पंकज उधास की गायी एक गज़ल सुन रहा था - "दुःख सुख था एक सबका, अपना हो या बेगाना। इक वो भी था जमाना, इक ये भी ये जमाना।"
इस के बोलों के दर्द को वो ही समझ सकता है, जो हमारी पीढ़ी का है। जिसने जमाने को करवट लेते देखा है। जिसने इस दंश को झेला है वो ही इस तरह के गीतों में, नज़्मों में और ग़ज़लों में छिपे दर्द को महसूस कर सकता है।
आज साठ वर्ष की अवस्था में जब पीछे मुड़ कर देखता हूँ तो लगता है क्या क्या पीछे छोड़ दिया। एक आसमान था, एक चाँद था और काली रात को आसमान पर इतने सितारे थे कि हम पहेली बुझा करते थे - "एक थाल मोतियों से भरा, सबके सिर पर औंधा धरा.." । एक यमुना थी जिसका पानी नील आभा लिए बहता था। नन्हीं मछलियां, टैडपोल उसमे क्रीड़ा करते साफ़ देखे जा सकते थे। चुल्लू भर भर जी भर के पीते थे। कभी कोई बीमारी नहीं हुई। दूध से सफ़ेद बुगले और सारस यमुना जल में जी भर किल्लोल किया करते थे। हवा इतनी शुद्ध कि गहरी सांस खींच कर फेफड़ो में भरने की प्रतियोगिता होती थी हम बच्चों में।
देसी घी पीला रंग लिए दानेदार होता था। हाथ में लगा लो तो महक नहीं जाती थी। बासी रोटी पर वही कच्चा घी लगा कर , हल्का नमक, मिर्च और अमचूर बुरक के रोटी का रोल बना कर खाने का जो स्वाद था वो आज के अच्छे से अच्छे व्यंजन को मात देने वाला था। देसी घी की तो छोड़िए, वनस्पति घी जो "डालडा" और "रथ" नाम से आता था वो भी आजकल के रिफाइन्ड तेलों से कँही बेहतर था। "डालडा" का टिन का डिब्बा पीले रंग का होता था और उस पर खजूर का पेड़ बना रहता था। मैंने कई बार उसे ड्राइंग पेपर पर बनाने की कोशिश की पर वैसा बना नहीं पाया। और जिन्होंने उन दिनों के मोहन घी का स्वाद लिया है, वह ही जान सकते हैं उस अवर्णीय स्वाद को!
सब्ज़ियां बिना कीट नाशकों के उगाई जाती थी। ग्वार फली इतनी कच्ची कि थोड़ी सी अजवायन में हल्की नमक मिर्च के साथ छोंक दो तो परांठो के साथ स्वाद लेते ही बनता था। ऐसे ही मेथी दाने में बना कच्चा कांशीफल। अरबी ऐसी की अंगूठे से ही छिलका उतार लो। ऐसा ही, लोभिया फली, सेम , भिंडी आदि। मुझे याद है कि भिंडी तो हम कच्ची ही खा जाया करते थे। गर्म मसाले का नींबू अचार। शुद्ध सरसों के तेल में डला आम का अचार! वो मेथी दाने और कलौंजी की महक और वो स्वाद। परांठे में एक फाँक लपेट कर रोल बना कर जब स्कूल ले जाते थे तो हाफ टाइम तक अचार की फाँक का तेल तो परांठा पी जाता था और सूखी अचार की वो फाँक तेल से सने परांठे के हर ग्रास में जो स्वाद देती थी, सच में अवर्णीय था। घर के बने पापड़ और बड़ियों की तो बात ही कुछ और थी। क्या क्या गिनाऊँ? गेंहू में शक्ति होती थी। रोटी इतनी स्वादिष्ट बनती थी कि रूखी खा लो तो मीठी लगे।
टेलीविजन, टेलीफोन, रेफ्रिजरेटर कँहा थे। एक अदद रेडियो होता था बड़ा सा जिसमें वॉल्व होते थे क्योंकि तब तक सेमी कंडक्टर की खोज शायद नहीं हुई थी। रेडियो सुनने के लिए भी लाईसेंस लेना पड़ता था। रफ़ी साहिब का वो " खोया खोया चाँद " आज भी जब बजता है तो मुझे उन्ही पुराने दिनों में ले जाता है। ठंडे पानी के लिए सुराई थी। आइसक्रीम घर में घड़े में बर्फ, कलमी शोरा और साबत नमक डाल कर जमाते थे।
एक साइकिल थी जो आज की महंगी से महंगी कार से कँही ज्यादा कीमती थी। वैक्स पालिश से रगड़ रगड़ के उसे इतना चमकाते थे कि कुछ समय बाद उसका रंग ही उतर जाता था। एक एक तान बड़े जतन से चमकाई जाती थी। स्प्रिंग वाली गद्देदार गद्दी और टन टन करती घंटी बजाती जब वह साइकिल चलती थी तो जो गर्वोनोक्ति उस वक्त होती थी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मजाल है कि कोई हाथ लगा दे! अजी साहब, झगड़े की नोबत आ जाती थी। पीछे कैरियर पर बैठी पत्नी और उसकी गोद में सिमटा सा छोटा बच्चा, और आगे के डंडे पर लगी छोटी गद्दी पर बैठा बड़ा बच्चा- हम दो, हमारे दो के लिए सम्पूर्ण सवारी थी। आगे लगी टोकरी में रखी ताज़ी सब्ज़ियां, और पीछे बैठी पत्नी का लहराता पल्लू एक अलग ही नज़ारा पेश करता था।
आषाढ़ और सावन में जामुन बेचने वाले गलियों गलियों चक्कर लगाते घूमते थे। कर्कश आवाज़ में गाते थे - "जामुन काले काले राम, जामुन बड़े रसीले राम"। और मैं भाग के उसको रोक लेता था। साइकिल में पीछे बंधी बड़ी सी टोकरी से कपड़ा हटा वह जामुन तोलता था। एक मिट्टी के कुल्हड़ में डाल, नमक मिला कर हरे पत्ते से कुल्हड़ का मुंह ढक कर खूब हिलाता था। फिर उसी पत्ते का दोना बना उस में घुले घुले नमकीन जामुन देता था। सच में, बहुत रसीले होते थे। बुढ़िया के बाल, खट्टा मीठा टाटरी वाला चूरन। गर्मियों में ताजा पेरा गन्ने का रस। बर्फ के रंग बिरंगे गोले।और न जाने क्या क्या, बेधड़क खाते पीते थे। "चिंता रहित खेलना खाना और फिरना निर्भय स्वच्छंद। कैसे भूला जा सकता है बचपन का अतुलित आनंद। " सुभद्रा कुमारी चौहान की ये पंक्तियां मानो हम पर अक्षरशः सार्थक थीं।
बस नहीं था तो पैसा नहीं था। पर इतना ज़रूर था कि जीवन यापन आराम से हो जाये। और इससे ज़्यादा चाह भी नहीं थी। संयुक्त परिवार थे, ख़ुशी थी, उत्साह था। सकून था। त्योहारों की उमंग थी। आज सुख सुविधा के सब साधन हैं पर सुकून नहीं है। आज सीने में जलन है और हर शख्स परेशान है। जो कुछ पाया है उसके बदले कितना कुछ पीछे छोड़ दिया है! सही है या गलत, इसका निर्णय तो समय करेगा या फिर आने वाली पीढ़ियां।
No comments:
Post a Comment