Thursday, 25 November 2021

स्वाति का जन्म

विवाह को पाँच वर्ष हो चुके थे। बड़ी बेटी अब चार की हो चली थी। मेरा मानना था कि एक ही बच्चा बहुत है। पर पत्नी का आग्रह था कि क्योंकि अकेला बच्चा एकाकी हो कर रह जाता है इसलिए दो तो बहुत जरूरी है। मैं अवाक था। भगवान ने स्त्री को कितनी हिम्मत दी है! पिछली पीड़ा भूल वह फिर वही पीड़ा सहने को सहर्ष  तैयार हो जाती है जिससे उसके बच्चे को अकेले होने का एहसास न हो। जो भी हो ,दूसरी सन्तान का निर्णय हम दोनों का था। प्रभु ने हम दोनों को ही पुत्र मोह से दूर ही रखा है। तो ये कहना ठीक न होगा कि पुत्र मोह के कारण हमने दूसरे बच्चे का निर्णय लिया। बस एक ही इच्छा थी बेटा हो या बेटी जो भी हो स्वस्थ हो। 

समय तो पंख लगा के उड़ गया। जल्द ही वो दिन आ गया जब पत्नी को रेलवे अस्पताल भर्ती करना पड़ा। वैसे वो ठीक थी बस डॉक्टर उसे अपनी निगरानी में रखना चाहते थे।   ये 24 नवम्बर का दिन था। रात आठ बजे मैं पत्नी को अकेले डॉक्टरों के भरोसे छोड़ घर आ गया।  शरीर घर पर था पर मन पत्नी के साथ अस्पताल में। उन दिनों फ़ोन की सुविधा आम नहीं थी। रेलवे का अपना नेटवर्क होता है। रेलवे कॉलोनी में रहने के कारण हमारे ऊपर वालों के क्वाटर में रेलवे फ़ोन लगा था। उसका नम्बर मैं पत्नी को दे आया था जिससे किसी आपातकाल में वो हमें संदेश दे सके। 

रात के दो बजे होंगे कि हमारे दरवाज़े की घन्टी रात का सन्नाटा तोड़ती बज उठी। मैं हड़बड़ा कर उठा और दरवाज़ा खोला। सामने ऊपर वाले पड़ोसी थे। बोले,' क्या आपका कोई अस्पताल में भर्ती है?" मेरे हाँ कहने पर बोले, " आपके लिये अस्पताल से फोन है।"
सीढ़ियां चढ़ते मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप रहा था। फ़ोन उठाने पर दूसरी तरफ से एक नर्स ने पहले मेरा नाम पूछ के पहचान पक्की की। फिर कहा, "बधाई हो। बेटी ने जन्म लिया है।" मैंने पूछा, "पत्नी कैसी है?" पर तब तक फोन रख दिया गया था। मेरा डर काफ़ूर हो गया। मज़बूत कदमों से नीचे उतरा। तब तक मां भी जाग गईं थीं। मैंने उन्हें सूचित किया।  माँ ने कहा, "चल, अस्पताल चलना है।" 

मैंने अपना बजाज सुपर निकाला। माँ को पीछे बिठा हम अस्पताल चल दिये। सड़को पर सन्नाटा बिखरा था। ईदगाह की चढ़ाई पर स्कूटर के साइलेंसर से एक एक कर कई पटाख़े फूटने जैसी जोर की आवाज़ हुई और स्कूटर बन्द हो गया। सड़क किनारे सोये कुत्ते भोंकते हुए हमारे चारों ओर आ डटे। जैसे तैसे हम अस्पताल पहुँचे तो ऊपर जाने का रास्ता सब तरफ़ से बंद था। आपातकालीन द्वार की तरफ से हम ऊपर पहुँचे। पत्नी को तब स्ट्रेचर पर वार्ड में ले जाया जा रहा था। पास लेटी थी एक नन्हीं परी, पतले पतले गुलाबी होंठ थे जिसके। मैंने पत्नी से पूछा, "ठीक हो?" वो हल्के से मुस्करा दी। उसकी फीकी सी मुस्कान बता रही थी कि वह दर्द में थी।

तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। उस दिन जोर की बारिश से दिल्ली की सड़कें जल प्लावित थीं। पानी सुबह से बरस रहा था। थ्री व्हीलर पर उसे ले जाना मुझे उचित नहीं लगा। टैक्सी बुक कर मैं अपने स्कूटर के साथ पोर्च में ले आया। मेरी छोटी बहन की गोद में मेरी बिटिया थी। अस्पताल की सीढ़ियां उतरते हुए मेरी बहन के कदम लड़खड़ाए और उसकी गोद से नवजात शिशु छिटकते हुए बचा। एक घड़ी को मेरा कलेजा मुँह को आ गया। टैक्सी के पीछे  मैं अपने स्कूटर को चलाते हुए, माँ और बच्चे को घर ले आया। घर आते आते मैं पूरी तरह से भीग गया था। पर संतोष था कि माँ और बेटी सुरक्षित थे। 

आज इस बात तो 32 वर्ष हो चुके हैं। मेरी बेटी अब एक और प्यारी सी बेटी की माँ है। आज उस का जन्मदिन है। मुझे लगा कि उसके जन्म की कहानी से अच्छा और क्या तोहफ़ा हो सकता है इस दिन पर देने के लिए। 

बड़ी बेटी के जन्म की घटनाएं भी मेरे मानस पटल पर साफ़ साफ़ अंकित हैं। उसके अगले जन्म दिवस पर उसे उसके जन्म की कहानी सुनाऊँगा। 
  

Sunday, 21 November 2021

पापा का पर्स

आज एक सहकर्मी की अंतिम क्रिया में जाना हुआ। वापस आते ही गुसल में घुसा, सारे कपड़े भिगोये और नहा लिया। गीले वस्त्रों को वाशिंग मशीन में डाल भोजन किया और सो गया। शाम को जब बाजार जाने लगा तो पर्स की खोज हुई। आमतौर पर मैं पर्स ब्रीफकेस में रखता हूँ या फिर दराज़ में डाल देता हूं। नहीं तो क्रॉकरी रैक पर छोड़ देता हूँ। पर आज तो पर्स नदारद था। सोचा गाड़ी में तो नहीं रह गया पर वहाँ भी नहीं मिला। तो घटनाओं की कड़ियों को पीछे से जोड़ना शुरू किया। अंतिम बार पर्स घाट पर जाते समय पेंट की पिछली जेब में था। तो कहीं पेंट के साथ वाशिंग मशीन में तो नहीं चला गया! मशीन तो अपना वाशिंग साइकल पूरा कर कब से रुक चुकी थी। जल्दी से मशीन खोल कपड़े निकाले। जिसकी आशंका थी वही हुआ। पेंट के साथ उसकी पिछली जेब मे पड़ा पर्स भी धुल चुका था। कुछ पांच सौ के नोट थे जो गीले होकर एक दूसरे से चिपक गए थे। चंद पुराने नोट भी थे उनकी हालत तो बयां करने काबिल ही नहीं थी। दो डेबिट कार्ड, एक क्रेडिट कार्ड और ड्राइविंग लाईसेंस की भी हालत अच्छी नहीं थी। पर्स तो पूरी तरह से बूझी बन चुका था। पांच सौ के नोट तो इस्त्री कर सुखा लिए। पर अजीब तरह से कड़क हो गए हैं। पता नहीं चलेंगे या नहीं। कार्ड भी प्रयोग के बाद ही पता चलेंगे कि बदलने पड़ेंगे या नहीं।

समस्या थी पर्स की। इस समय पर्स कहाँ से लाया जाये। अचानक पापा के ब्रीफकेस की याद आई। पिछली बार उनके पुराने कागज़ात संभालते हुए एक Benetton का लेदर का नया पर्स डिब्बे में रखा देखा था। पापा कभी पर्स नहीं रखते थे। उनके पैसे उनकी शर्ट या पेंट की जेब में ही रहते थे। आई कार्ड के बीच में या पॉलीथिन में लिपटे हुए। उनका मानना था कि पिछली पॉकेट में रखा पर्स जेब कतरों को आकर्षित करता है। दुःख तब होता था जब इतनी सावधानी के बाद भी उनकी जेब से पैसे या तो गिर जाते थे या कोई बस में निकाल लेता था। पर वो पर्स कभी नहीं रखते थे। ये पर्स भी शायद उनकी पोती ने गिफ्ट दिया था जिसे उन्होंने बिना प्रयोग किये संभाल कर उसके ऑरिजिनल पैकिंग में रख छोड़ा था। शायद मेरे लिए! आज उनके जाने के इतने वर्ष बाद मुझे उस पर्स की ज़रूरत हुई तो मैंने निकाल लिया। पापा जहाँ कहीं भी होंगें जरूर खुश होंगे कि उनकी संभाल के रखी चीज़ आज मेरे काम आ ही गई। वह हमेशा अपनी चीज़े हमें दे कर खुश होते थे।