी जो रंग बिरंगे परिधान पहने सिर पर मटका उठाये खड़ी हैं। चौखटों में खील बताशे भरे हैं। खांड के खिलौने और बताशे रखे हैं। मुरमुरे और चने के गुड़ में बने लड्डू भी हैं। भोग लगी मिठाइयां हैं, फल हैं औऱ साथ मे अमृत सा चरनामृत है जो सब को देने के बाद थोड़ा सा बच गया है। कितनी शांति है इस काल्पनिक गांव में। मैं वहाँ बैठ रात 12 बजे का इंतज़ार करता हूं जब मां देहली पर सतिया काढेगी। दो बताशे ऊपर की चौखट के बीच में चिपका कर पूजन करेगी। अभी भी वंही बैठ उन पलों को जी कर आ रहा हूँ। कौन कहता है कि मेरी उम्र हो चली है। मैं तो अभी वही बच्चा हूँ जो वर्षो पहले था।
No comments:
Post a Comment