Sunday, 5 August 2018

अग्निपरीक्षा

उसे शुरू से ही लड़कियों के पीछे भागना अच्छा नहीं लगता था। उसका सोचना था कि कुछ ऐसा करो कि वो तुम्हारे पीछे आएं। स्कूल छोड़ने के बाद वह गीता प्रेस की पुस्तकों के संपर्क में आया। नई सड़क पर जब वह पुरानी कोर्स की किताबों के लिए दुकान दुकान भटकता तो गीता प्रेस की बड़ी सी दुकान पर रुक जाता। कौड़ियों के दाम पर वँहा उसे नई किताबें मिल जाती। हर बार वह कोई न कोई खरीद लेता और चाव से पड़ता। इन्हीं के चलते एक दिन उसने "गीता" ली। समझ तो नहीं आई पर वो पढ़ता गया। उसकी बचकानी बुद्धि ने गीता के कर्म योग को ही ग़लत सिद्ध कर दिया। ऐसे कैसे हो सकता है कि कोई सर्वथा निष्काम कर्म करे। प्रभु प्राप्ति भी तो एक  कामना ही है। मुक्ति की भी कामना एक कामना ही तो है। उसे लगा किसी ने उससे पहले इस पर इस दृष्टि से विचार नहीं किया था और उसने "गीता"में एक खामी ढूंढ ली थी। वह अपनी खोज़ पर प्रसन्न भी था और परेशान भी। पर अपनी शंका का निवारण किस से करे।

वो "गीता" बार बार पढने लगा। माँ को चिन्ता हुई कि कँही बेटा सन्यासी न हो जाये। वो कहती कि अभी उसकी "गीता" पढ़ने की उम्र नहीं है। पर वो कहता कि उम्र का क्या ठिकाना! न जाने कितनी छोटी है। इस पर माँ सहम जाती और डांट देती, "कुछ भी बोलता रहता है। जब समझ नहीं है तो चुप रहा कर।"

आज उसे अपनी समझ पर तरस भी आता है और हँसी भी आती है। समझ ही कितनी थी तब! कर्म योग को ही गलत सिद्ध कर दिया था। शायद इसीलिए गुरु की आवश्कता होती है। ये कोई कोर्स की किताब तो नहीं थी जिसे वह स्वयं पढ़ के समझ लेता था।

इन्हीं सब के साथ वो नोकरी में आया था। घर से दूर एक अनजान, अजनबी शहर में। घर पर कोई था नहीं जो इंतज़ार करता। ऑफिस के बाद क्लब में चला जाता। कैरम खेलता, टेबल टेनिस पर हाथ आज़माता। या फिर यूँ ही पैदल चलता हुआ पब्लिक लाइब्रेरी चला जाता। वँहा का सन्नाटा उसे अच्छा लगता। कोई किताब निकाल पढ़ने लगता। उसे लगता कि वह बुद्धिजीवियों  की श्रेणी में आ खड़ा हुआ है। ये उम्र का वो पड़ाव था जब मन के आकाश पर रंग बिरंगे स्वप्न तैरते हैं। जब बहती हवा में गुनगुनाने का मन करता है। जब दिल छोटी छोटी बात पर भी तेजी से धड़कता है।

वंही उसकी मुलाकात गिरीश से हुई थी। पहली नज़र में ही वह उससे प्रभावित हो गया था। मोटी खद्दर का कड़क कुर्ता पायजामा, कन्धे पर कपड़े का झोला और पैरों में साधारण सी चप्पल - उसका रोज़ का पहनावा थी। दोंनो घूमते हुए कॉफी हॉउस जा बैठते और बतियाते। वह घर से दूर रह कर पी सी एस की तैयारी कर रहा था। जानकारी का उसके पास भंडार था।

