Thursday, 30 September 2021

तुम क्यों रुक गए मानसून

कल दोपहर मुझे बादलों के कुछ झुंड मिले। आवारा से भटकते हुए स्वच्छ नीले आसमान पर। एक तो बिल्कुल सफेद था, रूई के गोले सा। बिना पानी के जबकि दूसरा जो कुछ बड़ा था जल वाष्प धारण किये था एक तरफ से काला सा। मैंने उन्हें रोका और कहा कि अब तक तो तुम्हें चले जाना चाहिए था और तुम हो कि जा ही नहीं रहो हो। पहले तो देर से आये फिर प्रारम्भ में नख़रे करते रहे और अब जो बरसना शुरू किया तो जाने का नाम ही नहीं ले रहे हो। तुम्हारे पिता समुन्द्र ने तुम्हें घर से निकाल दिया क्या या फिर यहीं मन लग गया है। अरे अब जाओ! लोगों को अपने घर की लिपाई पुताई करानी है। साफ़ सफ़ाई करनी है। दशहरा आन पहुँचा है। दीवाली भी कहाँ दूर है ! मुझे अपनी गाड़ी भी सर्विस करानी है। और तुम हो, यहीं जमे हो। 
कुछ अनमने से हो गए बादल। बोले आख़िर घर कौन लौटना नहीं चाहता! पर तुम इन्सानों ने प्रकृति चक्र बदलने की ठानी है। हम लौटे भी तो कैसे? पूर्वी हवाएं अभी भी बह रही हैं। हवा में अभी भी कितनी नमी है। इन जल वाष्प कणों का बोझ हम भी कब तक ढोयें। कभी तो बरसना ही पड़ता है। जब तक ये पूर्वी हवाएं नमी ले कर बहती रहेंगी तब तक हम घर कैसे लौटें! बादल बोलता ही चला गया । ये सब तुम इंसानों का किया धरा है। क्या तुम्हें मालूम है समुन्द्र का तापमान कितना बढ़ चुका है ! ग्लोबल वार्मिंग हो रही है। प्रकृति का चक्र बदल रहा है। अभी भी सुधर जाओ। प्रकृति से खिलवाड़ बन्द करो। वरना बहुत गम्भीर परिणाम होंगे। 

अरे पर मुझे तो बोलने दो। तुम तो बोलते ही चले जा रहे हो। पर तब तक हवा ने उसे आगे धकेल दिया था।जल वाष्प कण समेटता हुआ वो झुंड बहे जा रहा था। सफेद से काले रंग में बदलते हुए। आसमान अब साफ था। सूरज प्रखरता से चमक रहा था। मैं ठगा सा बादल की चेतावनी पर सोच रहा था। ये मानसून तो जा ही नहीं रहा। तो क्या हम उत्तरदायी हैं इसके लिये? बहती हवा ने कानों में कहा, "हाँ। बिल्कुल। बादल ठीक ही कहता है।"

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