Saturday, 27 August 2016

स्मृति पटल से

दिल्ली की भीड़ भाड़ वाली जगह से अजमेर जैसे शान्त, सुरम्य, पहाड़ो से घिरे छोटे से शहर में जाना सदा एक अदभुत अनुभव हुआ करता था। दो कमरों का छोटा पर खुला खुला सरकारी आवास जिसके  सामने लोहे का सांकल वाला दरवाजा था। घुसते ही छोटा सा पक्का रास्ता मुख्य दरवाजे तक जाता था। एक ऊँचे सीमेंटड चबूतरे को छोड़ कर बाकी दोनों और कच्ची जमीन थी। जिस में दादी ने मक्का बो रक्खी थी।

आस पास के दोनों क्वाटरों के बीच फूलो का बाड़ थी जिस पर रंग बिरंगी तितलियाँ और काले भोरें मंडराते रहते थे। बाड़ के फूलों में और पत्तियों में भी एक तीखी सुगन्ध होती थी जो मुझे आज भी याद है। बाईं तरफ़ कच्ची ज़मीन की एक पतली सी गली होती थी जो क्वाटर की लंबाई के साथ साथ उसकी दीवार के समाप्त होने तक जाती थी। वँहा एक अनार का पेड़ हुआ करता था जो लाल लाल फूलों से भरा रहता था। उसके आगे एक बेरी का झाड़ था जिस पर छोटे छोटे लाल रंग के बेर लगते थे। नीचे क्यारी में कई तरह के पौधे लगे थे जिसमें से एक अजवायन का पौधा था। उसकी पत्ती जब मैं हाथ में ले मसलता था तो अजवायन की तीखी गंध आती थी।

बाहर चबूतरे पर बिजली का मीटर लगा था। दरवाज़ा खुलते ही आप बैठक में आ जाते थे। वँहा बेंत का सोफा हुआ करता था। ऊपर पुराने समय का मोटा सा छत का पंखा टंगा था जो चलते हुए हलकी चूँ चूँ की आवाज करता था। वँहा के सन्नाटे में उसकी ये लय बद्ध आवाज संगीत प्रतीत होती थी। श्री नाथ जी और उनके दाईं और यमुना जी की छवि फ्रेम करके लगाई हुई थी। उन पर रेशम के पवित्रे टंगे थे। पंखे की हवा से वो दोनों पवित्रे धीरे धीरे हिलते थे। यमुना जी के कर कमलों में कमल के कलियों की माला होती थी जिसे थामे वह श्री नाथ जी की और अग्रसर थी। वह स्वयं भी कमल कलियों की माला धारण किये थी। मैंने कई बार उस तस्वीर से देखकर कमल पुष्प व कलियां बनानी चाहीं पर कभी सफलता नही मिली।

उस कमरे से बाहर वरांडा था जंहा लकड़ी की चार या फिर छह - ठीक से याद नहीं, कुर्सियों की डाइनिंग मेज थी। बैठक के कमरे के साथ सोने का कमरा था जंहा लकड़ी का एक साफ़ सुथरा पलंग था। इस कमरे में दो खिड़कियां थी - एक कच्चे गलियारे की तरफ खुलती थी तो दूसरी पक्के चबूतरे की और। दोनों खिड़कियों पर आधे आधे हलके रंग के पर्दे डले थे जो हवा के साथ धीरे धीरे उड़ते रहते थे। पंखे की उस कमरे में मुझे आवश्कता नहीं होती थी। खिड़कियों से ठंडी हवा आती रहती थी। गलियारे वाली खिड़की से सटा मैं बाहर गिलहरियों की  उछल कूद देखा करता था। वरांडे में लकड़ी की जाफ़री लगी थी।

बाईं ओर रसोइघर था। वंही दाईं ओर वरांडे के अंत में साथ साथ स्नानघर व् शौचालय थे। शौचालय का दरवाजा वरांडे की तरफ से बंद ही रहता था। उसका दूसरा दरवाज़ा जो बाहर आँगन से सीड़ियों की तरफ से था, उसे प्रयोग में लिया जाता था। हमारे लिए ये साफ़ सुथरा शौचालय जिसमे ऊपर लोहे का फ्लश टेंक लगा था , एक अलग ही अनुभव था। वो अलग बात है कि पानी के कम दवाब की वजह से ऊपर बनी टंकी तक पानी चढ़ ही नहीं पाता था और इस फ्लश से लटकती चेन खींचने से  कुछ नहीं होता था। फिर भी कोतुहल वश हम बच्चे इस चैन को यदा कदा खींच ही देते थे और दादा जी की डांट सुनते थे।

