इसके बाद आदित्य से मेरी मुलाकात कई महीने बाद हुई जब उसने ड्यूटी ज्वाइन कर ली थी और दिल्ली ऑफिस के कार्य से आया था। मैंने देखा कि वो अब पहले वाला आदित्य नहीं रहा था जो टिप-टॉप रहता था। उसकी दाढ़ी बढ़ी हुई थी। कमीज़ का कालर भी मैला था । बाल बेतरतीब थे। वह बहुत ही थका और कमज़ोर लग रहा था।
"ये तुमने क्या हालत बना ली है अपनी?', मैंने पूछा तो उसने उत्तर नहीं दिया। बस एक फीकी सी मुस्कराहट से काम चला दिया।
"ऐसे कैसे चलेगा आदित्य? अपने लिए नहीं, माँ के लिये ही सोचो।" ,मैंने कहा।
"हूँ"
"हूँ क्या? मैं कुछ कह रहा हूँ। "
"तुम्हें पता है मैं क्यों जिन्दा हूँ?" उसने कहा।
"क्यों?"
"नीलिमा के लिए। जब मैं नीम बेहोशी में था तो नीलिमा आई थी मेरे पास। उसने कहा तुम्हें ठीक होना होगा आदित्य। अपने लिये नहीं तो मेरे लिये। मैं नहीं चाहती कि सब कहें कि तुम मेरे लिये मर गए। मैं ये इल्जाम लेकर जाना नहीं चाहती। तुम वादा करो कि तुम ठीक होगे। जिन्दा रहोगे मेरे बिना भी। अभी तुम्हारा जीवन शेष है उसे जियोगे। जैसे भी हो।"
" मैंने उसे वचन दिया था कि जैसे भी हो मैं स्वयं नहीं मरूँगा। औऱ इसीलिये मैं जिन्दा हूँ। अब कोई मेरे से इससे ज्यादा की उम्मीद न करे।"
"समय सब जख्मो को भर देता है।",मैंने कहा तो वह चुप रहा।
"अब तुम ये हर माह दिल्ली की ड्यूटी लेना छोड़ दो। अपना तबादला किसी और विभाग में करवा लो।",मैंने सलाह दी।
"नहीं, मुझे यँहा आना अच्छा लगता है। यँहा की कई सड़को से, चौराहों से, कॉफी होम से, मंडी हाउस के थियेटरों से नीलिमा की यादें जुडी हैं । मैं यँहा आता हूं तो उन पलों को दुबारा जी लेता हूँ। दिल्ली वह आती जाती रहती थी।" उसने कहा।
"पर ऐसे तो तुम उसे कभी भूल नहीं पाओगे।"
" तो मैं कँहा भूलना चाहता हूँ।"
और कहते हुए वह उठ खड़ा हुआ। "अच्छा, चलता हूँ। अगले माह फ़िर आऊंगा।
और वह चला गया था। प्रत्येक माह वह निश्चित तिथि पर दिल्ली आता था। फिर उसका आना बंद हो गया । उसके स्थान पर कोई और आया था। उससे पता चला कि आदित्य के फिर से दिल में दर्द हुआ था और वह अस्पताल में भर्ती था।
फिर उसने अपना तबादला किसी और विभाग में करा लिया था और उसका दिल्ली आना बंद हो गया था। काफी समय तक उससे कोई संपर्क नहीं रहा।
एक दिन सुना कि आदित्य ने विवाह कर लिया। मुझे बुरा नहीं लगा कि उसने मुझे बुलाया नहीं। मैं उसकी मनःस्थिति समझ रहा था। जरूर माँ के दवाब में उसने ये फैसला लिया होगा।
इसके बाद मेरा तबादला एक बार फिर से आदित्य के शहर में हो गया। तब तक आदित्य दो बच्चों का पिता हो गया था। मैं रेस्ट हाउस में रूका था। जैसे ही उसे पता चला वो रेस्ट हाउस आ धमका।
"तो तू मेरे होते हुए रेस्ट हाउस में रहेगा?"उसके स्वर में नाराजगी कम और अपनापन ज्यादा था।
"देखो अब पहले वाली बात नहीं रही। तुम्हारी पत्नी है। वो क्या सोचेगी? मैं भी तुम दोनों के बीच सहज नहीं रह पाउँगा",मैंने उसे समझाने का प्रयत्न किया। पर वह तो जिद्दी था। मेरी अटैची उठा ली। मुझे हार कर उसके साथ जाना पडा।
मुझे आदित्य के घर रहते हुए दो माह हो चले थे। उनके बेड रूम के सामने वाला कमरा उन्होंने मुझे ठीक कर दिया था। मैंने बहुत समझाया पर किराया लेने को आदित्य नहीं माना। बामुश्किल मैं ज़बरन खाने के पैसे दे दिया करता था। कभी ले लेता कभी नहीं लेता। आदित्य की पत्नी उर्मी एक कुशल गृहणी थी। सीमित आय में भी घर को कुशलता से चलाती थी।आदित्य के दोनों बच्चे मुझसे बहुत हिल मिल गए थे। मैं भी शाम को आकर कुछ देर उनके साथ खेलता। अक्सर हम शाम को पिक्चर का प्रोग्राम बना लेते। आदित्य तो पिक्चर कम देखता छोटे बेटे को बाहर जा बहलता रहता था।
एक शाम हम पिक्चर से निकले ही थे। आदित्य बड़े बेटे का हाथ पकड़े कुछ पीछे रह गया था, मैं और उसकी पत्नी थोड़ा आगे थे। छोटा बेटा उसकी पत्नी की गोद मे था। तभी एक भिखारिन पैसे मांगने लगी।
"दे दे बेटी!कुछ तो दे जा। तुम दोनों की जोड़ी बनी रहे।"
हम में से कोई कुछ कह पाता इससे पहले आदित्य आ गया था, "अम्मा, रॉन्ग नम्बर डायल कर दिया न!" हम दोनो जोर से हँस दिए थे और उर्मी कुछ असहज हो गयी थी। मैंने कहा कि तुम दोनों साथ चला करो। बेचारी भिखारिन को क्या पता!