एक दिन ऐसे ही घूमते हुए वह दोनों घंटाघर तक चले गए थे। अचानक गिरीश ने पूँछा था।

"कभी कोठे पर गए हो नाच देखने?"
उसने आश्चर्य से गिरीश की और देखा और बोला, "क्या?"
"चलो, आज दिखाता हूँ। ये सारा रेड लाइट एरिया है। यँहा लोग मन बहलाने आते है।" कहता हुआ वह एक सँकरी सी सीढ़ियों के पास रुक गया। उसका हाथ पकड़ वह ऊपर जाने को बढ़ा कि उसने अपना हाथ छुड़ा लिया।
"मुझे नहीं देखना है।" कहते हुए वह पीछे हटा।
गिरीश का पहनावा देखकर वह सोच भी नहीं सकता था कि उसे ये शौक भी होगा।
"अरे चलो भी! यँहा किसको पता चलेगा?" गिरीश ने फिर कहा।
"नहीं, मुझे नहीं जाना।  और तुम भी मत जाओ। चलो किसी शाम की शो में पिक्चर देखते है।" उसने प्रस्ताव रखा।
पर गिरीश चला गया था। और वो निरुद्देश्य यूँ ही रात होने तक सड़कों पर भटकता रहा था। उस दिन के बाद उसने गिरीश से दूरी बना ली थी। आज तो वह रुक गया था कल शायद न रुक पाए। उसने लाइब्रेरी जाना छोड़ दिया था कि अचानक एक दिन उसे ढूंढता हुआ गिरीश उसके ऑफिस में आ धमका।

"क्या बात है? बहुत दिनों से लाइब्रेरी नहीं आये तुम। सब ठीक है न?"
"हाँ, बस यूं ही समय ही नहीं मिला।"
"चलो, आज घर चलना है। एक सरप्राइज है तुम्हारे लिए।"
उसने टाल मटोल की पर वो माना नहीं। ऑफिस के बाद वो गिरीश के घर की और बढ़ रहे थे।

"ऐसा क्या सरप्राइज है?" उसने पूछा था।
"खुद ही देख लेना। चल तो रहे हो।"
जल्द ही वह गिरीश के घर पर था । गिरीश ने ताला खोला। उसका दो कमरों का छोटा सा मकान था। एक स्टडी रूम था तो दूसरे कमरे में एक पलँग पड़ा था। स्टडी रूम में बेतरतीब किताबें बिखरी पड़ी थी। दो पलास्टिक की कुर्सियां और एक छोटी सी मेज़ रखी थी।
"हाँ, तो क्या सरप्राइज है?" , उसने बैठते हुए पूछा।

तभी पास के कमरे से एक युवती निकल के आई। बोली,"पानी लेंगे?" वो आश्चर्य चकित था।

वो कोई बीस-बाइस वर्ष की रही होगी। कट स्लीव का ब्लाउज़ और साड़ी पहने थी जो नाभि के नीचे बंधी थी। हाथों में चूड़ियां, दपदप करती भरी हुई माँग, माथे पर बड़ी सी बिंदिया और पैरों में पाज़ेब पहने उसका सरप्राइज उसके सामने था।

तो क्या गिरीश ने विवाह कर लिया? पर ये इसे अंदर बन्द कर बाहर से ताला क्यों लगा गया। इतनी सुन्दर पत्नी इसे कँहा मिलेगी! शायद शक्की है। उसने सुना था कि कुछ शक्की स्वभाव पति अपनी सुन्दर पत्नियों को ताले में रखते हैं। उसे गिरीश के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी थी।

वो इसी उहा पोह में था कि वह पानी ले आई।

"कहो, कैसा लगा हमारा सरप्राइज?" गिरीश ने पूछा तो वह मुस्करा दी थी।

"एक और कुर्सी उठा लाओ और यँहा बैठो।" गिरीश ने कहा तो उसने पास के कमरे से एक और कुर्सी उठा ली और बैठ गई।

"तुमने विवाह कब किया? तुम तो कह रहे थे पी सी एस के बाद विवाह करोगे।"उसने पूछा।

"बताऊंगा, सब बताऊंगा। धीरज रखो।"
"अच्छा, तुम बैठो, मैं कॉफी बना कर लाता हूँ।" कहते हुए गिरीश किचन की तरफ़ चला गया।
"घोट कर बनाना।" उसने जोर से कहा। गिरीश घोट कर बहुत अच्छी कॉफी बनाता था।

इसकी समझ नहीं आ रहा था कि इस अंजान युवती से क्या बात करे। चाह कर भी उसके मुख से "भाभी" सम्बोधन नहीं निकल पा रहा था। वैसे भी वह ऐसी स्थिति में असहज हो जाता था। उसने सामने पड़ी किताब उठा ली और पन्ने पलटने लगा।

उसकी साड़ी पाज़ेब में उलझ गई थी। उसे ठीक करने के उपक्रम में उसका आँचल गिर गया था जिसे उसने शायद जान बूझकर गिरा ही रहने दिया था। उसने किताब से सिर उठाया तो उसकी दृष्टि वंही अटक गई।

"अपने मित्र की पत्नी को ऐसी दृष्टि से देखना अनुचित है।" अन्तरात्मा ने तुरंत धिक्कारा।पर मन तो चक्षु इंद्रिय के साथ वंही अटक गया था।

