खिड़की से बाहर देखता हूँ, अनेक बड़े छोटे वृक्षों का झुरमुट है। इन के बीच पीपल के दो वयोवृद्ध वृक्ष खड़े हैं। हवा के साथ इनके भी पात हिल कर प्रसन्नता प्रकट करते हैं। उम्र के चलते इनका फैलाव तो बढ़ा है पत्ते अलबत्ता कम हो गए हैं। बसन्त का भी इन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं दीखता है। बेतरतीब फैली हुई शाखाएं दूर से ही दिख रही हैं- मानो कोई कृशकाय व्यक्ति उम्र की संध्या पर खड़ा है। पक्षी इन्हें अच्छी तरह से जानते हैं। कबूतर, चिड़ियाएं, चीलें, कौऐ, तोते सब का आश्रय हैं ये वृक्ष। एक तो दो ऊंची इमारतों के मध्य खड़ा है तो दूसरा उन्हीं इमारतों में से एक के सामने। कपोत जो इन पर रहते हैं, एक इमारत से दूसरी के मध्य उड़ान भरते नहीं थकते। हवा में पंख फैलाये दोनों इमारतों की दूरी इस पेड़ के ऊपर से उड़ते हुए तय करते हैं। कभी पंख चलाते, तो कभी यूँ ही बस हवा में तैरते दिन भर ये झुंड बना उड़ते रहते है। मैं सोचता हूँ कि वो कौन सा कारण है जो इन्हें दिन भर उड़ने के लिए बाध्य करता है? ये क्या सोचते हैं? क्यों उड़ते हैं? शायद उड़ना ही इनकी नियति है। ये निरुद्देश्य तो नहीं उड़ते। कर्मठ है। खाली नहीं बैठ पाते। तो उड़ान भरते हैं। इनकी लैंडिंग देख कर मुझे बहुत आश्चर्य होता है। कैसे छोटे से छज्जे पर , या फिर ऐ सी के ऊपर, या फिर छोटे से मोखरे में बिना टकराये तेज़ गति से आते हुए ये धीरे से उतर जाते हैं। एकदम सधी हुई लैंडिंग- हर बार उतनी ही कुशलता से ये अंजाम देते हैं। आकाश जब मेघों से आच्छादित हो उठता है और बूंदे बस गिरने ही वाली होती है, उससे पहले ये पक्षी झुंड के झुंड आकाश में विचरते हुए दिखते हैं। वर्षा के बाद अपने गीले पंखो को जोर से फड़फड़ाते है जिससे पानी हट जाता है। अपनी चोंच मोड़ कर पंखो से बचा खुचा पानी झाड़ कर फिर उड़ने को तैयार ये परिंदे झुटपुटा होते ही एक स्वर में गान करने लगते हैं। वेद की ऋचाओं सा इनका समूह गान सूरज ढलते ढलते शांत हो जाता है। अपने अपने नीडो में घुस कर निंद्रा मग्न होते हुए भी चौकन्ने रहते है ये। जरा सी आहट से तितर बितर हो जाने वाले ये पँछी इन्हीं वृक्षो की शाखों पर रहते हैं। न जाने कब से! ये पाखी मेरे एकाकी पन के साथी!
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