Wednesday, 7 October 2015

चुम्बक -1

वर्ष 1965 - भारत पाक सीमा पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। पापा का तबादला जोधपुर कर दिया गया। आदेश था तुरन्त ज्वाइन करो। माँ नहीं चाहती थी कि ऐसे हालात मेँ पापा अकेले जाएं। न चाहते हुए भी पापा, माँ की ज़िद से साथ ले जाने को मान गए। मैं बड़ा था। मुझसे डेढ़ साल छोटा एक भाई था। समस्या थी -बच्चों का क्या करेँ। पूरा जोधपुर पाक के निशाने पर था। सारे शहर मेँ खाइयां खोद दी गईं थी। शाम होते ही पूरा शहर अंधकार मेँ ड़ूब जाता था। जैसे ही पाकिस्तानी जहाज़ आते सायरन गूंज उठता। लोग सारे काम छोड़ कर खंदकों में शरण ले लेते। ऐसे मेँ बच्चों को साथ ले जाना कितना उचित रहेगा। फैसला हुआ कि छोटा साथ जायेगा। और बड़े को यानि मुझको मेरी मासी जिनकी शादी नहीं हुई थी और जो नाना के साथ फरीदाबाद मेँ रहती थीं, उनके पास छोड़ा जायगा। यदि परिवार को जोधपुर मेँ कुछ हो जाता है तो एक तो बचेगा। और इस तरह सात वर्ष का मैं पहुचं गया फरीदाबाद -माता पिता से 700 किलोमीटर दूर। हालाँकि नाना के प्यार मेँ कोई कसर नहीं थी पर माँ बहुत याद आती थी। नानी तो मैनेँ देखी ही नहीं थी।

फरीदाबाद मेँ  मैं साल भर रहा पर इस साल भर मेँ मैनें जो कारनामे किये आजकल के बच्चे शायद पूरे बचपन मेँ न कर पाएं।सारी यादें अभी भी ताज़ा है। ऐसे ही एक कारनामे का आज उल्लेख कर रहा हूँ।

मेरा दाखिल बाटा चौक पर स्थित एक स्कूल मेँ करा दिया गया था। हमारी क्लास एक पेड़ के नीचे लगती थी। और 'सूत' बहनजी हमारी क्लास टीचर थी। बहुत बाद मेँ मैनेँ जाना कि उनका सरनेम 'सूद'रहा होगा। हम पढ़ते तो कम थे टिड्डे ज्यादा उड़ाते थे। ज़मीन पर टाट पट्टी पर हम पेड़ के नीचे बैठा करते थे। सामने दिल्ली - मथुरा हाईवे था। बीच में एक नाला पड़ता था जो स्कूल को हाईवे से अलग करता था। घर से हम पेचक ले आते थे और जैसे ही कोई टिड्डा पास आकर बैठा हम धीरे से धागे का फंदा उसकी पूँछ मेँ कस देते । जैसे टिड्डा उड़ता हम पेचक खोलते जाते। जब मन होता धागा खींच कर टिड्डे को पास ले आते। यह एक मनोरंजक खेल था। और हम पढ़ाई से ज्यादा इसे खेला करते थे।

मेरी क्लास में एक लड़का बद्री पढ़ता था। वो रेल की पटरी पार झुगियों में रहता था। अत्यंत गरीब। पर मेरा अच्छा दोस्त था।मैं अपने मन की बात बद्री से ही करता था। इन्हीं दिनों मेरा चुम्बक से परिचय हुआ था। चुम्बक के गुणों से मेरा बाल मन इतना प्रभावित हुआ कि मैं रात दिन चुम्बक के बारे मेँ ही सोचता रहता। वो मेरे लिए किसी जादुई वस्तु से कम नहीं थी। और बस मुझे चुम्बक का एक टुकड़ा चाहिए था -जैसे भी। पर मिलेगा कँहा से? मैनेँ यह दुविधा बद्री को बताई।

"बस इतनी सी बात। मुझे चुम्बक बनानी आती है" ,वो बोला।

"सच। कैसे?"

"एक पच्चीस पैसे का सिक्का चाहिये",उसने कहा।

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