स्त्री को प्रकृति ने ऐसी क्षमता दी है कि वह पुरुष के मनोभावों को तुरंत पढ़ लेती है।
"क्या देख रहे हो?" साड़ी पाज़ेब से छुड़ाते हुए वह बोली थी।
"कु.. कुछ..कुछ भी तो नहीं।" उसने हकलाते हुए कहा। उसे अपने पर लज़्ज़ा आ रही थी।
"कुछ तो देख रहे थे ।" वह मुस्कराई। उसे उसका ये व्यवहार कुछ अटपटा सा लगा।
वह कुछ कहता कि गिरीश मग में कॉफी घोटते हुए कमरे में आया।
"क्या बातें चल रही हैं।"
"कुछ नहीं। तुम्हारा ये दोस्त बहुत शर्मिला है।" उसने कहा।
"खुल जायेगा। अभी तो मिला है तुमसे।" गिरीश बोला था।
"अच्छा मैं चलता हूँ ।" वह उठ खड़ा हुआ था।
"पर कॉफी?"
"नहीं।आज रहने दो। फिर कभी पीऊंगा।"
"मैं इसे कुछ दूर तक छोड़ कर आता हूँ।" गिरीश ने कहा और बाहर से ताला लगा दिया।
"कैसे लगी?" गिरिश ने ही बात शुरू की।
"कौन?", उसने अनजान बनते हुए कहा।
"अरे, वो ही जिससे मिल कर आ रहे हो।"
"पर तुम मुझसे क्यों पूँछ रहे हो? तुम्हारी पत्नी है। तुम्हें पसंद है न?" उसने कहा
"मेरी पत्नी नहीं है ये।" गिरीश ने बताया।
"तो ! बिंदिया, माँग और चूड़ियां - ये सब क्या है?" उसका मुँह खुला का खुला रह गया।
"तुम्हारे घर पर क्या कर रही है? और तुमने उसे बंद क्यों कर रखा है।"
"टैक्सी है। पर रखना तो पत्नी के मेकअप में ही पड़ता है। यदि आसपास के लोगो को भनक भी लग गई तो तुम तो जानते ही हो इन्हें। क्या हाल करेंगे हम दोनों का, पता नहीं।" गिरीश बोला था।
"टैक्सी!", उसने इससे पहले इस शब्द का प्रयोग किसी युवती के लिए होता नहीं सुना था। इस दुनियादारी से वो अनजान था।
"अबे बोदूराम! कॉल गर्ल है। कॉल गर्ल तो समझते हो न?"
"क्या बात करते हो!", वह आश्चर्य चकित था।
"मैं जिस कोठे पर जाता हूँ, वँहा से भागी हुई है। उनके दलाल इसे पूरे शहर में ढूंढ़ रहे है। स्टेशन, बस अड्डा सब पर निगाह है।" गिरीश ने खुलासा किया।
"तो तुमने इसे यँहा आश्रय दे रखा है?" उसने पूछा।
"यही समझ लो।"
"और तुम अपने इस अहसान की क़ीमत भी जरूर ले रहे होंगें?"
"अब ऐसा मौका कौन हाथ से जाने देता है।" गिरीश ने ढिठाई से कहा।
"पर ये तुम्हें मिली कँहा से? और तुम्हें पुलिस का डर नहीं है।"
"कँहा से मिली? इस सवाल को छोड़ देते हैं। और जहाँ तक पुलिस का प्रश्न है, तो ये बालिग़ है और अपनी इच्छा से यँहा रुकी है। चली जायेगी जैसे ही अवसर मिलेगा।"
"तो ये सब तुम मुझे क्यों बता रहे हो?" उसने प्रश्न किया।
"वो इसलिए कि मुझे दो दिन के लिए घर जाना है। और इसे दो दिन ऐसे बन्द करके नहीं रख सकते।"
"तो?"
"तो मैं चाहता हूँ दो दिन तुम रुक जाओ इसके साथ।"
"क्या!!!ये कैसे हो सकता है?"
"क्यों नहीं हो सकता। तुम मिल तो लिए ही हो। बाकी बात मैं कर लूंगा।अब इस मामले में हर किसी को तो नहीं ला सकते न। अपने मकान मालिक को बोलो की दो दिन के लिए बाहर जा रहे हो। औऱ बैग में कपड़े डाल यँहा आ जाओ। मुझे आज रात ही निकलना है।" गिरीश बोलता जा रहा था।
उसका दिल तेज़ी से धड़क रहा था। कनपटियों पर लहू का संचार बढ़ने से कान गर्म हो रहे थे। माथे पर पसीना आ गया था।
"तो फिर आ रहे हो न।" गिरीश ने पक्का करना चाह।
उसने कोई उत्तर नहीं दिया। बस चलता ही रहा।
"देखो ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा। सोचो मत। इस में कोई खतरा नहीं है। बस दो दिन की बात है।" गिरीश ने कहा।

