Sunday, 31 July 2016

हरियाली तीज - तब और अब

एक मित्र ने फेस बुक पर लिखा, हरियाली तीज सन्निकट है।  और याद किया उन लमहों को जब बचपन में कांच की चूड़ी दूसरे की हथेली पर तोड़ कर आपस का प्रेम परखा जाता था। आज के बच्चे तो शायद इसे मजाक समझेंगे, पर हमारे बचपन में हम इस परिणाम को गंभीरता से लेते थे। जितना कांच गिरा उतना ही अघिक प्रेम माना जाता था।

जैसा मैंने पहले लिखा, हरियाली तीज से उत्सवों का प्रारंभ होता था जो कुछ कुछ अंतराल के बाद भाई दूज पर जाकर समाप्त होता था।

हरियाली तीज पर धरा चंहु और हरित हो उठती थी, मानो प्रकृति सज रही हो। जब मन किशोर अवस्था का हो तो सब और उत्सव ही उत्सव लगता है। माँ लहरिये की साड़ी पहनती थी। सड़क पर माँ की एक सखी रहती थी। दोनों सखियाँ मिल कर शाम को यमुना किनारे बने बाग़ में जाती थी, और साथ होता था मैं। आम, जामुन और अमरुद के वृक्षों से भरे इस बाग़ में आम की किसी मज़बूत डाल पर मोटी रस्सियों से पटरी वाले झूले पड़े होते थे। रंग बिरंगे परिधानों से सजी महिलाएं दो दो के जोड़ो में इन झूलों पर बैठती, एक दूसरे के आमने सामने, एक दूसरे की पटरी पर पैर लगा के। और फिर बढ़ती पींगे हवा में। पेड़ की मोटी डाल भी लचक जाती। चुड़ियों की खनक और पाजेब की झनक के साथ, पींगे बढ़ाते हुए जब महिलाएं उच्च सम्मिलित स्वर में लोक गीत गाती, तो सारा समा झूम उठता। हवा में लहराता साडी का पल्लू एक स्वप्निल संसार रच देता।
मुझे तो यह डर सताता था कि अगर डाल टूट गई तो माँ गिर जायगी। इसी डर के चलते मैं इस सब का आनंद नहीं ले पाता था।जब सूरज पश्चिम दिशा में आने लगता, पूरा बाग़ पक्षियों के कलरव से गूंज उठता। तब हम घर लौटते थे।

कई दिन का यह झूल उत्सव समाप्त होता था तीज वाले दिन।
मेहँदी रचाई जाती, महावर लगाई जाती और तीज के सिंजारे में मिठाइयाँ और पकवान आते। पकवानों में घेवर का स्थान अवश्य होता था। मुझे याद है फ़ीकी फेनी भी लाई जाती थी।
रच बस के त्यौहार मनाया जाता था। श्रावण माह में आकाश मेघों से आच्छादित रहता था। चंहु और सीला सीला सा वातावरण। कभी कभी मेघ गरज़ उठते। तो कभी मूसलाधार बरस जाते। ऐसे में हरियाली तीज का त्यौहार एक सुखद अनुभूति छोड़ जाता था।

आज न तो महिलाओं के पास समय है और न ही वो चाव। बच्चे भी मोबाइल, इन्टरनेट और लैपटॉप में उलझे हैं। उत्सव अपनी महत्ता खो चुके हैं। तीज मेलो तक सिमट गई है हरियाली तीज। बस नाम मात्र की औपचारिकता रह गई है। मुझे लगता है हमारी पीढ़ी के साथ वह भी समाप्त हो जायेगी। आज हम बच्चो को मंडे, ट्यूसडे तो याद करा देते है पर तिथि का ज्ञान नहीं देते। जनवरी, फरवरी की स्पेलिंग तो रटा देते है पर  आषाढ़, श्रावण माह नहीं बताते। बी सी, ए डी तो समझा देते हैं, विक्रम संवत नहीं बताते। जरूरत है हम अपने त्योहारों का महत्व जानें और इन्हें पुनः पुराना रंग रूप दें। विरासत में हमें ये उत्सव, ये परम्परा भी  तो देनी  हैं आने वाली पीढ़ी को। हम नहीं देंगे तो कौन देगा?

