आखिर दिल्ली में मानसून आ ही पंहुचा। आषाढ़ समाप्ति पर है और सावन तैयार खड़ा है। पर मानसून एक्सप्रेस तो दिल्ली स्टेशन के प्लेटफार्म पर आ चुकी है। रविवार का अलसाया सा दिन सो कर निकल गया। शाम सोचा कुछ बाज़ार जाया जाय। अभी वापस आ कर ही बैठा था कि बूंदों की सुर ताल शुरू हो गई। रसोई की खिड़की से दिख तो कुछ नहीं रहा था, बस आवाज से पता लग रहा था कि वर्षा हो रही है। बस अपने पसंद दीदा स्थान बॉलकोनी में कुर्सी लगाई और आ बैठा। बर्षा की बूंदे नृत्य करते हुए धरा पर आ रही थी और प्यासी धरा जी भर के तृप्त हो रही थी। दिन भर की तप्त दीवारों से जो सोंधी महक उठ रही थी, मुझ में आ समा रही थी। ये वो ही महक है जो बचपन में सूंघने के लिए मैं तप्त डोलियों पर शाम को पानी का छिड़काव किया करता था। आम के पत्तों से फिसल कर बूंदे नीचे गिर रही थी। नए आये लाल लाल कोमल पत्तो ने तो शायद इसे पहले न देखा हो। इनकी तो जीवन की प्रथम वर्षा है। तभी तो देखो कैसे प्रसन्न हो रहे है। हिल हिल कर उन पर रुक गयी बूंदों की नीचे ढलका रहे हैं। नीचे क्यारी में लगा तुलसी का पौधा तो इतना खुश है कि लेट ही गया है। सुबह इसे सहारा देकर पुनः खड़ा करना पड़ेगा। पूरी क्यारी पानी से भर गई है। सामने की कोठी से जो गुलाबी और लाल रंग के बोगिन्विला के पुष्प हमारी तरफ आ रहे थे, वर्षा का प्रहार नही सह पाये और नीचे सड़क पर आ गिरे हैं। वर्षा का जल जो अब बह चला है उस पर सवार वो पुष्प भी बहे जा रहे हैं। बोगिन्विला की बेल उन्हें अपने से दूर जाते देख रही है पर असहाय है। शायद ये वर्षा इसे न भा रही हो। अभी कुछ देर पहले वो पुष्प जो इसने बड़े जतन से जन्मे थे और इसकी शोभा थे, अब इससे विदा ले चले हैं। शोर अब तेज हो चला है। बादल इस जल के भार को और नहीं संभाल पा रहे हैं और तेजी से नीचे गिरा रहे है। अंदर बॉलकोनी में भी छींटे आने लगी हैं। मैं अपनी कुर्सी थोड़ी पीछे कर लेता हूँ। मच्छरों को यँहा भी चैन नहीं है। अभी अभी एक कार अंदर आई है। उसकी हेड लाईट की रौशनी में बारिश का वेग दिखाई देता है। रात के सवा ग्यारह बज चले हैं। वर्षा अभी भी आ रही है पर वेग कम हुआ है। आँखे नींद से बोझिल हो चली हैं। और लिखना संभव नहीं है। कलम को विश्राम देते हुए मैं अंदर चला आता हूँ।
Sunday, 3 July 2016
मानसून की दूसरी बारिश
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