Monday, 31 October 2016

उदयपुर में दीवाली

इस बार की दीवाली उदयपुर में मनी। उदयपुर दिल्ली की अपेक्षा एक शांत, सुरम्य, पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा हुआ मेवाड़ का एक छोटा शहर है। यँहा रंगोली सजाने की एक परम्परा है जो अभी भी जीवित है। दीपावली से एक दिन पूर्व लगभग सभी घरों के रेम्प लाल रंग से पोत दिए गए। फिर देर रात को जब मैं बाहर टहल रहा था, घर की स्त्रियां और बालाएं उस पर रंगोली बनाती नज़र आईं। सुबह दीवाली पर उठ कर देखा तो लगभग हर दूसरे घर के आगे तरह तरह की रंगोली बिभिन्न रंगों से चित्रित थी। दीवाली की रात जब सब और दीये जगमगा रहे थे ,तो एक दिया रंगोली के बीच भी रखा गया था।

दिल्ली की तुलना में यंहा पटाखों का शोर भी कम था और हवा भी कम  जहरीली थी। यँहा आकाश में जलती हुई कंदीलें उड़ाने का भी रिवाज है। चाईनीज़ माल के बहिष्कार के चलते, हालाँकि कम कंदीलें उड़ती दीखी - पर फिर भी आसमान के अँधकार को चुनोती देती कुछ कंदीलें उड़ती नज़र आई। 

रात भोजन के बाद मैं टहलने निकल पड़ता था। थोड़ी दूर चल कर ही कॉलोनी समाप्त हो जाती है और आ जाता है झामर- कोटड़ा हाई वे। झामर कोटड़ा खदानों के लिए जाना जाता है। उदयपुर के पास वैसे देबारी में भी खदाने है जंहा कच्चा जिंक निकलता है। बहुत समय पहले मैंने देबारी की एक जिंक प्रोसेस करने वाली फैक्ट्री हिंदुस्तान जिंक में जिंक बनाने की कार्य प्रणाली देखी थी।

मुझे रात को इस हाई वे पर आ कर अच्छा लगता है। सामने रोड साइड ढाबा है। जंहा इक्का दुक्का ग्राहक नज़र आते हैं। कभी कभी कोई वाहन तेज गति से निकल जाता है। हवा में ठंडक बढ़ गयी है। घूमते घूमते मैं फिर कॉलोनी की और आ जाता हूं। यंहा स्व पोषित वित्त योजना में मिले हुए मकान काफी विस्तृत हैं। लोगो ने बागवानी भी काफी कर रखी है। सेवा निवर्ति के उपरान्त यँहा बसा जा सकता है। एक ही समस्या यँहा मुझे नज़र आती है, वो है आधुनिक चिकित्सा सेवा का आभाव। कोई गंभीर बीमारी हो तो अहमदाबाद ही जाना पड़ेगा।

यंहा से लगभग 50 कि मी की दूरी पर जय समन्द झील है। भाई ने बताया कि यह मानव निर्मित सबसे बड़ी झील है। शाम के बाद यंहा जाने वाली सड़के  निरापद नहीं रहती क्योंकि उन पर जंगली जानवर आ जाते हैं। समय आभाव के कारण हम यँहा नहीं जा पाए।

यँहा गली के तीन कुत्ते हैं जो रात भर जागकर अपनी पहरेदारी करते हैं। जिनमें से एक कुत्ता अफीमची है। ये नाम उसे मैंने दिया है। हमेशा नशे में ही लगता है। उसकी आँखों में मैंने देखा तो मुझे वह नशे में लगा। भाई का कहना है कि ये सारे दिन सोता है। सोते हुए इसके पैर नाली में लटक जाते हैं तब भी ये आलस्य के कारण उन्हें नहीं उठाता है। इस कारण मैंने उसका नाम "अफीमची" रख दिया। ये तीनो कुत्ते रात भर भोंकते रहते हैं और आप की नींद में विघ्न डालते हैं

आज गोवेर्धन पूजा को जो दीवाली के अगले दिन होती है, हवा दिल्ली की हवा के मुकाबले काफी साफ़ है। मुझे आज शाम लौटना है। तीन दिन का ये प्रवास, एक सुखमय ब्रेक लेने जैसा है।