सुबह तो हम साथ ऑफिस के लिए निकलते पर शाम को आदित्य आते आते कुछ लेट हो जाता था। लंच में भी हम साथ खाना खाने घर आते थे। मैंने आदित्य को कई बार कहा कि शाम को समय से आ जाया करे। पर उसे देर हो ही जाती थी। मैं समय पर आकर सहज़ नहीं रह पाता था।
एक ऐसी ही शाम मैं समय से घर आ गया था। उर्मी ने चाय बना ली थी। हम दोनों चाय पी रहे थे , बच्चे पास के कमरे में खेल रहे थे। मेरी किसी बात पर उर्मी जोर से हँस रही थी। मुझे भी हँसी आ गयी। तभी आदित्य ने अंदर आ जाफ़री के बाहर लगी बैल बजाई। उर्मी ने उठ जाफ़री की कुंडी खोली। आदित्य अंदर आया । वो थोड़ा गम्भीर था।
उर्मी ने कहा, "चाय बना दूँ क्या। तुम्हारा इंतज़ार करके अभी भय्या ने और मैने पी है।"
"पहले ये बताओ, तुम लोग किस बात पर हँस रहे थे?"
"हम क्यों बतायें? हमारी आपस की बात है।" उर्मी ने छेड़ा। आदित्य और असहज हो उठा। "मत बताओ।"
कहते हुए वो उठ खड़ा हुआ।
"आपको ऐसा नहीं बोलना चाहिए था, भाभी।" मैंने कहा। "देखा न रूठ गया वह।"
"अरे आप चिन्ता न करो। अभी ठीक करती हूं।"कहते हुए उर्मी उसके पीछे पीछे चली गई थी। रात के खाने पर सब चुप थे। ये चुप्पी मुझे खल रही थी। मैं बताना चाह रहा था कि हम किस बात पर हँस रहे थे पर भीतर एक बर्फ सी जमी थी जो पिघल नहीं रही थी।
सुबह तक आदित्य कुछ सहज़ हो गया था। मैंने उससे कहा कि मेरे रहने से तुम्हारे सम्बन्धों में कड़वाहट घुले ये मैं कदापि नहीं चाहूंगा। उसने मेरे कन्धे पर हाथ रखा और बोला, "कैसी बाते करता है? मेरा छोटा भाई होता तो क्या हमारे साथ नहीं रहता?"
"पर...", मैंने कुछ कहना चाह था।
"पर वर कुछ नहीं। तू कँही नहीं जा रहा है।" उसने बात समाप्त कर दी।
उस दिन से मैं शाम को ऑफिस क्लब में कैरम खेलने के बहाने रुकने लगा। घर तभी जाता था जब आदित्य आ चुका होता था। उसकी पत्नी ने पूँछा भी था पर मैं टाल गया था।
फिर एक दिन आदित्य ने कहा कि उसे ऑफिस के काम से दिल्ली जाना पड़ेगा। यह पहला अवसर था जब आदित्य दो दिनों के लिए घर से बाहर था। गर्मियों के दिन थे। आदित्य दोपहर की गाड़ी से निकल गया था। मैं ऑफिस से फ़िल्म देखने चला गया। रात्रि 10 बजे घर पँहुचा था। आदित्य की पत्नी खाने पर इन्तज़ार कर रही थी।
"आप तो खाना खा लेती भाभी।", मैंने कहा।
"अकेले खाने का मन नहीं हुआ भय्या।",कहते हुए उसने खाना लगाया।
"पापा की तबियत कुछ ठीक नहीं चल रही। ये वापस आ जायें तो सोचती हूं जा कर देख आऊं। आज ही चिट्ठी आई है।" आदित्य के श्वसुर जैसेलमेर में थे।
"इधर निम्मी के लिए भी कोई लड़का नहीं मिल रहा। दिन पर दिन उम्र बढ़ रही है। उसीकी चिन्ता पापा को खाये जा रही है। अब आप भी शादी कर ही लो भय्या। वैसे निम्मी के बारे में क्या ख्याल है ?"