Thursday, 14 July 2016

चूहों का विवाह

इन दिनों हमारे घर में कुछ उत्पाती घुस गए हैं। उत्पाती भी ऐसे की आप कंही शिकायत भी दर्ज नहीं करा सकते। पहले तो रात में मैन गेट ही बंद करते थे पर अब तो किचन  और ड्राइंग रूम के दरवाजे भी बंद करने पड़ते हैं। पर उत्पाती हैं कि रात भर उत्पात मचाते हैं। कल रात को किचन में गया तो पाया दो मोटे मोटे चूहे एक दूसरे के पीछे दौड़ लगा रहे थे। एक तो बाहर लॉबी में भाग गया। दूसरे की खोज में मैंने उनींदी आँखों से गैस सिलिंडर के पास तलाशा तो नहीं मिला। अभी तो यंही घुसा था। कँहा गायब हो गया! मैंने गैस सिलिंडर बाहर खींचा। नीचे झुक कर देखा। कंही नहीं था। तभी सिलिंडर की नोब के पास नज़र गई। दो मासूम सी छोटी गोल गोल आँखों से वो मुझे ताक रहा था। मानो कह रहा हो इतनी रात गए हमारे क्षेत्र में अनाधिकार प्रवेश का क्या मतलब है। उसकी मोटी लंबी पूंछ सिलिंडर से नीचे लटक रही थी। दोनों कान हिला कर टुकुर टुकुर मुझे ताक रहा था। डर तो कंही उसकी आँखों में था ही नहीं। मैं कुछ करता इससे पहले उसने मुझ पर छलांग लगाई और सिंक के नीचे वाले हिस्से में घुस कर अदृश्य हो गया। मैंने सिलिंडर यथा स्थान सरकाया, लाइट बुझाई और किचन का दरवाजा बंद करके आ गया, जिससे वो बाहर नहीं आ सके। सुबह पत्नी ने देखा लकड़ी का बुरादा किचन के दरवाजे पर बिखरा पड़ा था। गुस्से में आकर उसने दरवाजा ही कुतर दिया।

अब तो यह नित्य का नियम हो गया है। दिन हो या रात आपको गणेश जी के इस वाहन के कंही न कंही दर्शन हो ही जायेंगे। बेटी के विवाह में गणेश जी को न्योता था। पत्नी का कहना है कि विदा नहीं किया इसीलिये प्रभु ने अपने वाहन को हमारे यँहा भेज दिया। कि जाओ, खूब उत्पात करो। प्रभु बिना वाहन के क्या कर रहे होंगे! यँहा ये मूषक तोरई जैसी सब्ज़ी भी खाये जा रहे हैं। पत्नी परेशान है , खाने का सामान कँहा उठा कर रखे!

मुझे तो लगता है कि जब से आई जी एल ने ये गैस की पाइप लाइन डाली है तब से यह उत्पात बढ़ा है। पूरी कॉलोनी में इन्हें तो बे रोकटोक आने जाने का लाइसेंस मिल गया है। चौथी मंजिल से ग्राउंड फ्लोर तक ये तो इस पाइप के सहारे उतर आते हैं। और फिर चढ़ जाते है। किचन का एक्सहॉस्ट इन्हें अंदर आने का रास्ता देता है। आप कँहा तक इनका पीछा करोगे।

