कल से साँझी उत्सव प्रारंभ हो रहा है जो अश्विन कृष्ण अमावस्या तक चलेगा। मुझे खूब याद है जब हम बालक थे, अपनी बहनों को साँझी खिलाते थे। गाय के गोबर की साँझी दीवाल पर बनाते थे जिसमें भांति भांति के रंग बिरंगे पुष्प लगाए जाते थे। साँझी माता के अलावा इसमें सूरज, चाँद, सतिये, चिड़िया, तोते आदि भी खड़िया मिट्टी और गेरू से बना कर इसे सुसज्जित करते थे। संध्या समय " साँझी बहना री क्या पहनोगी, क्या ओढ़ोगी ' ऐसे ही लोक गीत गाकर बहनों को साँझी खिलाते थे।
साँझी कंवारी कन्याओं का उत्सव है। कहते हैं राधा जी अपने पिता के घर के आँगन में साँझी सजाती थीं।इस रूप में वह संध्या देवी का पूजन करती थीं।सांझी की शुरूआत राधारानी द्वारा की गई थी। सर्वप्रथम भगवान कृष्ण के साथ वनों में उन्होंने ही अपनी सहचरियों के साथ सांझी बनायी। वन में आराध्य देव कृष्ण के साथ सांझी बनाना राधारानी को सर्वप्रिय था। तभी से यह परंपरा ब्रजवासियों ने अपना ली और राधाकृष्ण को रिझाने के लिए अपने घरों के आंगन में सांझी बनाने लगे।
राधा रानी की समस्या कुछ ऐसी है जो न तो कही जा रही है न कहे बिना रह ही पा रहीं हैं।
फूलन बीनन हौं गई जहाँ जमुना कूल द्रुमन की भीड़,
अरुझी गयो अरुनी की डरिया तेहि छिन मेरो अंचल चीर।
तब कोऊ निकसि अचानक आयो मालती सघन लता निरवार,
बिनही कहे मेरो पट सुरझायो इक टक मो तन रह्यो निहार।
हौं सकुचन झुकी दबी जात इत उत वो नैनन हा हा खात,
मन अरुझाये बसन सुरझायो कहा कहो अरु लाज की बात।
नाम न जानो श्याम रंग हौं , पियरे रंग वाको हुतो री दुकूल,
अब वही वन ले चल नागरी सखी फिर सांझी बीनन को फूल।
अर्थ - श्री राधिका जी कहती हैं की मैं सांझी बनाने के लिए यमुना के तट पर फूल बीनने के लिए गयी और वहाँ पर मेरी साड़ी एक पेड में उलझ गयी तभी कोई अचानक वहाँ आ गया और उसने मेरी साड़ी सुलझा दी और वो मुझे लगातार निहारने लगा और मैं शरमा गयी लेकिन वो देखता रहा और उसने मेरे पैर पर अपना सिर रख दिया . ये बात कहने में मुझको लाज आ रही है लेकिन वो मेरे वस्त्र सुलझा कर मेरा मन उलझा गया. मैं उसका नाम नहीं जानती पर वो पीला पीताम्बर पहने था और श्याम रंग का था . हे सखी अब मुझे वो याद आ रहा है इसलिये मुझकों उस वन में ही सांझी पूजन के लिए फूल बीनने को फिर से ले चलो . इस पद में प्रभु श्री कृष्ण और राधा रानी के प्रथम मिलन को दर्शाया गया है इसलिये इसको सांझी के समय गाते हैं.
आज़कल ये सब उत्सव और लोक परम्पराएं तिरोहित हो गई हैं। आज के माता पिता भी इन सब के विषय में या तो जानते नहीं या फिर इतने व्यस्त हैं कि अपने बच्चों को इन सबकी जानकारी देने का उन्हें अवकाश नहीं है। हमारी पीढ़ी के साथ ही ये लोक परम्पराएं सर्वथा लुप्त हो जाएंगी। इस धरोहर को सहेजने की दिशा में ये पोस्ट एक छोटा सा प्रयास है।
-कुछ अंश यामिनी माहेश्वरी की पोस्ट से साभार।
©आशु शर्मा