Monday, 12 October 2015
अजमेर जाते हुए
Sunday, 11 October 2015
चुंबक - शेष भाग
'अशुए आज तो बहुत अच्छे पैर दबा रहा है' नाना जी ने कहा। मैं रोज़ रात नानाजी के पैर दबाता था और नाना जी मुझे दस पैसे देते थे।
'नाना जी मुझे चार आने चाहिए'मैनेँ कहा ।
'क्या करेगा?'
'गुल्लक मेँ डालूँगा'
नाना जी ने मुझे चार आने दे दिए। रात भर मैं सो न सका। कब सुबह हो और कब मेँ स्कूल जाऊँ। अगले दिन बद्र्री स्कूल नहीँ आया। अगले दो तीन दिन भी वो नहीं आया। मेरी उत्सुकता बढ़ती ही जा रही थी।
अगले सोमवार बद्री स्कूल आया। वो बीमार हो गया था। मैनेँ उसे बताया कि पच्चीस पैसे के सिक्के का इंतज़ाम हो गया है।
उसने कहा ठीक है आज छुटी के बाद चुंबक बनाने चलेंगे। समय पर छुटी हुई। पर आज मैं घर नहीं जा रहा था। आज मेरा गंतव्य था सड़क पार दिल्ली मथुरा रेलवे लाइन। बद्री ने मुझे अभी तक ये नहीं बताया था कि चुम्बक बनेगी कैसे? मैं बार बार अपनी जेब मेँ रखे पच्चीस पैसे के सिक्के को चेक करता जाता था। एक हाथ मेँ तख्ती और एक कंधे पर बस्ता। जूतों से पत्थरों को ठोकर मारते हुए हम बढे जा रहे थे । मानो किसी बड़े मिशन पर निकले हों।
रास्ते मेँ बद्री ने एक बड़ी सी कील उठा ली थी।
थोड़ी ही देर मेँ हम रेल पटरियों पर थे। इस स्थान पर पहुँच कर बद्री ने अपना बस्ता और तख्ती नीचे रख दी। मैनेँ भी वैसा ही किया। बद्री ने मुझसे सिक्का माँगा और एक स्लीपर पर रख कर कील की सहायता से बीच मेँ एक छेद करने लगा । एक बड़े पत्थर से वो कील ठोकने लगा। पर ये आसान नहीं था। कील बार बार मुड जाती थी। वो उसे ठोक कर सीधा करता और फिर से कोशिश करता। काफी देर में एक बारीक़ सा छेद बड़ी मुश्किल से हो पाया।
'अब एक बारीक़ तार ढूंढना होगा', उसने कहा। इतने में साथ वाली पटरी पर एक गाडी आती दिखी। ड्राईवर लगातार हॉर्न दे रहा था। बद्री की झुग्गी पटरियों के पार थी। वो रोज पटरियां पार करके स्कूल आता जाता था। उसके लिए ये कोई नई बात नहीं थी। उसने मेरा हाथ पकड़ कर दूर कर दिया। तेज गति से गाड़ी धड़धड़ाती हुई निकलने लगी। एक तेज हवा के झोंके के साथ पटरियों के किनारों पर पडा कूड़ा करकट का गुबार साथ उड़ता हुआ आया।
मैनेँ पहली बार इतने पास से गाड़ी को जाते देखा था। काले रंग का इंजन राक्षस सा लगता था। देखते देखते गाड़ी निकल गई और पीछे रह गया सन्नाटा। बद्री ने साथ पड़े कचरे मेँ तार ढूंढनी शुरू की। जल्द ही उसे तार मिल गई। उस तार को उसने छेद से सिक्के में पिरो दिया। और उस को एक पटरी पर ऐसे बाँध दिया जिससे सिक्का पटरी पर रहे। ऐसा करके उसने ऐसा जताया जैसे बहुत बड़ा काम पूरा करा हो।
'बस अब हमें इधर से आने वाली गाड़ी का इंतज़ार करना है। इंजन इस पर से गुज़रा और यह सिक्का चुम्बक बना' उसने कहा।
'पर गाड़ी कब आयगी', मैं चिंतित था। हमारी स्कूल की छुटी हुए करीब दो घंटे हो चुके थे। चुंबक का अभी कुछ पता नहीं था।
बद्री को शायद सारे तरीके मालूम थे। वो कान लगाकर पटरी पर लेट गया।
'ये क्या कर रहा है।',मैनेँ पूछा।
