आज फिर हवा बर्फ़ीली हो गई है। कितने दिन बीते पर ये ठंड है कि जाने का नाम ही नहीं ले रही है। छोटे से इस पहाड़ी गाँव में पूरा जीवन अस्त व्यस्त है। पिछली पड़ी बर्फ हटा नहीं पाता कि फिर से बर्फ बारी हो जाती है। सड़के, बिजली, स्कूल सभी तो बंद हैं। रोजी के भी लाले पड़े हैं। अब कोई काम नहीं करेगा तो परिवार का पेट कैसे भरेगा। थोड़ा बहुत जमा राशन भी समाप्त हो चला है। सूरज है कि पता नही कँहा जाकर अस्त हुआ है। आज कितने ही दिन हो गए धूप निकले। कपड़े कैसे सूखेंगे इतनी नमी में। कच्चे मकान की छत पिछले साल ही तो मरम्त कराई थी। फिर से टपकने लगी है। आखिर कितना वज़न झेलेगी। छत पर से बर्फ हटाना तो मानो अब रोज़ का काम हो गया है। अब उसकी बूढ़ी हड्डियों में इतनी ताकत नहीं बची की रोज़ ये सब करे। अरे टपकती है तो टपका करे। अब बहू से तो ये सब नहीं करवाया जा सकता। जब से बेटा भगवान को प्यारा हुआ है, उसकी तो दुनिया वैसे ही अंधेरी हो गई है। वो तो पहाड़ से कूद ही गई होती। शायद अपने भीतर पलती जान के बारे में सोच कर रुक गई। जब बेटे के शहीद होने की खबर आई तो बहू पेट से थी। जब उसके पोते ने जन्म लिया, तब न तो उसे कोई प्रसन्नता हुई और न ही बहू को। वो तो मानो सुख दुःख से दूर तटस्थ हो गई थी। कई बार कहा कि बेटे को ले अपने मायके चली जाए। पर वो कँहा सुनती है। कहती है फिर पीछे आप को कौन संभालेगा। अरे, मेरा क्या है! आज हूँ तो कल नहीं हूं। अब मैं जीऊँ भी तो किसके लिए। पर वो नहीं मानती। बेटा जब पैरा मिलिट्री फ़ोर्स में भर्ती हुआ था तो उसका सीना गर्व से चौड़ा हो गया था। पूरे गावँ में एक ये ही घर था जिससे कोई बेटा देश सेवा के लिए निकला था।उसकी पत्नी की कतई भी इच्छा नहीं थी कि बेटा फ़ौज़ में जाये। पर पिता और पुत्र की हठ के आगे उसकी एक न चली। माँ ने शायद इसे ही नियति मान लिया था। पर जब भी बेटा घर से जाता वो पीपल के पेड़ पर मन्नत की मौली बांधना नहीं भूलती। और माँ की मन्नत का ये सूत का धागा, उसके बेटे को सही सलामत घर ले आता - हर बार। वो हँसता था। ये सब उसे ढ़कोसला लगता। पर पत्नी जो एक माँ भी थी इसे पूरे विश्वास से करती थी। और फिर एक दिन वो नहीं रही। बेटा कुछ दिन की छुट्टी पर आया था और फिर चला गया। वो नितांत अकेला रह गया। सारा दिन खेत में बैठकर आसमान की ओर शून्य में निहारता रहता। मानो कुछ खोज रहा हो। खेती बाड़ी में अब उसका मन नहीं लगता था। कभी कभार जब बेटा गाँव आता तो उसका जी कुछ हरा हो जाता। पर चार दिन की चाँदनी कितना दिल बहलाती। बेटे के जाने के बाद तो लंबी अमावस आ जाती। अवसाद उसे फिर घेर लेता। इन्हीं के बीच एक अच्छा रिश्ता आया। उसने तुरन्त "हाँ" कह दी। बेटे तक से नहीं पूंछा। फिर अगली बार जब बेटा लौटा तो उसने उसका विवाह कर दिया। बहू घर में क्या आई, उसका तो जीवन ही बदल गया। एक हाथ लम्बा घूँघट काढे जब वो चलती तो उसके पैरों की पायल और चूड़ियों की मधुर