Sunday, 18 August 2019

चातुर्मास और वैराग्य

चातुर्मास चल रहा है। 12 जुलाई, 2019 से प्रारंभ हो कर, कार्तिक मास में 9 नवम्बर, 2019 को समाप्त होगा। इन दिनों संत, मुनि, साधु, भिक्षु आदि जो शेष 8 माह भृमण करते हैं, एक स्थान पर ठहर जाते हैं। नदियां उफनती हैं, मेघ बरसते हैं। स्थान स्थान पर जल प्रलय सी होने लगती है। ऐसे में जल प्लावित स्थानों का भृमण न करके किसी एक सुभीते की जगह पर रुक जाना हर दृष्टि से ठीक लगता है। पर संतो का ये ठहराव मात्र इसलिए नहीं है कि इन दिनों यात्रा सुगम नहीं। ये तो हमें बस दिखता है। इस ठहराव का एक आध्यात्मिक कारण भी है । ये समय है अंतर्मुखी होने का। स्वयं से संवाद का। स्वयं को जानने की एक प्रक्रिया है ये ठहराव।

मेरी समझ में ये रुकना, ये ठहराव हम सभी की जिंदगी में आवश्यक है। पर हम कँहा रुकते हैं। हमारा तो मानना है कि रुकेंगे तो पीछे रह  जाएंगे। बिना ये जाने कि जीवन में रुक कर स्वयं से संवाद उतना ही आवश्यक है जितना श्वास लेना। पर हमें कँहा किसी ने ये समझाया। कब किसने ये बताया कि स्वयं से संवाद कैसे होता है और कितना आवश्यक है! बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ लीं। तथा कथित उच्च संस्थानों से डिग्रियां हांसिल कर लीं। पर इन सबसे क्या लाभ हुआ। हम पैसे कमाने की मशीन मात्र बन कर रह गए। जीवन का एक मात्र उद्देश्य पैसा ही बन कर रह गया। हम भागते रहे पैसा, और अधिक पैसा बनाने को। क्योंकि हमें सिखाया ही ये गया। और हमने पैसे की ताक़त को परखा और पाया कि हमारी शिक्षा ठीक ही तो थी। पैसा है तो सब कुछ है। भौतिकता के सभी साधन आपको उपलब्ध हैं। वरन आप हैं क्या - धरती पर रेंगते कीड़े मकोड़े!

त्याग, वैराग्य , दान इन सब को और इनसे मिलने वाले सुख को हमने जाना ही कँहा। इन्हें तो वो ही जान सकता है जो इन के लिए ही जीता हो। जिसे इनका चस्का हो। वरना क्या कारण है कि श्री राम ने राज पाट त्याग दिया। भरत जी ने अयोध्या के बाहर कुटी डाल 14 वर्ष का संन्यास स्वीकार किया। राजकुमार सिद्धार्थ भरा पूरा राजपाट और सुन्दर पत्नी को त्याग सत्य की खोज में चले गए। ऐसे अनेकों उदाहरण हैं।

चातुर्मास के नियम इसी को बल देते हैं। स्वयं का स्वयं से संवाद। जीव का आत्मा से संवाद। मैं कौन हूँ? संसार में क्यों आया हूँ? इससे पूर्व मैं कँहा था? और इसके बाद मैं कँहा जाऊंगा? ये चार प्रश्न यक्ष प्रश्न हैं। हम में से कितने ये प्रश्न स्वयं से करते हैं? कितने इनका उत्तर खोजने का प्रयत्न करते हैं? जब से संसार में आयें हैं, भाग रहे हैं श्वासों की सड़क पर। भागते भागते एक समय आता है जब ये  सड़क समाप्त हो जाती है। आगे रास्ता बंद हो जाता है। सामने गहरी खाई दिखती है और चाहे अनचाहे उस में हम धकेल दिए जाते हैं। 

इस भाग दौड़ में जो एकत्र किया सब यंही छूट जाता है। इसीलिए थोड़ा रुक के स्वयं से संवाद आवश्यक है। अभी तक नहीं रुके तो अब ठहर जाओ। चातुर्मास चल रहा है। रुको, स्वयं से संवाद करो। फिर जब दुबारा से भागना शुरू करोगे, तो भाग नहीं पाओगे। सधे कदमों से चलोगे अपने गंतव्य की और। जँहा वैराग्य का महत्व है, त्याग का सुख है, दानशीलता है । तभी अपने को सार्थक मानोगे।जीवन को मायने दे पाओगे।

