Sunday, 19 August 2018

प्रलोभन

जब से वो अधिकारी बना था उसके आस पास चाटुकारों की भीड़ रहने लगी थी। उसके आने पर कर्मचारी खड़े हो जाते। उसे अटपटा सा लगता। कुछ आधीनस्थ कमर्चारी ऐसे भी थे जो अभी भी उसे अधिकारी नहीं मानते थे। उसके सामने आपस में गाली गलौच करते, उससे तू तड़ाक से बात करते, उसके सामने ही अनुशासन तोड़ते और उसे अपमानित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। इन सब के चलते उसके लिए उनसे काम लेना कठिन हो रहा था। उसे अहसास हुआ कि एक सफ़ल अधिकारी वही होता है जो अपने आधीनस्थ कर्मचारियों से समय से काम करा सके। उसके एक छद्म आवरण ओढ़ लिया जो बाहर से देखने में सख्त था। पर वास्तव में भीतर से तो वो वैसे ही था- कोमल। लोग उसे दम्भी समझने लगे और उससे दूर होते गए। वो जैसे जैसे ऊपर बढ़ता रहा, अकेला होता गया। उसे समझ आ गया था कि भीड़ तो नीचे ही होती है। शिखर पर व्यक्ति अकेला ही होता है। ये वो कीमत थी जो उसने अधिकारी बनने के लिए दी थी। पर जो लोग उसे पहले से जानते थे उनके लिए तो वो अभी भी वो ही था।

वो जो भी मसला उसके समक्ष आता अपने विवेक से उसे निपटाता। फ़ाइल रोकने में उसे विश्वास नहीं था। वो चाहता था कि उसे कुछ ऐसा कार्य भार मिले जिससे वो उनका काम कर सके जिनकी कोई सुनवाई नहीं थी। पर ऐसा तो कभी कभी ही होता था।

एक दिन वो अपने उच्च अधिकारी से चर्चा कर रहा था तो उसने समझाया कि उसके हस्ताक्षर की क़ीमत है। यँहा वँहा उसे ऐसे ही हस्ताक्षर नहीं करने चाहिए। जब किसी का काम रुकेगा तभी तो वह उसे जानेगा। उसे आश्चर्य हुआ। उसे पता ही नहीं था कि उसके हस्ताक्षर अब कीमती हो गए थे।

पर उसका मानना तो कुछ और ही था। उसे पता था कि कल तक वो रेखा के उस पार था और यदि आज वो अपने किन्ही कर्मों के कारण रेखा के इस पार है तो क्या वो इतना स्वार्थी हो जाय कि फ़ाइल इस लिए रोक ले कि कोई जिसका काम रुका है उसके पास आएगा। छि:। वो ऐसा चाहे भी तो भी नहीं कर सकता था।

इन्हीं सब के चलते उसकी नियुक्ति एक अन्य कार्यालय में हुई। अभी तक उसने ऐसी जगहों पर ही कार्य किया था जँहा ठेकेदारों से उसका वास्ता ही नहीं पड़ा था। उसने वँहा कुछ सुधार करने शुरू किए और जल्द ही बहुतों की आंख की किरकिरी बन गया। वो एक ऐसी व्यवस्था बदलने का प्रयत्न कर रहा था जो वर्षो से ठीक ठाक चल रही थी। उसका यह करना  बहुतों को रास नहीं आ रहा था। उसकी उच्च महिला अधिकारी ने उसे सावधान किया, "यँहा समाज़ सुधारक बनने की आवश्यकता नहीं है। तुम चाह कर भी ये व्यवस्था नहीं बदल सकते।" उसने तय किया कि वो अपने काम से काम रखेगा। उसने अपने आधीनस्थ कर्मचारियों को बुलाया और चेतावनी दी कि यदि उसके पास कोई भी शिक़ायत आई तो वो दोषी कर्मचारी को छोड़ेगा नहीं। पर शिक़ायत कौन करता। लेने वाला और देने वाला दोनों राज़ी थे। वो अपने कमरे में बैठा रहता। लोग आकर उसे कहते कि उसके नाम पर भी पैसे लिए जा रहे हैं। पर जब तक कोई शिक़ायत न हो वो किस पर कार्यवाही करे और किस आधार पर करे। 