आवाज़ उसे बहुत सुकून देती। पता नहीं किन जन्मों के पुण्य उदय हुए थे जो उसे इतनी सेवा करने वाली बहू मिली थी। बेटे की छुट्टियां खत्म हो चली थी। उसे जाना था। जब वह जा रहा था तो उसे पत्नी का मन्नत का धागा याद आ गया। उसका मन किया कि बहू से कहे कि अपनी सास की तरह वो भी मन्नत का धागा बांधे। पर उसे ये सब बेमानी लगा। बेटा चला गया और फिर जब लौटा तो तिरंगे में लिपटा। पूरा गाँव जुट गया था उसके अंतिम संस्कार के लिए। बड़े बड़े अधिकारी आये। पर वो तो जैसे पथरा गया था। न हँसा, न रोया । बस बड़बड़ाता रहा - " मन्नत का धागा बंधवा दिया होता तो आज ये जीवित होता।" पर अब क्या हो सकता था। कुछ माह बाद जब पोते का जन्म हुआ तो गाँव वाले कहने लगे , " देख, तेरा बेटा लौट आया है।" पर वो क्या जाने कि नन्हीं सी जान को जवान करने में एक उम्र बीत जाती है। और अब उसके पास उम्र बची ही कितनी है। सरकार ने जो मदद के आश्वासन दिए थे, अभी तक कोई भी पूरा नहीं हुआ। बहू अब भी घर में चलती तो है, पर कोई आवाज़ नहीं होती। उसकी पाजेब और चूड़ियां, मांग के सिन्दूर के साथ ही उतर गईं। ये सब क्या कम था जो इस साल ये कमबख्त बर्फ बारी हो गई जो बंद ही नहीं हो रही है। उसको याद नहीं पड़ता कि उसके जीवन काल में कभी इस गाँव में इतनी बर्फ पड़ी हो। छत टपके जा रही है। किससे कहे? किसकी मदद ले। आकाश फिर घना काला हो गया है। दूर कँही घाटी में जोरो की वर्षा हो रही है। शायद रात में फिर बर्फ पड़े। बहू ने चूल्हा जला लिया है। धोती के झूले में बेटे को डाल वह गीली लकड़ियां सुलगाने का प्रयत्न कर रही है। बीच बीच में रोते बेटे को चुप कराने के लिए झूला हिलाती जाती है। छत लगातार टपक रही है। "इसका कुछ करवाना पड़ेगा, बाबू जी!"चेहरा घूंघट से ढके दबे स्वर में उसने कहा। "देखता हूँ, इस वक्त कोई मिलता है तो।", कहते हुए वह निकल पड़ा। पुराना कम्बल जो उसके जाड़ो का एक मात्र साथी था, उसने अपने चारों ओर लपेट लिया। बहू कितनी बार कह चुकी है कि अब एक नया कम्बल ले लो। पर इस को उसके बेटे ने अपनी पहली कमाई से ला कर दिया। इसे कैसे छोड़ दे। आज भी जब इसे लपेटता है, तो लगता है जैसे बेटे ने अपनी बांहो से उसे पकड़ा हुआ है। हल्की हल्की बर्फ गिरनी शुरू हो गई थी। छोटे हल्के रुई के फाहे आसमान से गिर रहे थे। वह कुछ दूर बनी बैंच तक आ गया था। सोचा, इस बर्फ बारी में कौन मिलेगा। सोचते हुए अभी मुड़ा ही था, कि उसे जोर से चक्कर आया। इससे पहले कि वह संभल पाता, उसके शरीर ने जवाब दे दिया। धम्म से वह कम्बल में लिपटा नीचे बिछी बर्फ पर जा पड़ा। बर्फ़ बारी तेज़ हो गई थी। उसने देखा, कि उसकी पत्नी और बेटा आये हैं। बेटा पूरी वर्दी में है। पत्नी ने वो ही साड़ी पहनी है, जिसमें वो विदा हो कर आई थी। बेटे ने मुस्कराते हुए हाथ बढ़ाया। उसने बेटे का हाथ थाम लिया। वह उठ खड़ा हुआ। उसने महसूस किया कि वो बर्फ के फाहे जैसा हल्का हो गया है। उसे ठंड नहीं लग रही है। जैसे ही उसने कदम बढ़ाया वह हवा में कुछ ऊपर उठ गया। अरे! ये क्या हुआ ! वो हैरान था। ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ। हवा में तैरते हुए वो बढ़ चला। देवदार और चीड़ के वृक्षों से भी ऊपर। और ऊपर। नीचे देखा तो कम्बल में लिपटा उसका शरीर बर्फ से ढक चुका था। बर्फ की मोटी चादर ने उसे अपने अंक में ले लिया था। दूर कँही कोई पक्षी गाने लगा। सर्द रात में शायद उसका साथी उससे बिछड़ गया था। एक अज़ीब सा दर्द था उसके गीत में। घाटी में बर्फ पड़ती रही और उसके मकान की छत टपकती रही- रात भर।
Tuesday, 19 February 2019
Thursday, 14 February 2019
पाखी
खिड़की से बाहर देखता हूँ, अनेक बड़े छोटे वृक्षों का झुरमुट है। इन के बीच पीपल के दो वयोवृद्ध वृक्ष खड़े हैं। हवा के साथ इनके भी पात हिल कर प्रसन्नता प्रकट करते हैं। उम्र के चलते इनका फैलाव तो बढ़ा है पत्ते अलबत्ता कम हो गए हैं। बसन्त का भी इन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं दीखता है। बेतरतीब फैली हुई शाखाएं दूर से ही दिख रही हैं- मानो कोई कृशकाय व्यक्ति उम्र की संध्या पर खड़ा है। पक्षी इन्हें अच्छी तरह से जानते हैं। कबूतर, चिड़ियाएं, चीलें, कौऐ, तोते सब का आश्रय हैं ये वृक्ष। एक तो दो ऊंची इमारतों के मध्य खड़ा है तो दूसरा उन्हीं इमारतों में से एक के सामने। कपोत जो इन पर रहते हैं, एक इमारत से दूसरी के मध्य उड़ान भरते नहीं थकते। हवा में पंख फैलाये दोनों इमारतों की दूरी इस पेड़ के ऊपर से उड़ते हुए तय करते हैं। कभी पंख चलाते, तो कभी यूँ ही बस हवा में तैरते दिन भर ये झुंड बना उड़ते रहते है। मैं सोचता हूँ कि वो कौन सा कारण है जो इन्हें दिन भर उड़ने के लिए बाध्य करता है? ये क्या सोचते हैं? क्यों उड़ते हैं? शायद उड़ना ही इनकी नियति है। ये निरुद्देश्य तो नहीं उड़ते। कर्मठ है। खाली नहीं बैठ पाते। तो उड़ान भरते हैं। इनकी लैंडिंग देख कर मुझे बहुत आश्चर्य होता है। कैसे छोटे से छज्जे पर , या फिर ऐ सी के ऊपर, या फिर छोटे से मोखरे में बिना टकराये तेज़ गति से आते हुए ये धीरे से उतर जाते हैं। एकदम सधी हुई लैंडिंग- हर बार उतनी ही कुशलता से ये अंजाम देते हैं। आकाश जब मेघों से आच्छादित हो उठता है और बूंदे बस गिरने ही वाली होती है, उससे पहले ये पक्षी झुंड के झुंड आकाश में विचरते हुए दिखते हैं। वर्षा के बाद अपने गीले पंखो को जोर से फड़फड़ाते है जिससे पानी हट जाता है। अपनी चोंच मोड़ कर पंखो से बचा खुचा पानी झाड़ कर फिर उड़ने को तैयार ये परिंदे झुटपुटा होते ही एक स्वर में गान करने लगते हैं। वेद की ऋचाओं सा इनका समूह गान सूरज ढलते ढलते शांत हो जाता है। अपने अपने नीडो में घुस कर निंद्रा मग्न होते हुए भी चौकन्ने रहते है ये। जरा सी आहट से तितर बितर हो जाने वाले ये पँछी इन्हीं वृक्षो की शाखों पर रहते हैं। न जाने कब से! ये पाखी मेरे एकाकी पन के साथी!