वरांडे के बाहर पक्का आंगन था। वँहा दो सीमेंट की हौदियां बनी थी, पानी इकट्ठा करने के लिये। उनकी सफाई के समय उनमे कूद कर नहाना मुझे बहुत भाता था। आँगन से छत पर पक्की सीढ़ियां गई थी। दूसरी और साथ बनी मुंडेर पर भागने का लोभ हम संवरण नहीं कर पाते थे। यदि बाहर की और गिर कर चोट लगने का भय था।

शाम को हम बच्चे छत पर चले जाते थे। चारों तरफ घिरी पहाड़ियों को देर तक निहारते। धीरे धीरे शाम उतर आती थी। अँधेरा होते होते दूर पहाड़ो पर बिजलियाँ जल उठती थीं, मानो सैंकड़ो जुगनू टिमटिमा रहे हो। शाम होते ही ठंडी हवा बह उठती और मेरा मन करता कि सदा के लिए यंही रह जाऊँ।

पास के क्वाटर में से शाम होते ही सितार गूंज उठता था। "चंदन सा बदन चंचल चितवन" गीत की संगीत लहरी हवा पर चढ़ कर पूरी कॉलोनी को गुंजायमान कर देती थी। वँहा रह रही दीदी बहुत अच्छा सितार बजाती थीं।

रात का खाना खा हम फिर एक बार छत पर आ धमकते थे। तब तक पूरा आसमान असंख्यों  सितारों से देदीप्यमान हो जाता था। सीमेंट की डोलियों पर बाहर की और पैर लटकाकर बैठे हम कितने ही किस्से कहानियाँ सुनते सुनाते। कुछ भूत प्रेतों की तो कुछ परियों की।

दिल्ली वापस लौटने का समय जैसे जैसे पास आता, मन करता यंहा की सारी शान्ति, सारा वातावरण बटोर लूँ साथ ले जाने को। वो तो नहीं सम्भव था, हाँ बाहर लगे पारिजात के वृक्ष के गिरे हुए फ़ूल जरूर बीन लेता था और गीले रुमाल में  सहेज लेता था। कितना ही क्यों न सहेज  लूँ, दिल्ली आते आते सब मुरझा जाते थे।

ऐसी असंख्य यादें है जो जुडी है बचपन से। अब तो अधिकांश धुंधला गई हैं। इससे पूर्व कि स्मृति पटल से बिलकुल ही मिट जायें, जितना हो सके सहेजना
चाहता हूँ।

Thursday, 4 August 2016

बिना टिकट

"क्या ये लड़का आपके साथ है?", रेलवे पुलिस के उस हवलदार ने पूछा जिसने उसका हाथ इतने कस के पकड़ा हुआ था, मानो उसने कोई बड़ा अपराध किया हो। उसकी नज़रे गार्ड के चेहरे पर जम गयीं। उस पर एक रंग आ रहा था तो एक जा रहा था। गार्ड ने शायद स्थिति की गंभीरता को भाँप लिया था। उस का चेहरा अब संयत हो चुका था। "मैं आप से पूंछ रहा हूँ, गार्ड साहिब", कोई उत्तर न पा कर हवलदार ने फिर पूंछा। 'इस लड़के का कहना है, कि ये आप के साथ है।"

"कौन? ये? मैं इसे नहीं जानता। कौन है ये ?" गार्ड के जवाब से वह सन्न रह गया। गॉर्ड उससे आँख नहीं मिला पा रहा था। "पर ये तो कहता है, अजमेर से आप के साथ आ रहा है?", हवलदार के संग जो एक और व्यक्ति था, उसने कुरेदा। "अरे क्या बात करते हैं जनाब ! इसने कहा और आप ने मान लिया? साफ़ झूठ बोल रहा है", गार्ड ने जोर देकर कहा। "चलो, हो गया तुम्हारा?", हवलदार ने उसे लगभग खींचते हुए कहा। "देखने में तो अच्छे घर का लगता है।", वह बोला था।

"पर, मेरा बैग..", उसने कहना चाह। पर तब तक तो उसे वँहा से ले जाया जा चुका था। 16 वर्ष की अवस्था थी। मसें भी पूरी तरह से नहीं भीगी थी। घर से पहली बार अकेला बाहर आया था और इस तरह की स्थिति में वह कभी पड़ा नहीं था। ये सब उसके लिए अप्रत्याशित था। आँखे डबडबा आईं। पर उन पर कँहा कोई प्रभाव होना था?