Monday, 24 October 2016

किसान का एक दिन

जीतू किसान हैं। अल्ल सुबह कलेवा कर के घर से खेत में आया हैं। काम बहुत है। पूरा खेत जोतना है। एक बैलों की जोड़ी है और है हल। खेत के बीच में एक छोटा सा छप्पर डाला हुआ है जिस में एक झोल लिए खाट पड़ी है। कई बार पूस की रात इसी खाट पर पतले से कम्बल में गुड़मुड़ी बाँध के गुजारी है। पर अभी तो मौसम ठीक है। वर्षा से पहले जुताई, बुवाई सब करनी है। बैलों को हल में जोत दिया है। जीतू जुताई के लिए तैयार है। पूर्व दिशा से भुवन भास्कर उदय हो रहे हैं। खेत की मेढ पर खड़े पेड़ो पर पक्षियों का कलरव गान हो रहा है। बहुत सारे तोते अभी अभी उड़े है। हल चल पड़ा है, पृथ्वी का सीना चीरते हुए। ये धरती भी कितना देती है। चोट खा कर भी सोना उगलती है। दुपहर होते होते , सूर्य सिर पर आ गए हैं। अपनी प्रखर किरणों से तपाते हुए क्रोधित प्रतीत हो रहे है। बैल भी थक चुके हैं और जीतू भी पसीने से लथपथ हो रहा है। कंधे पर पड़ा गमछा उतार कर बार बार पसीना पोंछता है। अब तो गमछा भी तर बतर हो चुका है। जीतू की निगाहें बार बार पगडंडी की और उठ जाती है। पत्नी भोजन ले कर आती ही होगी। पेट में भी चूहे कूदने लगे हैं। पायल की आती आवाज़ से उसकी निगाहे फिर पगडंडी की तरफ उठ गयीं। लाल छींट के घाघरे पर पीला दुपट्टा ओढ़े पार्वती आ ही गयी थी। बड़े घने बरगद के तले वो आ कर रुक गयी थी। जीतू ने हल छोड़ दिया। एक बार फिर पसीना पोंछा और बेलों को खोल दिया। बैलों को लेकर जीतू पेड़ के पास आया। ढेर सा हरा चारा जो रामजी कुछ देर पहले छोड़ गया था, उसने बेलों के आगे डाल दिया। थके हारे जानवर अपनी क्षुधा मिटाने लगे। जीतू ने प्यार से उन्हें थपथपाया और ट्यूब वैल चला कर हाथ मुंह धोने लगा। मुंह पोंछता हुआ वो पार्वती के पास आया और बोला, "आज बड़ी देर कर दी"। "हाँ, वो माँ की तबियत कुछ ठीक नहीं थी। वैध जी से दवा दिला कर आ रही हूँ" , कहते हुए पार्वती ने कपड़े में बंधी रोटियां खोली। साथ लायी छोटी मटकी से गिलास भर छाछ उंडेली तो उसमें छोटा सा मक्खन का लोंदा आ गिरा। रोटियों के बीच लाल मिर्च की चटनी थी। जीतू उठा और पास की क्यारी से जंहा मेढ पर हरी हरी पौध लगी थी, एक पौध खींच निकाली। नम मिट्टी से पौध के नीचे लगा हुआ प्याज निकल आया। ट्यूब वैल पर धो के जीतू ने मिट्टी हटाई और पत्थर पर रख कर एक हाथ मारा। कच्चा प्याज कई टुकड़ो में बंट गया। लाल मिर्च की चटनी से लगी रोटी के हर ग्रास के साथ जीतू प्याज का एक टुकड़ा कुतर लेता। और गले में फंसे ग्रास को नीचे उतारने के लिए एक घूंट छाछ का भर लेता। इस भोजन से उसे जो तृप्ति मिल रही थी, शायद छप्पन भोग से भी किसी को न मिले। पार्वती उसे खाते हुए देख रही थी। खाना खत्म हुआ तो पार्वती वापस जाने को उठी। "शाम को जल्दी आ जाना। माँ की तबियत कुछ अच्छी नहीं है", कहते हुए पार्वती ने बर्तन समेटे, मटकी उठाई, पल्लू सिर पर लिया और चल दी। जीतू उसे जाते हुए देखता रहा। उसके ओझल होते ही वो वंही बरगद की सखन छाया में लेट गया। गमछा मुंह पर डाल उसने एक छोटी झपकी ली और उठ गया। बैलों को होद तक ले जाकर उन्हें पानी पिलाया और ले चला हल की ओर। अभी तो बहुत काम शेष है। इससे पहले की शाम ढले बचा खेत जोतना है।