मुझे इस प्रस्ताव की आशा नहीं थी। निम्मी आदित्य की साली थी। अभी कुछ दिन यँहा रह के गई थी। लड़की अच्छी थी पर विवाह को लेकर तो मैंने कँहा सोचा था। मुझे तो अभी सिविल की तैयारी करनी थी। फिर गैर- जातीय विवाह? माँ तो कदापि राजी न होगी।
"आप भी भाभी! कुछ भी बोल देती हो।"
"नहीं। मैं सोच समझ कर कह रही हूँ। मेरी बहिन है इसलिए तारीफ़ नहीं कर रही हूँ। आपने तो देखा है भय्या उसे। ऐसी लड़की आज़कल नहीं मिलती। आप कहो तो मैं इनसे बात करूं?"
"वैसे जल्दी नहीं है आराम से सोच लो इस बारे में।" कहते कहते उसने बर्तन समेटे थे।
"बच्चे दिखाई नहीं पड़ रहे।",मैंने बात बदल दी थी।
"चाचा का इंतज़ार करते करते सो गए है।"
"अच्छा, भाभी मैं अपनी चारपाई बाहर की बालकॉनी में लगा लेता हूँ। अंदर कमरे में घुटन सी है। आप अंदर से ताला लगा लेना।"
"जैसे आपको अच्छा लगे भय्या।"
रात बहुत देर तक मुझे नींद नहीं आई। निम्मी का चेहरा आंखों में घूमता रहा। क्या ऐसा हो सकता है? क्या ऐसा होना उचित होगा ?मेरे सिविल सर्विस के सपने का क्या होगा? माँ, मानेगी क्या? दसियों सवाल दिमाग में उमड़ते रहे। बाहर सड़क पर चौकीदार "जागते रहो" की आवाज़ के साथ डंडा बजाता घूम रहा था।न जाने कब मैं सो गया।
नींद में मुझे लगा कि बाहर के दरवाज़े की कुंडी कोई ज़ोर ज़ोर से बजा रहा था।
मैं चोंक कर उठ बैठा। कलाई घड़ी के डायल पर लगा रेडियम अंधेरे में भी समय बता रहा था। रात के ढाई बजे थे। गली के कुत्ते भी गेट के पास आ कर भोंक रहे थे।
"उर्मी!उर्मी! दरवाज़ा खोलो।"
"आदित्य! इतनी रात गये। पर तुम तो दिल्ली गए थे?"
"हाँ, पर वो गाड़ी छूट गयी ।"
"गाड़ी छूट गई? तो अब तक कँहा थे"?
"दरवाज़ा तो खोलो। सारी बातें यंही कर लोगे क्या?"
तब तक उर्मी ने भी अंदर का ताला खोल जाफ़री खोल दी थी। आदित्य अंदर आ चुका था। जूते उतारते हुए उसने पूँछा," तू बाहर क्यो सो रहा था? बाहर तो बहुत मच्छर हैं।"
"ऐसे ही। अंदर घुटन सी थी।" मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।
एक क्षण में ही मुझे सारी बात समझ आ गई। आदित्य का दिल्ली जाने का कोई प्रोग्राम नहीं था। वह तो इस बहाने अपनी पत्नी को और शायद मुझे भी परखना चाहता था। और मैं इस परीक्षा में खरा उतरा था। ये अगली सुबह उसकी प्रसन्नता से साफ़ ज़ाहिर था। पर मैं तय कर चुका था कि ये माह समाप्त होते ही मैं किसी किराये के मकान में शिफ्ट कर लूंगा। पर इसकी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। माह समाप्त होते न होते मेरा स्थानांतरण दिल्ली हो गया। और मैं इस पर स्पष्टीकरण से बच गया कि मैं क्यों उसका घर छोड़ रहा हूँ।
तभी मोबाइल पर मैसेज टोन बजी। मैं अतीत से बाहर आ गया। विवेक का ही मैसेज था।
"आदित्य नहीं रहा। अंतिम संस्कार शाम 4 बजे लोदी रोड पर होगा। "
पढ़ कर मैं सन्न रह गया। ऐसे चला जायेगा आदित्य! एक कहानी आदित्य के साथ समाप्त हो गई थी।
"क्या सोच रहे हो। हॉस्पिटल नहीं जाना है क्या?"
पत्नी ने आवाज़ दी।
"अब आवश्यकता नहीं रही।" मैंने कहा था।