चोटिल होना वह भी बिना किसी कारण के और वो भी सर्दियों में! तौबा! प्रभु दुश्मन को भी बचा कर रखे। सर्दियों में मेरी सुबह की सैर बंद ही रहती है क्योंकि जब तक भुवन भास्कर कुछ ऊपर उठ कर उष्णता दें मेरा काम पर निकलने का समय हो जाता है। और अल्ल सुबह मुँह अँधेरे कोहरे और सर्द सुबह में मैं बाहर नहीं निकलता - आख़िर ब्लड प्रेशर का मरीज़ जो ठहरा। पर आज पता नहीं क्या मन में आई कि अखबार वाले को देखने चप्पल पहने ही बाहर आ गया। सर्दी कुछ कम थी। सोचा पीछे की क्यारी से तुलसी के कुछ पत्ते ही तोड़ लूँ। पीछे की और जाते हुए साइड की बालकॉनी में गुलदाउदी के पौधे पर नज़र पड़ी जो फूलों के भार से एक ओर झुक गया था। सोचा ये यौवन की बहार इससे संभल नहीं रही। कुछ सहारा ही दे दूँ। पीछे की क्यारी से एक बांस की खपच्ची निकाल लाया और गमले में अंदर तक गाड़ के झुकती कोमल डालियों को सहारा दे दिया। और ये कर के ज्योहीं मैं पीछे हटा, पीछे बने सीवर के ढक्कन पर जो सड़क उठने से कुछ नीचे चला गया है, दाहिना पैर पड़ा और बस...फिर तो ऐसा गिरा की उठना ही मुश्किल हो गया। दाहिना पैर टखने से पूरा मुड़ गया था। एक बार तो आसमान घूमता दिखा। फिर आस पास देखा कि शायद कोई मदद का हाथ बढ़ा दे। पर कोई नहीं था। जैसे तैसे उठा। लंगड़ाते हुए अंदर आया। और बिस्तर पर पड़ गया। तब तक तो चोटिल टखना सूज कर कुप्पा हो गया था। इसे कहते है आ चोट, मुझे लग ! होनहार पर किस का बस? क्या पड़ी थी गुलदाउदी को सहारा देने की! ओर दूसरे के फटे में पैर फँसाओ। अब भुगतो। खैर, अपना दुःख कह कर हल्का कर लिया। देखता हूं सुबह तक क्या रंग दिखती है ये चोट। आप तो सोइये। शुभ रात्रि।
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