"क्या ये लड़का आपके साथ है?", रेलवे पुलिस के उस हवलदार ने पूछा जिसने उसका हाथ इतने कस के पकड़ा हुआ था, मानो उसने कोई बड़ा अपराध किया हो। उसकी नज़रे गार्ड के चेहरे पर जम गयीं। उस पर एक रंग आ रहा था तो एक जा रहा था। गार्ड ने शायद स्थिति की गंभीरता को भाँप लिया था। उस का चेहरा अब संयत हो चुका था। "मैं आप से पूंछ रहा हूँ, गार्ड साहिब", कोई उत्तर न पा कर हवलदार ने फिर पूंछा। 'इस लड़के का कहना है, कि ये आप के साथ है।"
"कौन? ये? मैं इसे नहीं जानता। कौन है ये ?" गार्ड के जवाब से वह सन्न रह गया। गॉर्ड उससे आँख नहीं मिला पा रहा था। "पर ये तो कहता है, अजमेर से आप के साथ आ रहा है?", हवलदार के संग जो एक और व्यक्ति था, उसने कुरेदा। "अरे क्या बात करते हैं जनाब ! इसने कहा और आप ने मान लिया? साफ़ झूठ बोल रहा है", गार्ड ने जोर देकर कहा। "चलो, हो गया तुम्हारा?", हवलदार ने उसे लगभग खींचते हुए कहा। "देखने में तो अच्छे घर का लगता है।", वह बोला था।
"पर, मेरा बैग..", उसने कहना चाह। पर तब तक तो उसे वँहा से ले जाया जा चुका था। 16 वर्ष की अवस्था थी। मसें भी पूरी तरह से नहीं भीगी थी। घर से पहली बार अकेला बाहर आया था और इस तरह की स्थिति में वह कभी पड़ा नहीं था। ये सब उसके लिए अप्रत्याशित था। आँखे डबडबा आईं। पर उन पर कँहा कोई प्रभाव होना था?
उसे एक थ्री टियर के डिब्बे में ले जा कर बैठा दिया गया। वँहा कुछ और आदमी भी पहले से बैठे थे। कुछ और बिना टिकट पकड़ के लाये जा रहे थे। गाड़ी बीच जंगल में कंही रुकी थी। बातों से पता चला कि मजिस्ट्रेट चेकिंग थी जो गाड़ी बीच में रोक कर की जा रही थी। रेलवे पुलिस साथ थी। हर डिब्बे में कई आदमी चेक कर रहे थे। चेंकिग पूरी होने पर गाड़ी रेंगने लगी। जल्दी ही गाड़ी ने गति पकड़ ली। उसने स्वयं को हालात पर छोड़ दिया। आँखे बंद कर के सोचने लगा, "मैं क्यों चला आया?" उसे गार्ड पर उतना क्रोध नहीं आ रहा था जितना रिश्ते के दादा जी पर। एक टिकिट नहीं खरीद के दे सकते थे? बैठा दिया गार्ड के डिब्बे में। पिछले कुछ दिनों की घटनायें, चल चित्र की तरह मस्तिष्क पटल पर चल पड़ी।
1975 का वर्ष रहा होगा। उसकी हायर सेकेंडरी की बोर्ड की परीक्षायें समाप्त हो चुकी थी। परिवर्तन के लिए दादी के साथ अजमेर आ गया था । वँहा से दादी बांदीकुई होते हुए भरतपुर ले गयीं । एक विवाह था। विवाह के बाद पुनः अजमेर आना पड़ा। दादी के भाई उन दिनों अहमदाबाद में कार्यरत थे। किसी कार्यवश अजमेर आये थे। शायद अपने बच्चो को छुटियों में अहमदाबाद ले जाना चाहते थे। दादी ने कहा, "इसे भी ले जाओ। कुछ दिन अहमदाबाद बच्चो के साथ रह लेगा। " अनमने मन से उसने "हाँ" कह दी। चलते समय दादी ने हाथ खर्च को 10 रुपए थमा दिए। रात 9 साढ़े 9 बजे गाडी चलती थी। चाचा जी उसे स्टेशन छोड़ गए। दादी के भाई एक दिन पहले ही अहमदाबाद जा चुके थे। उनके बच्चे- दो लड़के और एक लड़की फर्स्ट क्लास के डिब्बे में थे। बड़ा लड़का रितेश, छोटा हितेश और गुडडी। दोनों लड़के उस से कुछ बड़े थे जबकि गुड्डी उसकी हम उम्र रही होगी। रिश्ते में ये उसके चाचा और बुआ लगते थे।
जब वह उनके कोच में पंहुचा तो हतप्रभ रह गया। इससे पूर्व उसने प्रथम श्रेणी का डिब्बा अंदर से नहीं देखा था। प्रथम श्रेणी क्या, वह तो इससे पूर्व कभी थ्री टियर स्लीपर कोच में भी नहीं चला था। हाँ, द्वित्य श्रेणी के सामान्य डिब्बे में, कई बार यात्रा की थी। उस डिब्बे में ठसा ठस भीड़ होती थी। जितना मुश्किल उसमे घुसना था, उतना ही मुश्किल उतरना भी था।सीटों पर फोम के गद्दे नहीं होते थे। पहले तो सीट मिलनी ही मुश्किल थी। और मिल जाये और उठ गए तो पुनः मिलनी मुश्किल थी। रात का सफर अँधेरे में बाहर देखते हुए ही कटता था। लेटने के लिए शय्या कँहा मिलती थी।