तभी उसके पास जीवन की पहली टेंडर फ़ाइल आई। उसने अपने विवेक से टेंडर कमिटी की सिफारिशों पर हस्ताक्षर किए। टेंडर नियमानुसार ही दिया गया। उसमें किसी को कोई अनुचित लाभ नहीं दिया गया था। वो संतुष्ट था। कोई दो दिन बाद, सम्बन्धित इंजीनियर उसके कमरे में आया। इधर उधर की बात करने के बाद उसने एक सफेद मोटा सा लिफ़ाफ़ा निकाला और मेज़ पर रख दिया।

"ये क्या है।"? उसने पूछा था।
"आपका शेयर है। पूरे 16500 रुपए हैं।"
"कैसा शेयर?"
"अभी परसों हमने वो टेंडर फाइनल किया था न!"
"हाँ। तो!!!"
"तो ये आपका शेयर है।"
उसने महसूस किया कि उसके पैर काँप रहे है। उसे लगा कि अभी कोई दरवाज़ा खोल कर आएगा। उससे  वो क्या कहेगा कि क्या चल रहा है।

"उठाइये इसे।"

"कम हैं क्या? तीसरे सदस्य को तो और भी कम गए हैं। कन्वीनर और वित्त सदस्य का हिस्सा बराबर होता है। यही चलता है। आप नए हैं। पता कर लीजिए।"

"नहीं।वो बात नहीं है। आप पहले इसे हटाइये सामने से।"

उसने लिफ़ाफ़ा उठा कर जेब में रख लिया। और बोला, "आप क्या बात कर रहे हैं! मैंने पहली बार कोई ऐसा अधिकारी देखा है जो आई हुई लक्ष्मी को ठुकरा रहा है। शायद आप आदर्शवादी हैं। पर ये सब आदर्श किताबों में ही अच्छे लगते हैं। असल जिन्दगी में व्यक्ति को व्यवहारिक होना पड़ता है। और आप क्या समझते हैं, ये ठेकेदार अपनी जेब से दे रहा है। अरे साहिब, वो सब का हिस्सा अपने रेट में पहले से ही मिला लेता है। ये सब सरकारी ख़ज़ाने से ही तो जा रहा है। और आप सरकारी अधिकारी होने के नाते इसके हक़दार हैं। आख़िर आप टैक्स भरते हैं, बदले में आपको क्या मिलता है।..."

अभी शायद उसका लेक्चर और चलता कि उसने बीच में ही टोक दिया,"देखिए मुझे मत पढ़ाइये। मेरे लिए ये काला धन ज़हर है।"

"देखिए, धन न तो काला होता है न सफ़ेद। धन बस धन होता है। इन नोटों की भी बाज़ार में वो ही कीमत है जो आपके वेतन में मिले नोटों की होती है।"

उसकी ज़िद देखते हुए वह बोला, " देखिए हम भी ईमानदार हैं। अब ये आपका हिस्सा मेरे पास रखा है ।आप सोच लीजिये, अच्छी तरह से ठंडे दिमाग़ से विचार कर लीजिए। घर पर बात कर लीजिए। शायद आपका मन बदल जाये। ये आपकी अमानत मेरे पास एक सप्ताह तक रखी है। यदि मन बदले तो बस एक फ़ोन कर दीजियेगा। नहीं तो मैं इसे ठेकेदार को लौटा दूँगा। "

"आप इसे ठेकेदार को वापस दीजिये, आप रखिये या आप और थर्ड मैम्बर बाँट लीजिये। और न हो तो कचरे में फेंक दीजिये। मैंने मना कर दिया तो कर दिया, मेरा मन नहीं बदलने वाला।" उसने महसूस किया कि उसका लहज़ा सख़्त हो गया था।

इंजीनियर तो चला गया पर उसके मन में उथलपुथल छोड़ गया। उसने विचार किया कि इस पैसे से उसका कौनसा रुका हुआ काम निकल सकता है। उसे याद आया कि बच्चों के स्कूल की फीसों के ₹ 18000 के बिल इसी माह भरने थे। उसके पास पैसे नहीं थे और वह सोच रहा था कि क्रेडिट कार्ड पर ले कर फ़ीस भर देगा। ये क्रेडिट कार्ड के भँवर में वह ऐसा फँसा था कि जितना निकलने के लिए हाथ पैर मारता था उतना ही धँसता चला जाता था। हर बार बस मिनिमम अमाउंट ही दे पाता था और भारी ब्याज़ तले दबता जाता। पर ये क्रेडिट कार्ड का भारी भरकम ब्याज़ उसकी इज़्ज़त की क़ीमत थी। आख़िर उसे किसी के आगे हाथ तो नहीं फैलाना पड़ता था। इस पैसे से यदि वह फीस दे दे तो क्रेडिट कार्ड से और उधार नहीं होगा। और यदि माह में ऐसे दो टेंडर भी आ गए तो उसका इन सूदखोरों से पीछा हमेशा के लिए छूट जाएगा। शायद इसलिए प्रभु ने उसकी यँहा पोस्टिंग करवाई हो। ऐसा सोचते ही उसे स्वयं से घृणा हो उठी- प्रभु को आड़ बनाकर ग़लत काम में उन्हें भी मिला रहा है! कितना स्वार्थी हो गया है तू। जो करना है उसके लिए वह स्वयं ज़िम्मेवार है।