'दूर से आती गाड़ी की आवाज पटरी पर पहले आ जाती है। वोही सुन रहा हूँ'. उसने कहा।
मुझे भी उत्सुकता जगी। दोनों तरफ देखा । दूर दूर तक कोई गाड़ी नहीं थी। मैं पटरी के बीच मेँ लेट गया।एक कान पटरी से सटा कर सुनने लगा कि कोई आवाज आ रही है। थोड़ी देर मैँ ऐसे ही एक करवट लेटा रहा। तभी किसी ने पीछे से मेरा कॉलर पकड़ कर मुझे खड़ा कर दिया। बद्री का कँही पता नही था। शायद वो उस आदमी को आते देख बस्ता तख्ती ले कर भाग चुका था जिसने मुझे खड़ा किया था।
'मरने आया है?'उसने पूंछा।
मैंने अपने आप को उसकी पकड़ से छुड़ाने की कोशिश की।
उसने फिर पूंछा,'यँहा क्यों लेटा था। देखने से तो अच्छे घर का लगता है। रहता कँहा है?' उस ने कई सवाल दाग दिए।
'तुम्हें क्या? छोड़ो मुझे'। मैनेँ कहा।
'एक तो गलत काम करता है ऊपर से जबान लड़ता है' कहते हुए उसने एक तमाचा जड़ दिया।
मैनेँ झटक कर खुद को छुड़ाया। बस्ता तख्ती उठाई और भाग छुटा।
'छोड़ देते हैं माँ बाप मरने के लिए'। भागते भागते मैनेँ उसे चिल्लाते सुना। मुझे बद्री पर गुस्सा आ रहा था। पता नहीं कँहा भाग गया ।
स्कूल की तरफ आते आते मासी मिल गई। बदहवास सी वो पता नहीं कब से और कँहा कँहा मुझे ढूंढ रही थी।
मुझे देखते ही उन्होंने मुझे पकड़ा और नीचे बैठ गईं जिससे हम आमने सामने देख कर बात कर सकें।
"कँहा गया था। पता है मैं कब से ढूंढ रही हूँ। स्कूल कब का बंद हो चुका है। और ये किसने मारा है?" मेरे आरक्त गाल को देखते हुए उन्होंने पूंछा।
"तू आज घर चल। नाना जी को आने दे । आज तेरी वो ही खबर लेंगे।" मासी रोती जाती थी और बोलती जाती थीं।
मुझे लगभग घसीटते हुए वो घर ले आयीं। आ कर मेरे हाथ पैर बांध कर कमरे मेँ बंद कर दिया।
"आज कोई खाना नहीं मिलेगा। और शाम को नानाजी आ कर ही खोलेंगे तुझे।"उन्होंने आदेश सुनाया और बाहर से दरवाजा बंद कर दिया।
मेरा ध्यान तो चुम्बक मेँ ही पड़ा हुआ था। कल बद्री से बोलूंगा तो उठा लाएगा वँहा से। सोचते सोचते मैं सो गया था।
शाम होने से पहले पहले गुस्सा ठंडा होने पर मासी को मुझ पर तरस आया तो बंधन खोल कर कपडे बदलने पर खाना दिया। पर मैँने गुस्से मेँ कुछ नहीं खाया। सोच रहा था नानाजी को क्या बताऊंगा।
नानाजी फैक्टरी मेँ डाई बनाने का काम करते थे। सफ़ेद पेंट और कड़क सफ़ेद कमीज पर काले चमकते जूते और बेल्ट पहन कर आते हुए कोई भी उन्हें दूर से पहचान सकता था। उनके कई शागिर्द थे जो इनसे डाई बनाना सीखते थे। उन्हें बागवानी का बड़ा शौक था। मैं उनके साथ गमले तैयार करता था। बकरी की मिंगणियो को सुखा के ,कूट कर खाद तैयार करने का काम मेरे जिम्मे था। पौध लगाते ही मुरझा जाती थी।पर सुबह तक एक दम सीधी खड़ी हो जाती थी।
नाना जी कहते थे कि जड़ में हवा और धूप नहीं लगनी चाहिए।
उस दिन भी नाना जी सदा बहार की पौध लाने वाले थे। शाम को नाना जी सदा बहार की पौध ले कर आये। हाथ मुँह धो कर आँगन में खाट पर बैठ गए। मैं इंतज़ार मेँ था कि अब मेरी शिकायत होगी। पर तभी नाना जी का कोई मिलने वाला आ गया। वे दोनों बाहर बैठ कर बातें करने लगे। मैं भी बाहर आकर पौध के लिए गमला ठीक करने लगा। तभी मेरी दृष्टि उस व्यक्ति पर पड़ी। ये तो वो ही था जिसने मुझे पटरियों पर से उठाया था। ये यँहा कैसे आ गया? मैं अंदर जा पाता पर उसने मुझे देख ही लिया।
