कुछ अनमने से हो गए बादल। बोले आख़िर घर कौन लौटना नहीं चाहता! पर तुम इन्सानों ने प्रकृति चक्र बदलने की ठानी है। हम लौटे भी तो कैसे? पूर्वी हवाएं अभी भी बह रही हैं। हवा में अभी भी कितनी नमी है। इन जल वाष्प कणों का बोझ हम भी कब तक ढोयें। कभी तो बरसना ही पड़ता है। जब तक ये पूर्वी हवाएं नमी ले कर बहती रहेंगी तब तक हम घर कैसे लौटें! बादल बोलता ही चला गया । ये सब तुम इंसानों का किया धरा है। क्या तुम्हें मालूम है समुन्द्र का तापमान कितना बढ़ चुका है ! ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। प्रकृति का चक्र बदल रहा है। अभी भी सुधर जाओ। प्रकृति से खिलवाड़ बन्द करो। वरना बहुत गम्भीर परिणाम होंगे।
अरे पर मुझे तो बोलने दो। तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो। पर तब तक हवा ने उसे आगे धकेल दिया था।जल वाष्प कण समेटता हुआ वो झुंड बहे जा रहा था। सफेद से काले रंग में बदलते हुए। आसमान अब साफ था। सूरज प्रखरता से चमक रहा था। मैं ठगा सा बादल की चेतावनी पर सोच रहा था। ये मानसून तो जा ही नहीं रहा। तो क्या हम उत्तरदायी हैं इसके लिये? बहती हवा ने कानों में कहा, "हाँ। बिल्कुल। बादल ठीक ही कहता है।"
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