जीतू किसान हैं। अल्ल सुबह कलेवा कर के घर से खेत में आया हैं। काम बहुत है। पूरा खेत जोतना है। एक बैलों की जोड़ी है और है हल। खेत के बीच में एक छोटा सा छप्पर डाला हुआ है जिस में एक झोल लिए खाट पड़ी है। कई बार पूस की रात इसी खाट पर पतले से कम्बल में गुड़मुड़ी बाँध के गुजारी है। पर अभी तो मौसम ठीक है। वर्षा से पहले जुताई, बुवाई सब करनी है। बैलों को हल में जोत दिया है। जीतू जुताई के लिए तैयार है। पूर्व दिशा से भुवन भास्कर उदय हो रहे हैं। खेत की मेढ पर खड़े पेड़ो पर पक्षियों का कलरव गान हो रहा है। बहुत सारे तोते अभी अभी उड़े है। हल चल पड़ा है, पृथ्वी का सीना चीरते हुए। ये धरती भी कितना देती है। चोट खा कर भी सोना उगलती है। दुपहर होते होते , सूर्य सिर पर आ गए हैं। अपनी प्रखर किरणों से तपाते हुए क्रोधित प्रतीत हो रहे है। बैल भी थक चुके हैं और जीतू भी पसीने से लथपथ हो रहा है। कंधे पर पड़ा गमछा उतार कर बार बार पसीना पोंछता है। अब तो गमछा भी तर बतर हो चुका है। जीतू की निगाहें बार बार पगडंडी की और उठ जाती है। पत्नी भोजन ले कर आती ही होगी। पेट में भी चूहे कूदने लगे हैं। पायल की आती आवाज़ से उसकी निगाहे फिर पगडंडी की तरफ उठ गयीं। लाल छींट के घाघरे पर पीला दुपट्टा ओढ़े पार्वती आ ही गयी थी। बड़े घने बरगद के तले वो आ कर रुक गयी थी। जीतू ने हल छोड़ दिया। एक बार फिर पसीना पोंछा और बेलों को खोल दिया। बैलों को लेकर जीतू पेड़ के पास आया। ढेर सा हरा चारा जो रामजी कुछ देर पहले छोड़ गया था, उसने बेलों के आगे डाल दिया। थके हारे जानवर अपनी क्षुधा मिटाने लगे। जीतू ने प्यार से उन्हें थपथपाया और ट्यूब वैल चला कर हाथ मुंह धोने लगा। मुंह पोंछता हुआ वो पार्वती के पास आया और बोला, "आज बड़ी देर कर दी"। "हाँ, वो माँ की तबियत कुछ ठीक नहीं थी। वैध जी से दवा दिला कर आ रही हूँ" , कहते हुए पार्वती ने कपड़े में बंधी रोटियां खोली। साथ लायी छोटी मटकी से गिलास भर छाछ उंडेली तो उसमें छोटा सा मक्खन का लोंदा आ गिरा। रोटियों के बीच लाल मिर्च की चटनी थी। जीतू उठा और पास की क्यारी से जंहा मेढ पर हरी हरी पौध लगी थी, एक पौध खींच निकाली। नम मिट्टी से पौध के नीचे लगा हुआ प्याज निकल आया। ट्यूब वैल पर धो के जीतू ने मिट्टी हटाई और पत्थर पर रख कर एक हाथ मारा। कच्चा प्याज कई टुकड़ो में बंट गया। लाल मिर्च की चटनी से लगी रोटी के हर ग्रास के साथ जीतू प्याज का एक टुकड़ा कुतर लेता। और गले में फंसे ग्रास को नीचे उतारने के लिए एक घूंट छाछ का भर लेता। इस भोजन से उसे जो तृप्ति मिल रही थी, शायद छप्पन भोग से भी किसी को न मिले। पार्वती उसे खाते हुए देख रही थी। खाना खत्म हुआ तो पार्वती वापस जाने को उठी। "शाम को जल्दी आ जाना। माँ की तबियत कुछ अच्छी नहीं है", कहते हुए पार्वती ने बर्तन समेटे, मटकी उठाई, पल्लू सिर पर लिया और चल दी। जीतू उसे जाते हुए देखता रहा। उसके ओझल होते ही वो वंही बरगद की सखन छाया में लेट गया। गमछा मुंह पर डाल उसने एक छोटी झपकी ली और उठ गया। बैलों को होद तक ले जाकर उन्हें पानी पिलाया और ले चला हल की ओर। अभी तो बहुत काम शेष है। इससे पहले की शाम ढले बचा खेत जोतना है।
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