Saturday, 8 October 2016

राम लीला - बचपन से जुडी कुछ यादें

दशहरा नज़दीक है। राम लीला मंचन शुरू हो चुके है। आज कल की राम लीलायें भी समय के साथ तकनीकी विकास कर चुकी है। प्रत्येक आयोजक दूसरे से बढ़कर कुछ करना चाहता है। राम लीला मंचन केवल मंचन ही नहीं रह गया है;  वरन मेला हो गया है। उस बीच मौसम में भी बहुत बदलाव आया है। अब वो ठंडक कँहा जो किसी जमाने में दशहरे पर  हुआ करती थी।

मैं तब बहुत छोटा था। नाना जी के साथ फरीदाबाद में रहता था। फरीदाबाद में एक रामलीला मैदान था जो आज भी है। मेरे घर से दूर था। मुझे अकेले जाने की अनुमति नहीं थी। रात में कुत्तों का डर तो था ही, वँहा तब सियार और इक्का दुक्का लक्ड बग्गे भी आ जाते थे। मैं बड़े बच्चो के साथ ही जाता था। रात के अँधेरे से बचने के लिए हम एक लालटेन बनाया करते थे , जो एक तंबाकू का टिन का डिब्बा होता था। उसमें एक छोटी मोमबत्ती लगाकर, लोहे के तार का हेंडल लगा देते थे। पेंदे में कील से कई सारे छेद कर देते थे और हमारी लालटेन तैयार हो जाती।

उन दिनों दशहरे पर अच्छी सर्दी हो जाती थी। हम एक दुशाला ओढ़ कर जाते थे जो काफी गर्म होता था। राम लीला मैदान में भीड़ बहुत होती थी। हम बच्चे जैसे तैसे घुस कर एक आध दृश्य की झलक देख ही लेते थे। पर्दा गिरने पर हम भीड़ से निकल आते और मूंगफली के ठेले की तरफ बढ़ लेते। मद्धम लालटेन जो ठेले पर जलती थी उससे ताप निकलता था। मूंगफली के ढेर पर रखी मिट्टी की कुलिया में सुलगते उपलों से धुंआ उठता रहता था। मूंगफली के भुनने की महक और धुआँस्ते उपलों की खुशबु सर्द वातावरण को भर देती थी। जेब से टटोल के चंद सिक्के दे कर गरम गरम मूंगफली दोनों जेबो में भर कर मैं स्वयं को बहुत धनवान समझने लगता था। न वो मूंगफली आज मिलती है न ही वो स्वाद। मूंगफली के बादामी रंग के दाने आज के बादाम से भी स्वाद होते थे। एक आने का गुड़ या फिर गुड़ के सेव साथ में जिस दिन होते उस दिन तो स्वाद दूना हो जाता।

जब तक पर्दा गिरा रहता था लाउड स्पीकर पर " जंहा डाल डाल पर सोने की चिड़िया करती है बसेरा" गीत बजता रहता।  पर्दा उठते ही हम फिर भाग कर भीड़ में घुसने का प्रयत्न करते पर असफल रहने पर बाहर निकल आते और संवाद सुनकर ही संतोष कर लेते। इस धक्का मुक्की में दो चार मूँगफली नीचे गिर जाती तो लगता हमारी बहुमूल्य मणि खो गई। पुरे जतन से ढूंढते और सही सलामत पा  जाने पर जो प्रसन्ता होती, शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। ग्यारह, साढे ग्यारह बजते बजते वंही कंही दरी पर गुड़मुड़ी बाँध दुशाला ओढे सो जाते थे। राम लीला समाप्त होने पर सबसे बड़ा बच्चा जिसके जिम्मे हमें सौंपा जाता था, ढूंढ ढूंढ कर हमें इकठ्ठा करता और हम चल पड़ते सर्द रात में अपनी लालटेन लिए घर की और,  लालटेन की रौशनी में लंबी होती अपनी परछाई को देखते। स्कूल तो बंद हो ही जाते थे। सुबह उठने की कोई जल्दी नहीँ होती थी। आधी रात के बाद सन्नाटे में घर पहुँचना बड़े होने का अहसास कराता था। अगले दिन सारी थकावट भूल कर फिर से रात का इंतज़ार रहता रामलीला मैदान में जाने के लिए।

आज सब कुछ बदल गया है। न वो सर्दी है, न ही वो उत्साह। राम लीला का मंचन जरूर विकसित हुआ है। पर अब जाने का मन नहीं करता। समय के साथ सब बदल गया है। मौसम भी।

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