Thursday, 15 August 2019

हैदराबाद डायरी - 1

गत शनिवार रात को हैदराबाद पहुंचा हूँ। बहुत बढ़िया मौसम है। दिल्ली जैसी उमस का नामो निशान तक नहीं है। मदमस्त हवा चलती है पूरे दिन। आकाश आच्छादित है बादलों से। अभी अभी वर्षा हुई है। यँहा लगातार बारिश नहीं होती। टुकड़ो में होती है। अभी फिर हल्की धूप निकल आई है। बाहर के बग़ीचे की घास धुल गई है। अभी भी पेड़ो पर ठहरी पानी की बूंदे झर रही हैं। किसी पहाड़ी स्थान सा लग रहा है। सुबह थोड़ी दूर टहलने निकला था, भांति भांति के रंग बिरंगे पक्षी दिखाई दिये थे। हरे तोतों का जोड़ा भी किल्लोल कर रहा था। पीछे की और किचन गार्डन है। कुछ समय पहले यँहा एक बड़ा सा जहरीला सांप  निकल आया था। रात को इधर आते में भय लगता है। हरी मैथी एक क्यारी में तैयार है। घीया की पौध निकल आई है, अभी समय लेगी। अभी दो चार दिन यँहा रुकूँगा। उम्मीद है मौसम ऐसा ही रहेगा।

Wednesday, 14 August 2019

हैदराबाद डायरी - 2

रात के साढ़े दस बजे हैं। हम पति पत्नी खाना खा के रोज़ रात की भांति बाहर टहलने निकल आये हैं। आसमान पर छुट पुट बादल हैं, पर चाँद निकला हुआ है। चाँदनी मद्धम है । पूरे कैम्पस में सन्नाटा पसरा है। सड़क के दोनों और सफ़ेद पट्टी सीधी पेंट की हुई है। लाल लाइटें जो सड़क के किनारे किनारे सड़क के किनारों को चिन्हित करने के लिए लगाई हुई है, जल बुझ रही हैं। सड़क के दोनों और ऊँची ऊँची वनस्पति उग आई है। किनारे किनारे चलने में भय लगता है कि कँही कोई साँप न अचानक से निकल कर सड़क पर आ  जाये। दोनों और ऊँचे ऊँचे वृक्षों  की कतारें हैं। हवा में हिलते वृक्ष एक जादुई संसार रच रहे हैं। झाड़ियों में से झींगुरों का गान सन्नाटे में संगीत की तरह लग रहा है। चलते चलते मैस पार करते हुए हम बड़े से खेल के मैदान के पास आ गए हैं जो सुबह सवेरे आबाद हो जाता है। आगे दोनों और बड़े बड़े बंगले हैं जिन में प्रत्येक के साथ बड़ा सा बगीचा है। सभी बगीचे अच्छी तरह से रखे गए हैं। कँही कँही लॉन में कुर्सियां पड़ी हैं। ज़्यादातर घरों की बत्तियां बुझ चुकी हैं। शायद लोग सो चुके हैं। हम अब वापस लौट रहे हैं। सड़क पर अँधेरा है। मैं मोबाईल की टोर्च जला के सड़क पर प्रकाश डालता हूँ। पीछे से आती एक कार की हैड लाईट हमें सड़क के किनारे हो जाने को बाध्य करती है। हम रुक कर कार के निकल जाने का इंतज़ार करते है। कार के निकल जाने के बाद पुनः सड़क पर अँधेरा पसर जाता है। कुछ आगे सड़क पर रोशनी है। हम टहलते हुए आगे बढ़ आते हैं। एक बड़ा सा कुत्ता लिए उसका मालिक हमारे पास से गुजरता है। कुत्ता हमें गौर से देखते हुए वंही रुक जाता है। मानो पट्टा छूटते ही झपटेगा। मेरी रीढ़ में एक ठंडी लहर दौड़ जाती है। हम आगे निकल जाते हैं। मुख्य द्वार के सामने से गुज़रते हुए मैं उस संतरी को देखता हूँ जो ऑटोमेटिक हथियार लिए सज़ग खड़ा है किसी भी खतरे से निपटने के लिए। इसे सुबह तक यंही इसी सजगता के साथ खड़े रहना है। धीरे धीरे टहलते हुए हम वापस आ चुके हैं। किसी ऐसी  ही शांत, हरी भरी और खुली सी जगह में रहने की मेरी बड़ी इच्छा थी। भारतीय रेल में भी ऐसे ही बहुत से स्थान हैं, पर मेरे भाग्य में तो दिल्ली महानगर ही लिखा था। अब जब सेवा निवृत्त हो चुका हूँ तो सोचता हूँ कि कुछ वर्ष कँही छोटे मंडल में बिताए होते। पर समय तो मुट्ठी में बंद रेत की भांति फिसल ही गया। जो हुआ अच्छा ही हुआ।