उसे एक थ्री टियर के डिब्बे में ले जा कर बैठा दिया गया। वँहा कुछ और आदमी भी पहले से बैठे थे। कुछ और बिना टिकट पकड़ के लाये जा रहे थे। गाड़ी बीच जंगल में कंही रुकी थी। बातों से पता चला कि मजिस्ट्रेट चेकिंग थी जो गाड़ी बीच में रोक कर की जा रही थी। रेलवे पुलिस साथ थी। हर डिब्बे में कई आदमी चेक कर रहे थे। चेंकिग पूरी होने पर गाड़ी रेंगने लगी। जल्दी ही गाड़ी ने गति पकड़ ली।  उसने स्वयं को हालात पर छोड़ दिया। आँखे बंद कर के सोचने लगा, "मैं क्यों चला आया?" उसे गार्ड पर उतना क्रोध नहीं आ रहा था जितना रिश्ते के दादा जी पर। एक टिकिट नहीं खरीद के दे सकते थे? बैठा दिया गार्ड के डिब्बे में।  पिछले कुछ दिनों की घटनायें, चल चित्र की तरह मस्तिष्क पटल पर चल पड़ी।

1975 का वर्ष रहा होगा। उसकी हायर सेकेंडरी की बोर्ड की परीक्षायें समाप्त हो चुकी थी। परिवर्तन के लिए दादी के साथ अजमेर आ गया था । वँहा से दादी बांदीकुई होते हुए भरतपुर ले गयीं । एक विवाह था।  विवाह के बाद पुनः अजमेर आना पड़ा। दादी के भाई उन दिनों अहमदाबाद में कार्यरत थे। किसी कार्यवश अजमेर आये थे। शायद अपने बच्चो को छुटियों में अहमदाबाद ले जाना चाहते थे। दादी ने कहा, "इसे भी ले जाओ। कुछ दिन अहमदाबाद बच्चो के साथ रह लेगा। "  अनमने मन से उसने  "हाँ" कह दी। चलते समय दादी ने हाथ खर्च को 10 रुपए थमा दिए। रात 9 साढ़े 9 बजे गाडी चलती थी। चाचा जी उसे स्टेशन छोड़ गए।  दादी के भाई एक दिन पहले ही अहमदाबाद जा चुके थे। उनके बच्चे- दो लड़के और एक लड़की फर्स्ट क्लास के डिब्बे में थे। बड़ा लड़का रितेश, छोटा हितेश और गुडडी। दोनों लड़के उस से कुछ बड़े थे जबकि गुड्डी उसकी हम उम्र रही होगी। रिश्ते में ये उसके चाचा और बुआ लगते थे।

जब वह उनके कोच में पंहुचा तो हतप्रभ रह गया। इससे पूर्व उसने  प्रथम श्रेणी का डिब्बा अंदर से नहीं देखा था। प्रथम श्रेणी क्या, वह तो इससे पूर्व कभी थ्री टियर स्लीपर कोच में भी नहीं चला था। हाँ, द्वित्य श्रेणी के सामान्य डिब्बे में, कई बार यात्रा की थी। उस डिब्बे में ठसा ठस भीड़ होती थी। जितना मुश्किल उसमे घुसना था, उतना ही मुश्किल उतरना भी था।सीटों पर फोम के गद्दे नहीं होते थे। पहले तो सीट मिलनी ही मुश्किल थी। और मिल जाये और उठ गए तो पुनः मिलनी मुश्किल थी। रात का सफर अँधेरे में बाहर देखते हुए ही कटता था। लेटने के लिए शय्या कँहा मिलती थी।

प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाते ही उसकी  प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। आज वह  इस डिब्बे में सफऱ करने वाला था। खुला खुला डिब्बा, चौड़ी गद्देदार शय्या जिस पर हरे रंग का फोम चढ़ा था। शीशा, पर्दे सभी तो था। क्या बात है। पर जल्दी ही उसकी  ख़ुशी काफ़ूर हो गई। पता चला कि इनके साथ रात का भोजन भर करना था। उसकी व्यवस्था तो किसी और कोच में की गई थी। भोजन करते समय शराब की वो छोटी बोतल जो उनके सामान में थी, उसकी नज़र से बच न सकी। उसे वितृष्णा हो आई। तो यँहा ये प्रोग्राम भी होगा। अच्छा हुआ जो वह इनके साथ नहीं चल रहा था।

