शताब्दी से अजमेर जा रहा हूँ।सुबह जल्दी उठा था। गाड़ी चलते ही सो गया था। अभी कुछ देर पहले उठा हूँ। सामने अरावली पर्वत की न खत्म होने वाली श्रंखला चली जा रही है। इन्हें ध्यान से देखो तो प्रकृति एक आश्चर्य प्रतीत होती है। पर्वत पृथ्वी का विशाल वक्ष स्थल है जो इसे अप्रितम सुंदरता प्रदान करता है। साथ मेँ सामने हाई पॉवर टेंशन वायर चले जा रहे हैं। थोड़ी थोड़ी दूर पर बड़े बड़े विशालकाय भुजा फैलाये खम्बे खड़े है इन तारों को सम्भाले हुए।
उसके बाद खेत ही खेत है। ज़्यादातर खेतो मेँ कपास लगी है। फसल पक गयी है और सूखी टहनियों में सफेद कपास के गुच्छे लगे हैं। किन्हीं किन्हीं खेतो में हरी पौध भी है पर क्या लगा है पता नहीं पड़ता। चलती गाडी से लगता है कि खेतों के बीच लगे पेड़ भी घूमते हुए चल रहे हैं। बिलकुल पास एक समान्तर पटरी भी दौड़ी जा रही है। जानता हूँ कि पटरी नहीं चल रही है पर फिर भी चलती प्रतीत हो रही है। जब कोई स्टेशन आने वाला होता है तो कई नई पटरियां मेरी ट्रेन के नीचे से प्रगट होती है और फिर उसीमें समा जाती है। रह जाती है वो ही एक समान्तर पटरी जो शुरू से मेरे साथ चल रही है। ठीक वैसे ही जैसे सम्पूर्ण संसार ब्रह्म से उत्प्पन हो कर क्रीड़ा कर फिर उसी ब्रह्म मेँ लींन हो जाता है और शेष रह जाता है ब्रह्म। कँही कँही जब गाँव आ जाता है तो खपरैल की छत वाली झोपड़ियां दृष्टि गोचर हो आती हैं। किसी किसी गाँव में पक्के मकान भी दिख पड़ते है। कोई छोटा स्टेशन निकला है अभी। स्टेशन मास्टर खड़ा हो कर हरी झंडी दिखा रहा है और ट्रेन अपनी गति से भागी जा रही है। मानो कोई मद मेँ चूर अमीर घमंडी व्यक्ति किसी गरीब की आव भगत को ठुकराते हुए निकल गया हो। मै किसी ऐसे ही छोटे स्टेशन का स्टेशन मास्टर बनने का सपना देखा करता था। पर सपने तो सपने ही होते है। मेरे भाग्य मेँ तो दिल्ली जैसा महा नगर लिखा था जँहा सब अजनबी ही रहते हैं। अलवर आ रहा है । नाश्ता भी परोस दिया गया है। लेखनी को यंही विराम देता हूँ।
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