प्रथम श्रेणी के डिब्बे में जाते ही उसकी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा। आज वह इस डिब्बे में सफऱ करने वाला था। खुला खुला डिब्बा, चौड़ी गद्देदार शय्या जिस पर हरे रंग का फोम चढ़ा था। शीशा, पर्दे सभी तो था। क्या बात है। पर जल्दी ही उसकी ख़ुशी काफ़ूर हो गई। पता चला कि इनके साथ रात का भोजन भर करना था। उसकी व्यवस्था तो किसी और कोच में की गई थी। भोजन करते समय शराब की वो छोटी बोतल जो उनके सामान में थी, उसकी नज़र से बच न सकी। उसे वितृष्णा हो आई। तो यँहा ये प्रोग्राम भी होगा। अच्छा हुआ जो वह इनके साथ नहीं चल रहा था।
रात का खाना खाते खाते गाड़ी छूटने का समय हो गया था। "चल, तुझे तेरे स्थान पर बिठा आऊं।", रितेश बोला। "चाहे तो बैग यंही छोड़ सकता है।"
"नहीं, बैग मैं साथ ही रखूँगा", उसने कहा और वो प्लेटफार्म पर उतर गए। वह तो मन ही मन ये सोच कर ही खुश हो रहा था कि प्रथम श्रेणी न सही, आज थ्री टियर में तो सफ़र करने को मिलेगा। वो दोनों इंजन की विपरीत दिशा में जा रहे थे। गाड़ी चलने में थोड़ा ही समय था। सारे आरक्षित डिब्बे समाप्त हो गए थे। तो क्या उसे उसी अनारक्षित डिब्बे में बिठाया जा रहा था। पर ये क्या! उन्होंने तो उन्हें भी छोड़ दिया। रितेश गार्ड के डिब्बे के पास आकर रुका। "मैं राम प्रसाद जी का लड़का हूं। उन्होंने आप से बात की होगी ।" रितेश ने कहा। "हाँ। हाँ। किसे ले जाना है अहमदाबाद?" उसने पूछा। रितेश ने उसकी तरफ इशारा कर दिया। "ठीक है । बैठा दो। अहमदाबाद में उतार लेना"।" और वह गार्ड के डिब्बे में बैठ गया। रितेश लौट गया था। कुछ ही समय में गाडी ने सीटी दी तो गार्ड ने हरी बत्ती चमकाई। गाडी रेंगने लगी। वह बहुत ध्यान से गार्ड के डिब्बे में लगे उपकरण देखने लगा। गार्ड अपने पेपर्स भरने में व्यस्त हो गया और वह सामने वाली सीट पर जो कमोड को कवर कर के बनाई गई थी, बैठ कर बाहर अँधेरे में ताकने लगा।
गाड़ी ने गति पकड़ ली थी। हर स्टेशन पर जँहा गाड़ी नहीं भी रूकती थी, गॉर्ड गेट पर जा कर हरी बत्ती दिखाता और वापस बैठ कर कागज़ों में कुछ लिखता। किसको हरी बत्ती दिखाता है और क्या लिखता है, उसने पूछना चाहा । पर गॉर्ड की मुखाकृति देख कर हिम्मत नही पड़ी।
रात गहरा गई तो झपकी लग गई। पर बिना पीठ को सिरहाना दिए, खिड़की पर सर रख कर कितनी देर सोया जा सकता था। नींद खुलती रही और आती रही। रात ऐसे ही कट गई। सुबह की ताज़ी हवा ने नींद गायब कर दी थी। डीज़ल के धुएं की अजीब सी गंध सुबह की ताज़ी हवा में घुल रही थी। उसे सुबह जल्दी निवृत होने की आदत थी । गार्ड ने कहा अगले स्टेशन पर उतर कर तीन डिब्बे छोड़ कर थ्री टियर कोच है। वँहा चले जाना। और वापस यंही आ जाना।
शौचालय से बाहर आ कर गेट पर खड़ा अगले स्टेशन का इंतज़ार कर ही रहा था ताकि वापस गार्ड के डिब्बे में लौट सके कि ये छापा पड़ गया और उसे पकड़ लिया गया। गाड़ी बीच जंगल में रोक दी गई थी, जिससे बेटिकट यात्री भाग न सकें। और फिर इन गार्ड साहिब ने उसे पहचानने से ही इंकार कर दिया। बातों से पता चला कि अहमदाबाद ले जा कर रेलवे मजिस्ट्रेट के आगे पेश किया जायेगा।
गाड़ी रुकी हुई थी। उसने खिड़की से बाहर देखा। साबरमती स्टेशन था। गाड़ी फिर चल पड़ी। आस पास कोई नहीं देख रहा था। बिना सोचे समझे वह उठा और बिना किसी रोक टोक के गेट पर आ गया।
गाड़ी ने गति पकड़नी शुरू ही की थी। उसने गाड़ी की गति को मन ही मन मापा। अभी नहीं तो कभी नहीं।
तीसरे पायदान पर उतर आया। एक, दो, और तीन। और वह नीचे पड़ी रोड़ियों पर लड़खड़ा कर भाग रहा था। जल्दी ही गाड़ी चली गई। रह गया तो नीले आसमान की ओर जाता डीज़ल का काला धुआं और चारों तरफ पसरा सन्नाटा ।अब वह अकेला था और सामने थी लंबी समांतर पटरी। एक अजीब सा अहसास होने लगा था। घर से इतनी दूर अपरिचित जगह। जाना कँहा है पता नहीं था। इतने बड़े अहमदाबाद में कैसे ढूंढ पाउँगा उन्हें ? दस का एक मात्र नोट भी बैग में ही पड़ा था। और कोई रास्ता नही था। वह जिस दिशा में गाड़ी गई थी उसी दिशा में चल पड़ा। ये पटरी कभी तो अहमदाबाद पंहुचेगी! और वह निकल पड़ा अनजाने , अपरिचित शहर की और स्लीपर गिनता हुआ।
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