रात का खाना खाते खाते गाड़ी छूटने का समय हो गया था। "चल, तुझे तेरे स्थान पर बिठा आऊं।", रितेश बोला। "चाहे तो बैग यंही छोड़ सकता है।"

"नहीं, बैग मैं साथ ही रखूँगा", उसने कहा और वो प्लेटफार्म पर उतर गए। वह तो मन ही मन ये सोच कर ही खुश हो रहा था कि प्रथम श्रेणी न सही, आज थ्री टियर में तो सफ़र करने को मिलेगा। वो दोनों इंजन की विपरीत दिशा में जा रहे थे। गाड़ी चलने में थोड़ा ही समय था। सारे आरक्षित डिब्बे समाप्त हो गए थे। तो क्या उसे उसी अनारक्षित डिब्बे में बिठाया जा रहा था। पर ये क्या! उन्होंने  तो उन्हें भी छोड़ दिया। रितेश  गार्ड के डिब्बे के पास आकर रुका। "मैं राम प्रसाद जी का लड़का हूं। उन्होंने आप से बात की होगी ।" रितेश ने कहा। "हाँ। हाँ। किसे ले जाना है अहमदाबाद?" उसने पूछा। रितेश ने उसकी  तरफ इशारा कर दिया। "ठीक है । बैठा दो। अहमदाबाद में उतार लेना"।" और वह  गार्ड के डिब्बे में बैठ गया। रितेश लौट गया था। कुछ ही समय में गाडी ने सीटी दी तो गार्ड ने हरी बत्ती चमकाई।  गाडी रेंगने लगी। वह  बहुत ध्यान से गार्ड के डिब्बे में लगे उपकरण देखने लगा। गार्ड अपने पेपर्स भरने में व्यस्त हो गया और वह  सामने वाली सीट पर जो कमोड को कवर कर के बनाई गई थी, बैठ कर बाहर अँधेरे में ताकने लगा।

गाड़ी ने गति पकड़ ली थी। हर स्टेशन पर जँहा गाड़ी नहीं भी रूकती थी, गॉर्ड गेट पर जा कर हरी बत्ती दिखाता और वापस बैठ कर कागज़ों में कुछ लिखता। किसको हरी बत्ती दिखाता है और क्या लिखता है,  उसने पूछना चाहा । पर गॉर्ड की मुखाकृति देख कर हिम्मत नही पड़ी।

रात गहरा गई तो झपकी लग गई। पर बिना पीठ को सिरहाना दिए, खिड़की पर सर रख कर कितनी देर सोया जा सकता था। नींद खुलती रही और आती रही। रात ऐसे ही कट गई। सुबह की ताज़ी हवा ने नींद गायब कर दी थी। डीज़ल के धुएं की अजीब सी गंध सुबह की ताज़ी हवा में घुल रही थी। उसे सुबह जल्दी निवृत होने की आदत थी । गार्ड ने कहा अगले स्टेशन पर उतर कर तीन डिब्बे छोड़ कर थ्री टियर कोच है। वँहा चले जाना। और वापस यंही आ जाना।
शौचालय से बाहर आ कर गेट पर खड़ा अगले स्टेशन का इंतज़ार कर ही रहा था ताकि वापस गार्ड के डिब्बे में लौट सके  कि ये छापा पड़ गया और उसे  पकड़ लिया गया। गाड़ी बीच जंगल में रोक दी गई थी, जिससे बेटिकट यात्री भाग न सकें। और फिर इन गार्ड साहिब ने उसे पहचानने से ही इंकार कर दिया। बातों से पता चला कि अहमदाबाद ले जा कर रेलवे मजिस्ट्रेट के आगे पेश किया जायेगा।