Saturday, 3 August 2019

इक वो भी था जमाना

पंकज उधास की  गायी एक गज़ल सुन रहा था - "दुःख सुख था एक सबका, अपना हो या बेगाना। इक वो भी था जमाना, इक ये भी ये जमाना।"

इस के बोलों के दर्द को वो ही समझ सकता है, जो हमारी पीढ़ी का है। जिसने जमाने को करवट लेते देखा है। जिसने इस दंश को झेला है वो ही इस तरह के गीतों में, नज़्मों में और ग़ज़लों में छिपे दर्द को महसूस कर सकता है।

आज साठ वर्ष की अवस्था में जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है क्या क्या पीछे छोड़ दिया।  एक आसमान था, एक चाँद था और काली रात को आसमान पर इतने सितारे थे कि हम पहेली बुझा करते थे - "एक थाल मोतियों से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा.." । एक यमुना थी जिसका पानी नील आभा लिए बहता था। नन्हीं मछलियां, टैडपोल उसमे क्रीड़ा करते साफ़ देखे जा सकते थे। चुल्लू भर भर जी भर के पीते थे। कभी कोई बीमारी नहीं हुई।  दूध से सफ़ेद बुगले और सारस यमुना जल में जी भर किल्लोल किया करते थे। हवा इतनी शुद्ध कि गहरी सांस खींच कर फेफड़ो में भरने की प्रतियोगिता होती थी हम बच्चों में।

देसी घी पीला रंग लिए दानेदार होता था। हाथ में लगा लो तो महक नहीं जाती थी। बासी रोटी पर वही कच्चा घी लगा कर , हल्का नमक, मिर्च और अमचूर बुरक के रोटी का रोल बना कर खाने का जो स्वाद था वो आज के अच्छे से अच्छे व्यंजन को मात देने वाला था। देसी घी की तो छोड़िए, वनस्पति घी जो "डालडा" और "रथ" नाम से आता था वो भी आजकल के रिफाइन्ड तेलों से कँही बेहतर था। "डालडा" का टिन का डिब्बा पीले रंग का होता था और उस पर खजूर का पेड़ बना रहता था। मैंने कई बार उसे ड्राइंग पेपर पर बनाने की कोशिश की पर वैसा बना नहीं पाया। और जिन्होंने उन दिनों के मोहन घी का स्वाद लिया है, वह ही जान सकते हैं उस अवर्णीय स्वाद को!

सब्ज़ियां बिना कीट नाशकों के उगाई जाती थी। ग्वार फली इतनी कच्ची कि थोड़ी सी अजवायन में हल्की नमक मिर्च के साथ छोंक दो तो परांठो के साथ स्वाद लेते ही बनता था। ऐसे ही मेथी दाने में बना कच्चा कांशीफल। अरबी ऐसी की अंगूठे से ही छिलका उतार लो। ऐसा ही, लोभिया फली, सेम , भिंडी आदि। मुझे याद है कि भिंडी तो हम कच्ची ही खा जाया करते थे। गर्म मसाले का नींबू अचार। शुद्ध सरसों के तेल में डला आम का अचार! वो मेथी दाने और कलौंजी की महक और वो स्वाद। परांठे में एक फाँक लपेट कर रोल बना कर जब स्कूल ले जाते थे तो हाफ टाइम तक अचार की फाँक का तेल तो परांठा पी जाता था और सूखी अचार की वो फाँक तेल से सने परांठे के हर ग्रास में जो स्वाद देती थी, सच में अवर्णीय था। घर के बने पापड़ और बड़ियों की तो बात ही कुछ और थी। क्या क्या गिनाऊँ? गेंहू में शक्ति होती थी। रोटी इतनी स्वादिष्ट बनती थी कि रूखी खा लो तो मीठी लगे।