"हूँ।" उसने पुलकित मन से हामी भरी। गिरीश अब निश्चिन्त प्रतीत हो रहा था।कुछ दूर चल कर गिरीश वापस मुड़ गया।

और वो रेल की पटरियों पर चढ़ गया। रेल पटरियों पर चलना उसे अच्छा लगता था। बस एक गाड़ी का ही तो ध्यान रखना होता था। बाकी किसी ट्रैफिक का कोई खतरा नहीं। और वो भी उसी पटरी पर चलता था जिस पर गाड़ी सामने से आये। स्लीपर गिनता, आस पास की जंगली लता , झड़ियों को देखता वो मीलों चल सकता था। पर आज वो स्लीपर नहीं गिन रहा था। उसके मन में द्वंद चल रहा था। बार बार उस युवती का चेहरा उसके जहन में आ जाता था। कितनी मादक थी उसकी आँखें आमंत्रण देती हुई सी। भाग्य ने उसे  शायद उसी के गिरीश से मुलाकात करवाई हो। वो कल्पना कर रहा था उन पलों की जो आज रात ही साकार होने वाले थे। यँहा किसको पता चलेगा! गिरीश सही कह रहा था कि ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा।

उसके घर की और जाने वाली सड़क की पुलिया आ गई थी। वो नीचे उतर कर सड़क पर आ गया। अब वो घर की तरफ बढ़ रहा था। शाम हो चली थी। सड़क के किनारे लगी बत्तियां जल चुकी थी। उसने कलाई घड़ी पर नज़र डाली। शाम के 7 बजने वाले थे उसे कमरे पर जाकर बस दो दिन के कपड़े बैग में डालने थे।

वो घर आ चुका था। उत्सुकता इतनी थी कि भूख उड़  चुकी थी। उसमें एक दूसरी ही भूख जाग चुकी थी। उसने बैग में कपड़े डाले लिए थे। उसके सिद्धान्त उसे लगातार रोक रहे थे पर मन बेक़ाबू था। "स्वयं चल कर आये अवसर को खोना मूर्खता है।", मन ने समझाया। पर सिद्धान्त आड़े आ कर खड़े हो गए- "नहीं, ये उचित न होगा। क्या तू इतना कमज़ोर है। यही तो तेरी परीक्षा है।"

उसे लगने लगा कि वो निर्णय नहीं कर पायेगा। मन कँही अधिक शक्तिशाली हो चला था। सारी इंद्रियां अपने अपने विषयों की और दौड़ रही थी। मन रूपी रथ के बलवान अश्व हिनहिना कर खुर पटक रहे थे। उसे लगा कि उसके हाथ से लगाम बस छूटने को ही है कि तभी उसे पढ़ी हुई गीता याद हो आई । ऐसी ही विकट दुविधा की स्थिति में अर्जुन ने कहा था;

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः
पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥2.7॥

अर्जुन ने कहा था ,"कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए"।

उसे लगा कि वो अर्जुन ही है। उसने अपने  रथ की बागडोर अपने सारथी कृष्ण के हाथों में सौंप दी। प्रभु जँहा ले चलो,चलूँगा। जैसा कहोगे, करूँगा। बस! इतना सोचते ही उसके मन से मानो मनो बोझ हट गया हो । वो कब सो गया उसे नहीं पता। ऐसी सुख की नींद शायद बहुत दिनों बाद मिली थी।

सुबह पक्षियों के कलरव से उसकी आँख खुली। रात एक दुःस्वप्न की तरह थी। वो बाहर खुली छत पर आया। शीतल हवा ने उसकी नींद की खुमारी दूर की। उसने कस कर एक अंगड़ाई ली और रहा सहा आलस्य भी त्याग दिया। दूर क्षितिज पर प्राची दिशा केसर मिश्रित रोली से रंग चुकी थी। भुवन भास्कर के आने की तैयारी थी। जल्द ही लाल रंग का बड़ा सा गोला ऊपर उठा। पर उसकी अग्नि अभी शीतल थी। उसे लगा उसकी रात की अग्नि परीक्षा की आग भी शीतल हो सूर्य में समाहित हो चुकी थी। उसने तौलिया उठाया और नित्य कर्म करने चल दिया। एक बार फिर उसके सिद्धान्तों ने उसे गिरने से बचा लिया था।

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