गाड़ी रुकी हुई थी। उसने खिड़की से बाहर देखा। साबरमती स्टेशन था। गाड़ी फिर चल पड़ी। आस पास कोई नहीं देख रहा था। बिना सोचे समझे वह  उठा और बिना किसी रोक टोक के गेट पर आ गया।
गाड़ी ने गति पकड़नी शुरू ही की थी। उसने गाड़ी की गति को मन ही मन मापा। अभी नहीं तो कभी नहीं।
तीसरे पायदान पर उतर आया। एक, दो, और तीन। और वह  नीचे पड़ी रोड़ियों पर लड़खड़ा कर भाग रहा था। जल्दी ही गाड़ी चली गई। रह गया तो नीले आसमान की ओर जाता डीज़ल का काला धुआं और चारों तरफ पसरा सन्नाटा ।अब वह  अकेला था और सामने थी लंबी समांतर पटरी। एक अजीब सा अहसास होने लगा था। घर से इतनी दूर अपरिचित जगह। जाना कँहा है पता नहीं था। इतने बड़े अहमदाबाद में कैसे ढूंढ पाउँगा उन्हें ? दस का एक मात्र नोट भी बैग में ही पड़ा था। और कोई रास्ता नही था। वह  जिस दिशा में गाड़ी गई थी उसी दिशा में चल पड़ा। ये पटरी कभी तो अहमदाबाद पंहुचेगी! और वह  निकल पड़ा अनजाने , अपरिचित शहर की और स्लीपर गिनता हुआ।

Wednesday, 3 August 2016

यादें बहुत परेशान करती हैं

फोटो को जूम कर के देखा तो सामने मिंटो ब्रिज का स्टेशन दिख पड़ा -  नीले शेड के नीचे। यादों ने उथल पुथल मचाई और खींच ले गई मुझको 30 बरस पीछे। याद आ गया बारिशों में शाम को वापस जाते हुए रेल गाड़ी का इंतज़ार, और गर्म चाय के साथ मसाला छिड़के कटे हुए ब्रेड पकोड़े खाना। पहली रेल गाड़ी पकड़ कर तिलक ब्रिज से मिंटो ब्रिज आ जाना।  चाय और ब्रेड पकोड़ो का आनंद लेना रिमझिम फुआर में भीगते हुए।  छोटे से शेड के नीचे कितने लोग पनाह ले पाते थे भला ! पीछे वाली रेल गाड़ी का आना और लपक के चढ़ना। घेर लेना खिड़की वाली सीट। और नई दिल्ली आने तक बचे हुए पकोड़े का धीरे धीरे सुस्वाद लेना। चिकने हाथों को सर के बालों से पौंछ लेना। किशन गंज उतर कर कलाई घडी को पॉलिथीन में लपेट कर बैग में रखना। और चल पड़ना घर की ओर भीगते हुए। छपा छप करते चलते हुए पानी उड़ाना। बार बार भीगे बालों से पानी झटकना। एक दम चका डुब घर पहुँचना। और तन के साथ मन का भी भीग जाना।

वही दो स्टाल आज भी दीख रहे हैं । पर वो चाय, वो आलू भरे ब्रेड पकोड़े और वो उम्र अब कँहा?वो मंडी हाउस के गोल चक्कर पर आवारगी के साथ गुजारी शामे कँहा?  ये वो समय था जब बाद के कई फिल्मी कलाकार अक्सर मंडी हाउस पर स्थित ऑडिटोरियम के बाहर झोला लटकाये देखे जा सकते थे - हाथ में शीशे के गिलास से चाय की चुस्कियां लेते।

सब कुछ वही है। पर फिर भी बहुत कुछ बदल गया लगता है। वही कोपरनिकस मार्ग है। वही गुलमोहर के पेड़ों की कतारें है। वही कमानी ऑडिटोरियम है और वही दूरदर्शन हाउस। उम्र बस निकल गई है बंद मुठ्ठी से रेत की तरह। कभी न वापस आने के लिए।

कितने साल इस सड़क पर चला हूँ मैं!
कितनी शिद्दत से इन सब से जुड़ा हूँ मैं! एक एक गुल मोहर मेरा जाना पहचाना लगता है। जो मुझ से भी पहले से मूक साक्षी रहा है इस परिवर्तन का। जब ये CAT की बिल्डिंग वँहा होती थी जँहा आजकल NGT का कार्यालय है। इस उजाड़ सी बिल्डिंग में एक कैंटीन थी, जँहा अक्सर चाय के दौर चलते थे लंच में। बाहर बैठे पंडित के छोले कुलचे जिसमे इमली का पानी मिला होता था। पास बैठे फल वाले की फ्रूट चाट । क्या क्या याद करूँ। बहुत कुछ बदल गया है इन बीते वर्षो में। अब बस यादें है जो आज कौंध गई है स्मृति पटल पर। इतने वर्षों बाद इस चित्र को देख कर। काश वो समय लौट पाता।

पर गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा। हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा।