फोटो को जूम कर के देखा तो सामने मिंटो ब्रिज का स्टेशन दिख पड़ा - नीले शेड के नीचे। यादों ने उथल पुथल मचाई और खींच ले गई मुझको 30 बरस पीछे। याद आ गया बारिशों में शाम को वापस जाते हुए रेल गाड़ी का इंतज़ार, और गर्म चाय के साथ मसाला छिड़के कटे हुए ब्रेड पकोड़े खाना। पहली रेल गाड़ी पकड़ कर तिलक ब्रिज से मिंटो ब्रिज आ जाना। चाय और ब्रेड पकोड़ो का आनंद लेना रिमझिम फुआर में भीगते हुए। छोटे से शेड के नीचे कितने लोग पनाह ले पाते थे भला ! पीछे वाली रेल गाड़ी का आना और लपक के चढ़ना। घेर लेना खिड़की वाली सीट। और नई दिल्ली आने तक बचे हुए पकोड़े का धीरे धीरे सुस्वाद लेना। चिकने हाथों को सर के बालों से पौंछ लेना। किशन गंज उतर कर कलाई घडी को पॉलिथीन में लपेट कर बैग में रखना। और चल पड़ना घर की ओर भीगते हुए। छपा छप करते चलते हुए पानी उड़ाना। बार बार भीगे बालों से पानी झटकना। एक दम चका डुब घर पहुँचना। और तन के साथ मन का भी भीग जाना।
वही दो स्टाल आज भी दीख रहे हैं । पर वो चाय, वो आलू भरे ब्रेड पकोड़े और वो उम्र अब कँहा?वो मंडी हाउस के गोल चक्कर पर आवारगी के साथ गुजारी शामे कँहा? ये वो समय था जब बाद के कई फिल्मी कलाकार अक्सर मंडी हाउस पर स्थित ऑडिटोरियम के बाहर झोला लटकाये देखे जा सकते थे - हाथ में शीशे के गिलास से चाय की चुस्कियां लेते।
सब कुछ वही है। पर फिर भी बहुत कुछ बदल गया लगता है। वही कोपरनिकस मार्ग है। वही गुलमोहर के पेड़ों की कतारें है। वही कमानी ऑडिटोरियम है और वही दूरदर्शन हाउस। उम्र बस निकल गई है बंद मुठ्ठी से रेत की तरह। कभी न वापस आने के लिए।
कितने साल इस सड़क पर चला हूँ मैं!
कितनी शिद्दत से इन सब से जुड़ा हूँ मैं! एक एक गुल मोहर मेरा जाना पहचाना लगता है। जो मुझ से भी पहले से मूक साक्षी रहा है इस परिवर्तन का। जब ये CAT की बिल्डिंग वँहा होती थी जँहा आजकल NGT का कार्यालय है। इस उजाड़ सी बिल्डिंग में एक कैंटीन थी, जँहा अक्सर चाय के दौर चलते थे लंच में। बाहर बैठे पंडित के छोले कुलचे जिसमे इमली का पानी मिला होता था। पास बैठे फल वाले की फ्रूट चाट । क्या क्या याद करूँ। बहुत कुछ बदल गया है इन बीते वर्षो में। अब बस यादें है जो आज कौंध गई है स्मृति पटल पर। इतने वर्षों बाद इस चित्र को देख कर। काश वो समय लौट पाता।
पर गुजरा हुआ जमाना आता नहीं दोबारा। हाफ़िज़ खुदा तुम्हारा।
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