मुझे कुछ समय पहले राजधानी ट्रैन का किस्सा याद आ रहा है। रात के 10 बजे ट्रैन चलने को तैयार थी, कि लोअर साइड बर्थ पर बैठी लड़की जोर से चिल्लाई और उछल कर खड़ी हो गई। " भय्या, यँहा चूहा है। " उसने घबराते हुए अटेंडेंट को कहा जो बिस्तर बाँटने में व्यस्त था। "तो मैं क्या करूँ? " उसने उदासीनता से उत्तर दिया। मुझे लग रहा था कि ये तो उसके लिए कोई नई बात नहीं थी।

वो लड़की लगी भारतीय रेल को कोसने । मुझे लगा कि वो मुझे ही कोस रही है। इतने वर्षों की भारतीय रेल की सेवा  के पश्चात ये अभिन्नता स्वाभाविक है। मैं उठ कर उसकी बर्थ तक गया और उसे आशवस्त किया कि चूहा अब जा चुका है। पर वो बर्थ पर जाने को तैयार नहीं थी। मैने अटेंडेंट से कह कर पेस्ट कंट्रोल वाला बुलाया और कोच में दवा का  छिड़काव कराया।

भारतीय रेल चूहों के बिना अधूरी है। और राजधानी जैसी ट्रैन , जँहा मटर पनीर और चिकन पेट भरने को मिले , वँहा ये चूहे क्यों न हों। धड़ल्ले से वातानुकूलित ट्रैन में सफर करते हैं, और वो भी बिना टिकट। मज़ाल है कोई पकडे। और जब इतना सक्षम तंत्र फेल है तो मुझ गरीब की क्या औकात जो इन पर नियंत्रण कर पाऊँ।

पर हर पत्नी का ये अधिकार है कि पति को ऐसा काम दे जिसे वो कर न पाए। बोलीं, "मुझे नहीं पता, पिंजरा लगाओ और इन्हें पकड़ो।" पर उन्हें क्या पता कि पिंजरे को तो ये खूब पहचानते हैं। उसमें लगे खाने की तरफ तो झांकते भी नहीं। जब बाहर भरपूर मिल जाये तो रूखे सूखे की तरफ कौन जायेगा। मैं तो सोच रहा हूँ एक खूबसूरत ही चुहिया पिंजरे में बाँध दूँ। मुझे तो इनकी पूरी फौज क्वारी लगती है। विवाह के लिए प्रस्ताव लेकर तो पिंजरे में जायँगे ही। पर इनका कुछ ठीक नहीं है। हो सकता है बाहर से ही प्रेम निवेदन कर दें।

दूसरा उपाय हिंसक है। और मैं हिंसा में विश्वास नहीं रखता। इस उपाय में तरीका कोई भी हो, नतीजा मूषक की दर्दनाक मौत ही होती है। मेरा मानना है कि प्रभु की रची दुनियां में ये जीव भी हैं। ये कँहा जायें? आखिर इन्हें भी तो जीने का अधिकार है। अभी मुम्बई में इनका इतना उत्पात है कि सरकार एक चूहा मारने के 18 रूपये दे रही है। पुराना रेट 10 रुपया प्रति चूहा था पर इस रेट पर रैट मारने को कोई तैयार नहीं था। तो सरकार ने रेट बढ़ाये। अखबार की माने तो नगर पालिका के कर्मचारी रात में लाठी और टोर्च लेकर इस अभियान में लगे हुए देखे जा सकते हैं।

मुझे तो इतने में ही संतोष है कि हम जूनागढ़ वासियों से तो कंही अच्छे है। यँहा तो रात में उठने पर चूहे ही दीखते है, वँहा तो छह छह शेर कॉलोनी में घूमते दीखते है। कल्पना करता हूँ कि रात में बॉलकोनी में आता हूं और देखता हूं कि शेर वँहा पसरा हुआ है। न तो वापस जाने का रहा न ही खड़े  रहने का ! किसी ने पूंछा, कि जंगल में शेर मिल जाये तो आप क्या करेंगे? सामने वाला बोला, मैंने क्या करना है! जो कुछ करेगा शेर ही करेगा ।

इससे तो इन मूषकों की फ़ौज भली। कम से कम आप कुछ कर तो सकते है। और कुछ नहीं तो डरा कर भगा तो सकते हैं।  सोचता हूँ, शायद कोई बांसुरी वाला मिल जाये जो इन्हें लेकर मजनू के टीले तक छोड़ दे।  या फिर ये चूहे ही विवाह के बंधन में बंध जाये। फिर तो भीगी बिल्ली बन सब उत्पात छोड़ ही देंगे। तब तक तो ये उत्पात जारी रहेगा।

Sunday, 3 July 2016

मानसून की दूसरी बारिश

आखिर दिल्ली में मानसून आ ही पंहुचा। आषाढ़ समाप्ति पर है और सावन तैयार खड़ा है। पर मानसून एक्सप्रेस तो दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म पर आ चुकी है। रविवार का अलसाया सा दिन सो कर निकल गया। शाम सोचा कुछ बाज़ार जाया जाय। अभी वापस आ कर ही बैठा था कि बूंदों की सुर ताल शुरू हो गई। रसोई की खिड़की से दिख तो कुछ नहीं रहा था, बस आवाज से पता लग रहा था कि वर्षा हो रही है। बस अपने पसंद दीदा स्थान बॉलकोनी में कुर्सी लगाई और आ बैठा। बर्षा की बूंदे नृत्य करते हुए धरा पर आ रही थी और प्यासी धरा जी भर के तृप्त हो रही थी। दिन भर की तप्त दीवारों से जो सोंधी महक उठ रही थी, मुझ में आ समा रही थी। ये वो ही महक है जो बचपन में सूंघने के लिए मैं तप्त डोलियों पर शाम को पानी का छिड़काव किया करता था। आम के पत्तों से फिसल कर बूंदे नीचे गिर रही थी। नए आये लाल लाल कोमल पत्तो ने तो शायद इसे पहले न देखा हो। इनकी तो जीवन की प्रथम वर्षा है। तभी तो देखो कैसे प्रसन्न हो रहे है। हिल हिल कर उन पर रुक गयी बूंदों की नीचे ढलका रहे हैं। नीचे क्यारी में लगा तुलसी का पौधा तो इतना खुश है कि लेट ही गया है। सुबह इसे सहारा देकर पुनः खड़ा करना पड़ेगा। पूरी क्यारी पानी से भर गई है। सामने की कोठी से जो गुलाबी और लाल रंग के बोगिन्विला के पुष्प हमारी तरफ आ रहे थे,  वर्षा का प्रहार नही सह पाये और नीचे सड़क पर आ गिरे हैं। वर्षा का जल जो अब बह चला है उस पर सवार वो पुष्प भी बहे जा रहे हैं। बोगिन्विला की बेल उन्हें अपने से दूर जाते देख रही है पर असहाय है। शायद ये वर्षा इसे न भा रही हो। अभी कुछ देर पहले वो पुष्प जो इसने बड़े जतन से जन्मे थे और इसकी शोभा थे, अब इससे विदा ले चले हैं। शोर अब तेज हो चला है। बादल इस जल के भार को और नहीं संभाल पा रहे हैं और तेजी से नीचे गिरा रहे है। अंदर बॉलकोनी में भी छींटे आने लगी हैं। मैं अपनी कुर्सी थोड़ी पीछे कर लेता हूँ। मच्छरों को यँहा भी चैन नहीं है। अभी अभी एक कार अंदर आई है। उसकी हेड लाईट की रौशनी में बारिश का वेग दिखाई देता है। रात के सवा ग्यारह बज चले हैं। वर्षा अभी भी आ रही है पर वेग कम हुआ है। आँखे नींद से बोझिल हो चली हैं। और लिखना संभव नहीं है। कलम को विश्राम देते हुए मैं अंदर चला आता हूँ।