"ये लड़का कौन है?" उसने पूछा।
"ये मेरा नाती है। मेरी बड़ी बेटी का सबसे बड़ा बेटा। आजकल मेरे पास ही है।" नाना जी के स्वर में गर्वोक्ति थी।
" ये आपका नाती है!"उसने व्यंगात्मक तरीके से कहा।
"हाँ। क्या हुआ?" नाना जी समझ नहीं पा रहे थे कि उसने ऐसे क्यों पूछा।
"इससे पूछिये कि ये रेल की पटरियों पर क्यों लेटा था"।
"अरे नहीं। तुम्हें कोई गलतफहमी हुई है। इसे तो रास्ता ही बस स्कूल तक का पता है। वो कोई और होगा।" नाना जी ने विश्वास से कहा।
"मुझे कोई गलती नहीं लगी है। मैनेँ इसे मारा भी था। आप इससे ही पूछिये न" उसने कहा।
"विमल" नानाजी ने मासी को बुलाया।
"ये आज स्कूल से कब आया?", उन्होंने पूछा और मासी ने सारी बात बता दी।
नानाजी का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। "सूअर"-ये उनकी पसंददीदा गाली थी। मैनेँ कभी और कोई गाली उनके मुँह से नहीं सुनी।"तू यँहा आ"। मैं आकर खड़ा हो गया।
"तू रेल पटरियों पर लेटा था"उन्होंने सीधा सवाल किया।
मैं क्या कहता। अपराध बोध से सिर झुकाये खड़ा था।
फिर जो पिटाई हुई अभी तक याद है। पहले हाथों से, फिर कुछ नहीं मिला तो पास पड़े छाते से-खूब मारा।
दो चार छाते तो उस व्यक्ति पर भी पड़ गए होंगे जो मुझे छुड़ाने आया था।
"बस करो गुरूजी। मार ही डालोगे क्या"कहते हुए वो मुझे बचाने का प्रयत्न कर रहा था।
"तुम बीच मेँ मत पड़ो। इसके इतने पर निकल आये कि ये पटरियों पर चला गया। इसे कुछ हो गया तो इसकी माँ को क्या जवाब दूंगा।"
"विमल!कल ही इसकी माँ को तार दो कि इसे आकर ले जाये। हमसें नहीं संभलता ये अब" उन्होंने मासी को आदेश दिया।
रात को हम तीनों में से किसी ने खाना नहीं खाया।मैं कब रोते हुए सो गया पता नहीं। सुबह सारा बदन दुःख रहा था। बाहर आकर देखा तो नानाजी फेक्टरी जा चुके थे। सदा बहार की पौध पड़ी पड़ी मुरझा गयी थी।स्कूल कब का लग चुका था।पर मुझे नहीं भेजा गया था।
मासी ने कुछ खाने को दिया। और हल्दी वाला दूध पिलाया।
माँ उस दिन बहुत याद आई। कभी कभी जब पापा मारते थे तो वो अपने पल्लू मेँ छिपा लेती थी।उसकी साडी की महक और गोद यँहा कँहा थी। माँ होती तो इतना थोड़ी पिटने देती।अच्छा है ये मुझे माँ के पास ही भेज दें। मुझे भी नहीं रहना यँहा।
शाम को नाना जी आये। मुझे बहुत प्यार से अपनी गोद मेँ बिठाया और पूछा,"तू पटरियों पर क्यों गया था।और गया भी था तो उन पर लेटा क्यों।"
मैनेँ सारी बात उनको बता दी। उन्होंने प्यार से एक चपत लगाया और बोले,"बस इतनी सी बात थी। तो मुझे क्यों नहीं बताया? अच्छा मैं तझे चुम्बक ला दूंगा।पर एक वादा करना होगा - अब तू कभी भी पटरियों की तरफ नहीं जायगा।और स्कूल से सीधा घर जायेगा।"
मैनेँ कहा "ठीक है"
अगली शाम नाना जी एक नहीं दो दो छोटी आयताकार चुम्बक ले कर आये। उन्हें पास पास लाते तो वो दूर भागतीं। फिर पलट कर पास लाओ तो झट से चिपक जाती।
मेरी ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं था। आज मानो मुझे दुनियां का सबसे बड़ा खज़ाना मिल गया था।
"मेरे सबसे अच्छे नाना जी"कहते हुए मैं उनसे लिपट गया और वो प्यार से मेरा सर सहलाते रहे।
Wednesday, 7 October 2015
चुम्बक -1
वर्ष 1965 - भारत पाक सीमा पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। पापा का तबादला जोधपुर कर दिया गया। आदेश था तुरन्त ज्वाइन करो। माँ नहीं चाहती थी कि ऐसे हालात मेँ पापा अकेले जाएं। न चाहते हुए भी पापा, माँ की ज़िद से साथ ले जाने को मान गए। मैं बड़ा था। मुझसे डेढ़ साल छोटा एक भाई था। समस्या थी -बच्चों का क्या करेँ। पूरा जोधपुर पाक के निशाने पर था। सारे शहर मेँ खाइयां खोद दी गईं थी। शाम होते ही पूरा शहर अंधकार मेँ ड़ूब जाता था। जैसे ही पाकिस्तानी जहाज़ आते सायरन गूंज उठता। लोग सारे काम छोड़ कर खंदकों में शरण ले लेते। ऐसे मेँ बच्चों को साथ ले जाना कितना उचित रहेगा। फैसला हुआ कि छोटा साथ जायेगा। और बड़े को यानि मुझको मेरी मासी जिनकी शादी नहीं हुई थी और जो नाना के साथ फरीदाबाद मेँ रहती थीं, उनके पास छोड़ा जायगा। यदि परिवार को जोधपुर मेँ कुछ हो जाता है तो एक तो बचेगा। और इस तरह सात वर्ष का मैं पहुचं गया फरीदाबाद -माता पिता से 700 किलोमीटर दूर। हालाँकि नाना के प्यार मेँ कोई कसर नहीं थी पर माँ बहुत याद आती थी। नानी तो मैनेँ देखी ही नहीं थी।
फरीदाबाद मेँ मैं साल भर रहा पर इस साल भर मेँ मैनें जो कारनामे किये आजकल के बच्चे शायद पूरे बचपन मेँ न कर पाएं।सारी यादें अभी भी ताज़ा है। ऐसे ही एक कारनामे का आज उल्लेख कर रहा हूँ।
मेरा दाखिल बाटा चौक पर स्थित एक स्कूल मेँ करा दिया गया था। हमारी क्लास एक पेड़ के नीचे लगती थी। और 'सूत' बहनजी हमारी क्लास टीचर थी। बहुत बाद मेँ मैनेँ जाना कि उनका सरनेम 'सूद'रहा होगा। हम पढ़ते तो कम थे टिड्डे ज्यादा उड़ाते थे। ज़मीन पर टाट पट्टी पर हम पेड़ के नीचे बैठा करते थे। सामने दिल्ली - मथुरा हाईवे था। बीच में एक नाला पड़ता था जो स्कूल को हाईवे से अलग करता था। घर से हम पेचक ले आते थे और जैसे ही कोई टिड्डा पास आकर बैठा हम धीरे से धागे का फंदा उसकी पूँछ मेँ कस देते । जैसे टिड्डा उड़ता हम पेचक खोलते जाते। जब मन होता धागा खींच कर टिड्डे को पास ले आते। यह एक मनोरंजक खेल था। और हम पढ़ाई से ज्यादा इसे खेला करते थे।
मेरी क्लास में एक लड़का बद्री पढ़ता था। वो रेल की पटरी पार झुगियों में रहता था। अत्यंत गरीब। पर मेरा अच्छा दोस्त था।मैं अपने मन की बात बद्री से ही करता था। इन्हीं दिनों मेरा चुम्बक से परिचय हुआ था। चुम्बक के गुणों से मेरा बाल मन इतना प्रभावित हुआ कि मैं रात दिन चुम्बक के बारे मेँ ही सोचता रहता। वो मेरे लिए किसी जादुई वस्तु से कम नहीं थी। और बस मुझे चुम्बक का एक टुकड़ा चाहिए था -जैसे भी। पर मिलेगा कँहा से? मैनेँ यह दुविधा बद्री को बताई।
"बस इतनी सी बात। मुझे चुम्बक बनानी आती है" ,वो बोला।
"सच। कैसे?"
"एक पच्चीस पैसे का सिक्का चाहिये",उसने कहा।