Saturday, 23 December 2017

अपना परिवेश

जब भी मैं किसी मॉल, पांच सितारा होटल या किसी आधुनिक पार्टी में  जाता हूं, अपने को इन सब में बिल्कुल अजनबी पाता हूँ। कुछ ही देर में मेरी असहजता इतनी बढ़ जाती है कि वँहा मैं बस औपचारिकता वश ही ठहर पाता हूं। मेरे अंदर से कोई मुझे बार-बार वँहा से बाहर  धकेलता है; कि चल ये कँहा आ गया! तेज आवाज़ में चलता संगीत, तेज चकाचोंध रोशनियों से चमकती दुकानें,एक बेतरतीब सी भीड़- इधर उधर जाती हुई। आधुनिकता से परिपूर्ण लिबास, नकली मुस्कराहट ओढे चेहरे - ये कँहा आ गया मैं ?

इन सब से बाहर आकर जो चैन मिलता है वर्णन नहीं किया जा सकता। जैसे जैसे ये शोर,लाइटे और ये नकली दुनियाँ पीछे छूटती जाती है मैं सहज़ होता जाता हूँ। कुछ कुछ ऐसा सा लगता है जैसे गाड़ी के आने पर जो शोर उठा था प्लेटफार्म पर, उसके चले जाने के बाद  रह गया है पसरा हुआ सन्नाटा और ठहरी हुई शांति । पीछे रह गई है ठंडी पटरियां और दूर सिग्नल की लाल बत्तियां। आसमान पर टँगा चाँद और समान ढोने की गाड़ी में गुड़मुड़ी मारे कम्बल लपेटे सोता कुली। ऐसा सा लगता है जैसे जैसे मैं दूर होता जाता हूँ।

शायद मैं किसी ग्रामीण परिवेश से आया हूँ। पर मेरा तो कोई गाँव ही नहीं। मेरा तो जन्म ही महानगर में हुआ था। पिछले जन्म में जरूर कँही ग्रामीण परिवेश में रहा हूंगा। उसके संस्कार अभी तक शेष हैं। मुझे मिट्टी की सोंधी सुगंध बहुत भाती है। नीम के पेड़ों से आती महक, खेतों में फूली पीली सरसों, अरहर के खेत, गन्ने की फसलें, कुंओ पर लगे रहट, कल-कल की ध्वनि कर बहती नदी, उड़ती तितलियाँ और भोरें, नाचते मोर, कुलाचें भरते हिरन, फुदकते खरगोश, दौड़ती गिलहरियां और भी बहुत कुछ मैं बस कल्पना ही करता हूँ। कँहा महानगर में बीत गई जिन्दिगी। कँहा ये चकाचौंध और कँहा वो प्रकृति। जाने लोग महानगर क्यों चले आते हैं अपना सुख चैन खोने। कितना सुख है अपने परिवेश में!

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