पर उसके सिद्धान्त! ये सब आदर्शवादी बातें हैं। आज़कल कौन इन्हें मानता है? उसे "सत्यकाम" फ़िल्म याद हो आई। उसने न जाने कितनी बार देखी थी। क्या अंत हुआ था ईमानदारी से चलने वाले का! क्या वो भी ऐसा ही अंत चाहता है? सोचते ही उसे झुरझुरी आ गई।  तो क्या उसे जब तक अवसर नहीं मिला तभी तक वह ईमानदार था। अवसर मिलते ही उसकी नीयत डोलने लगी! वह क्या करे, किससे सलाह ले। मन बेचैन हो उठा था।

वो घर आया। यद्दपि वो इस विषय मे पत्नी से बात करना नहीं चाहता था पर और कोई भी ऐसा नहीं था जिससे वो अपना बोझ बाँट सके। उसने पत्नी को सब बताया और कहा कि उसने उसके प्रलोभन को ठुकरा दिया था।

"बहुत अच्छा किया। हमें ऐसा पैसा कदापि नहीं चाहिए। और क्या बच्चों को ऐसे पैसे से पढ़ाओगे। वो क्या बनेंगे आगे चलकर! ऐसा पैसा फलता नहीं है। बरक़त ईमानदारी की कमाई में ही है। यदि हम प्राइवेट स्कूलों की फीस नहीं भर सकते तो हम उन्हें सेंट्रल स्कूल में डाल देंगे।" पत्नी ने कहा।

उसके मन से बोझ हट चुका था। उसे गर्व हुआ अपनी जीवन संगनी पर। फैसला हो चुका था। उसने कभी उस इंजीनयर को फ़ोन नहीं किया और न ही ये जानने की ज़रूरत समझी की उसने उस पैसे का क्या किया। हाँ, वह अपने उच्च अधिकारी से जरूर मिला था इस निवेदन के साथ कि उसको टेंडर कम से कम दिए जाएं। वँहा और बहुत अधिकारी थे जिन्हें टेंडर चाहिए थे।

उसके बाद उसको किसी ने लिफ़ाफ़ा ऑफर ही नहीं किया। शायद वो (कु)ख्यात हो चुका था। उसे भी ये रास आ रहा था। वो बेशर्म भी हो चुका था। उसे बिल्कुल शर्म नहीं आती थी जब उसका आधीनस्थ कर्मचारी उसकी 10 वर्ष पुरानी सैकिंड हैंड मारुति के साथ अपनी चमचमाती महंगी कार पार्क कर के उतरता था। उसके लिए उसकी पुरानी कार किसी विमान से कम न थी क्योंकि वह उसकी मेहनत की कमाई से खरीदी हुई थी। उसकी चाल राजसी थी, मुख पर तेज़ था। और मन शांत था - बिना हवा के स्थिर दीप शिखा के समान।

आज जब वो एक लम्बी सेवा के बाद सेवा निवृत्त हो रहा है तो उसके सिद्धान्त जो उसने बहुत ही कच्ची उम्र में बनाये थे उसके साथ ही खड़े है। उसका दृढ़ निश्चय भी और सुदृढ़ हो खड़ा है। जीवन भर ये सिद्धान्त उसका सम्बल रहे हैं। उसकी नाव बिना पतवार की नाव सी भटकी नहीं। तूफानी थपेड़े और ऊंची नीची लहरों को झेलते हुए आख़िर किनारे लग ही गई। जीवन की सन्ध्या बेला पर उसे कोई पश्चाताप नहीं है। उसने अपनी पारी सफलता पूर्वक खेली है।

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