टेलीविजन, टेलीफोन, रेफ्रिजरेटर कँहा थे। एक अदद रेडियो होता था बड़ा सा जिसमें वॉल्व होते थे क्योंकि तब तक सेमी कंडक्टर की खोज शायद नहीं हुई थी। रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस लेना पड़ता था। रफ़ी साहिब का वो " खोया खोया चाँद " आज भी जब बजता है तो मुझे उन्ही पुराने दिनों में ले जाता है। ठंडे पानी के लिए सुराई थी। आइसक्रीम घर में घड़े में बर्फ, कलमी शोरा और साबत नमक डाल कर जमाते थे।

एक साइकिल थी जो आज की महंगी से महंगी कार से कँही ज्यादा कीमती थी। वैक्स पालिश से रगड़ रगड़ के उसे इतना चमकाते थे कि कुछ समय बाद उसका रंग ही उतर जाता था।  एक एक तान बड़े जतन से चमकाई जाती थी। स्प्रिंग वाली गद्देदार गद्दी और टन टन करती घंटी बजाती जब वह साइकिल चलती थी तो जो गर्वोनोक्ति उस वक्त होती थी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मजाल है कि कोई हाथ लगा दे! अजी साहब, झगड़े की नोबत आ जाती थी। पीछे कैरियर पर बैठी पत्नी और उसकी गोद में सिमटा सा छोटा बच्चा, और आगे के डंडे पर लगी छोटी गद्दी पर बैठा बड़ा बच्चा- हम दो, हमारे दो के लिए सम्पूर्ण सवारी थी। आगे लगी टोकरी में रखी ताज़ी सब्ज़ियां, और पीछे बैठी पत्नी का लहराता पल्लू एक अलग ही नज़ारा पेश करता था।

आषाढ़ और सावन में जामुन बेचने वाले गलियों गलियों चक्कर लगाते घूमते थे। कर्कश आवाज़ में गाते थे - "जामुन काले काले राम, जामुन बड़े रसीले राम"। और मैं भाग के उसको रोक लेता था। साइकिल में पीछे बंधी बड़ी सी टोकरी से कपड़ा हटा वह जामुन तोलता था। एक मिट्टी के कुल्हड़ में डाल, नमक मिला कर  हरे पत्ते से कुल्हड़ का मुंह ढक कर खूब हिलाता था। फिर उसी पत्ते का दोना बना उस में घुले घुले नमकीन जामुन देता था। सच में, बहुत रसीले होते थे। बुढ़िया के बाल, खट्टा मीठा टाटरी वाला चूरन। गर्मियों में ताजा पेरा गन्ने का रस। बर्फ के रंग बिरंगे गोले।और न जाने क्या क्या, बेधड़क खाते पीते थे। "चिंता रहित खेलना खाना और फिरना निर्भय स्वच्छंद।  कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद। " सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां मानो हम पर अक्षरशः सार्थक थीं।

बस नहीं था तो पैसा नहीं था। पर इतना ज़रूर था कि जीवन यापन आराम से हो जाये। और इससे ज़्यादा चाह भी नहीं थी। संयुक्त परिवार थे, ख़ुशी थी, उत्साह था। सकून था। त्योहारों की उमंग थी। आज सुख सुविधा के सब साधन हैं पर सुकून नहीं है। आज सीने में जलन है और हर शख्स परेशान है। जो कुछ पाया है उसके बदले कितना कुछ पीछे छोड़ दिया है! सही है या गलत, इसका निर्णय तो समय करेगा या फिर आने वाली पीढ़ियां।