समय तो पंख लगा के उड़ गया। जल्द ही वो दिन आ गया जब पत्नी को रेलवे अस्पताल भर्ती करना पड़ा। वैसे वो ठीक थी बस डॉक्टर उसे अपनी निगरानी में रखना चाहते थे। ये 24 नवम्बर का दिन था। रात आठ बजे मैं पत्नी को अकेले डॉक्टरों के भरोसे छोड़ घर आ गया। शरीर घर पर था पर मन पत्नी के साथ अस्पताल में। उन दिनों फ़ोन की सुविधा आम नहीं थी। रेलवे का अपना नेटवर्क होता है। रेलवे कॉलोनी में रहने के कारण हमारे ऊपर वालों के क्वाटर में रेलवे फ़ोन लगा था। उसका नम्बर मैं पत्नी को दे आया था जिससे किसी आपातकाल में वो हमें संदेश दे सके।
रात के दो बजे होंगे कि हमारे दरवाज़े की घन्टी रात का सन्नाटा तोड़ती बज उठी। मैं हड़बड़ा कर उठा और दरवाज़ा खोला। सामने ऊपर वाले पड़ोसी थे। बोले,' क्या आपका कोई अस्पताल में भर्ती है?" मेरे हाँ कहने पर बोले, " आपके लिये अस्पताल से फोन है।"
सीढ़ियां चढ़ते मेरा मन किसी अनजानी आशंका से कांप रहा था। फ़ोन उठाने पर दूसरी तरफ से एक नर्स ने पहले मेरा नाम पूछ के पहचान पक्की की। फिर कहा, "बधाई हो। बेटी ने जन्म लिया है।" मैंने पूछा, "पत्नी कैसी है?" पर तब तक फोन रख दिया गया था। मेरा डर काफ़ूर हो गया। मज़बूत कदमों से नीचे उतरा। तब तक मां भी जाग गईं थीं। मैंने उन्हें सूचित किया। माँ ने कहा, "चल, अस्पताल चलना है।"
मैंने अपना बजाज सुपर निकाला। माँ को पीछे बिठा हम अस्पताल चल दिये। सड़को पर सन्नाटा बिखरा था। ईदगाह की चढ़ाई पर स्कूटर के साइलेंसर से एक एक कर कई पटाख़े फूटने जैसी जोर की आवाज़ हुई और स्कूटर बन्द हो गया। सड़क किनारे सोये कुत्ते भोंकते हुए हमारे चारों ओर आ डटे। जैसे तैसे हम अस्पताल पहुँचे तो ऊपर जाने का रास्ता सब तरफ़ से बंद था। आपातकालीन द्वार की तरफ से हम ऊपर पहुँचे। पत्नी को तब स्ट्रेचर पर वार्ड में ले जाया जा रहा था। पास लेटी थी एक नन्हीं परी, पतले पतले गुलाबी होंठ थे जिसके। मैंने पत्नी से पूछा, "ठीक हो?" वो हल्के से मुस्करा दी। उसकी फीकी सी मुस्कान बता रही थी कि वह दर्द में थी।
तीन दिन बाद उसे अस्पताल से छुट्टी दे दी गई। उस दिन जोर की बारिश से दिल्ली की सड़कें जल प्लावित थीं। पानी सुबह से बरस रहा था। थ्री व्हीलर पर उसे ले जाना मुझे उचित नहीं लगा। टैक्सी बुक कर मैं अपने स्कूटर के साथ पोर्च में ले आया। मेरी छोटी बहन की गोद में मेरी बिटिया थी। अस्पताल की सीढ़ियां उतरते हुए मेरी बहन के कदम लड़खड़ाए और उसकी गोद से नवजात शिशु छिटकते हुए बचा। एक घड़ी को मेरा कलेजा मुँह को आ गया। टैक्सी के पीछे मैं अपने स्कूटर को चलाते हुए, माँ और बच्चे को घर ले आया। घर आते आते मैं पूरी तरह से भीग गया था। पर संतोष था कि माँ और बेटी सुरक्षित थे।
आज इस बात तो 32 वर्ष हो चुके हैं। मेरी बेटी अब एक और प्यारी सी बेटी की माँ है। आज उस का जन्मदिन है। मुझे लगा कि उसके जन्म की कहानी से अच्छा और क्या तोहफ़ा हो सकता है इस दिन पर देने के लिए।
बड़ी बेटी के जन्म की घटनाएं भी मेरे मानस पटल पर साफ़ साफ़ अंकित हैं। उसके अगले जन्म दिवस पर उसे उसके जन्म की कहानी सुनाऊँगा।