Wednesday, 14 August 2019

हैदराबाद डायरी - 2

रात के साढ़े दस बजे हैं। हम पति पत्नी खाना खा के रोज़ रात की भांति बाहर टहलने निकल आये हैं। आसमान पर छुट पुट बादल हैं, पर चाँद निकला हुआ है। चाँदनी मद्धम है । पूरे कैम्पस में सन्नाटा पसरा है। सड़क के दोनों और सफ़ेद पट्टी सीधी पेंट की हुई है। लाल लाइटें जो सड़क के किनारे किनारे सड़क के किनारों को चिन्हित करने के लिए लगाई हुई है, जल बुझ रही हैं। सड़क के दोनों और ऊँची ऊँची वनस्पति उग आई है। किनारे किनारे चलने में भय लगता है कि कँही कोई साँप न अचानक से निकल कर सड़क पर आ  जाये। दोनों और ऊँचे ऊँचे वृक्षों  की कतारें हैं। हवा में हिलते वृक्ष एक जादुई संसार रच रहे हैं। झाड़ियों में से झींगुरों का गान सन्नाटे में संगीत की तरह लग रहा है। चलते चलते मैस पार करते हुए हम बड़े से खेल के मैदान के पास आ गए हैं जो सुबह सवेरे आबाद हो जाता है। आगे दोनों और बड़े बड़े बंगले हैं जिन में प्रत्येक के साथ बड़ा सा बगीचा है। सभी बगीचे अच्छी तरह से रखे गए हैं। कँही कँही लॉन में कुर्सियां पड़ी हैं। ज़्यादातर घरों की बत्तियां बुझ चुकी हैं। शायद लोग सो चुके हैं। हम अब वापस लौट रहे हैं। सड़क पर अँधेरा है। मैं मोबाईल की टोर्च जला के सड़क पर प्रकाश डालता हूँ। पीछे से आती एक कार की हैड लाईट हमें सड़क के किनारे हो जाने को बाध्य करती है। हम रुक कर कार के निकल जाने का इंतज़ार करते है। कार के निकल जाने के बाद पुनः सड़क पर अँधेरा पसर जाता है। कुछ आगे सड़क पर रोशनी है। हम टहलते हुए आगे बढ़ आते हैं। एक बड़ा सा कुत्ता लिए उसका मालिक हमारे पास से गुजरता है। कुत्ता हमें गौर से देखते हुए वंही रुक जाता है। मानो पट्टा छूटते ही झपटेगा। मेरी रीढ़ में एक ठंडी लहर दौड़ जाती है। हम आगे निकल जाते हैं। मुख्य द्वार के सामने से गुज़रते हुए मैं उस संतरी को देखता हूँ जो ऑटोमेटिक हथियार लिए सज़ग खड़ा है किसी भी खतरे से निपटने के लिए। इसे सुबह तक यंही इसी सजगता के साथ खड़े रहना है। धीरे धीरे टहलते हुए हम वापस आ चुके हैं। किसी ऐसी  ही शांत, हरी भरी और खुली सी जगह में रहने की मेरी बड़ी इच्छा थी। भारतीय रेल में भी ऐसे ही बहुत से स्थान हैं, पर मेरे भाग्य में तो दिल्ली महानगर ही लिखा था। अब जब सेवा निवृत्त हो चुका हूँ तो सोचता हूँ कि कुछ वर्ष कँही छोटे मंडल में बिताए होते। पर समय तो मुट्ठी में बंद रेत की भांति फिसल ही गया। जो हुआ अच्छा ही हुआ।

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