Saturday, 8 October 2016

राम लीला - बचपन से जुडी कुछ यादें

दशहरा नज़दीक है। राम लीला मंचन शुरू हो चुके है। आज कल की राम लीलायें भी समय के साथ तकनीकी विकास कर चुकी है। प्रत्येक आयोजक दूसरे से बढ़कर कुछ करना चाहता है। राम लीला मंचन केवल मंचन ही नहीं रह गया है;  वरन मेला हो गया है। उस बीच मौसम में भी बहुत बदलाव आया है। अब वो ठंडक कँहा जो किसी जमाने में दशहरे पर  हुआ करती थी।

मैं तब बहुत छोटा था। नाना जी के साथ फरीदाबाद में रहता था। फरीदाबाद में एक रामलीला मैदान था जो आज भी है। मेरे घर से दूर था। मुझे अकेले जाने की अनुमति नहीं थी। रात में कुत्तों का डर तो था ही, वँहा तब सियार और इक्का दुक्का लक्ड बग्गे भी आ जाते थे। मैं बड़े बच्चो के साथ ही जाता था। रात के अँधेरे से बचने के लिए हम एक लालटेन बनाया करते थे , जो एक तंबाकू का टिन का डिब्बा होता था। उसमें एक छोटी मोमबत्ती लगाकर, लोहे के तार का हेंडल लगा देते थे। पेंदे में कील से कई सारे छेद कर देते थे और हमारी लालटेन तैयार हो जाती।

उन दिनों दशहरे पर अच्छी सर्दी हो जाती थी। हम एक दुशाला ओढ़ कर जाते थे जो काफी गर्म होता था। राम लीला मैदान में भीड़ बहुत होती थी। हम बच्चे जैसे तैसे घुस कर एक आध दृश्य की झलक देख ही लेते थे। पर्दा गिरने पर हम भीड़ से निकल आते और मूंगफली के ठेले की तरफ बढ़ लेते। मद्धम लालटेन जो ठेले पर जलती थी उससे ताप निकलता था। मूंगफली के ढेर पर रखी मिट्टी की कुलिया में सुलगते उपलों से धुंआ उठता रहता था। मूंगफली के भुनने की महक और धुआँस्ते उपलों की खुशबु सर्द वातावरण को भर देती थी। जेब से टटोल के चंद सिक्के दे कर गरम गरम मूंगफली दोनों जेबो में भर कर मैं स्वयं को बहुत धनवान समझने लगता था। न वो मूंगफली आज मिलती है न ही वो स्वाद। मूंगफली के बादामी रंग के दाने आज के बादाम से भी स्वाद होते थे। एक आने का गुड़ या फिर गुड़ के सेव साथ में जिस दिन होते उस दिन तो स्वाद दूना हो जाता।

जब तक पर्दा गिरा रहता था लाउड स्पीकर पर " जंहा डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा" गीत बजता रहता।  पर्दा उठते ही हम फिर भाग कर भीड़ में घुसने का प्रयत्न करते पर असफल रहने पर बाहर निकल आते और संवाद सुनकर ही संतोष कर लेते। इस धक्का मुक्की में दो चार मूँगफली नीचे गिर जाती तो लगता हमारी बहुमूल्य मणि खो गई। पुरे जतन से ढूंढते और सही सलामत पा  जाने पर जो प्रसन्ता होती, शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। ग्यारह, साढे ग्यारह बजते बजते वंही कंही दरी पर गुड़मुड़ी बाँध दुशाला ओढे सो जाते थे। राम लीला समाप्त होने पर सबसे बड़ा बच्चा जिसके जिम्मे हमें सौंपा जाता था, ढूंढ ढूंढ कर हमें इकठ्ठा करता और हम चल पड़ते सर्द रात में अपनी लालटेन लिए घर की और,  लालटेन की रौशनी में लंबी होती अपनी परछाई को देखते। स्कूल तो बंद हो ही जाते थे। सुबह उठने की कोई जल्दी नहीँ होती थी। आधी रात के बाद सन्नाटे में घर पहुँचना बड़े होने का अहसास कराता था। अगले दिन सारी थकावट भूल कर फिर से रात का इंतज़ार रहता रामलीला मैदान में जाने के लिए।

आज सब कुछ बदल गया है। न वो सर्दी है, न ही वो उत्साह। राम लीला का मंचन जरूर विकसित हुआ है। पर अब जाने का मन नहीं करता। समय के साथ सब बदल गया है। मौसम भी।