कार्तिक पूर्णिमा आने वाली थी। इस पर्व पर बड़ा स्न्नान होता है। लाखों श्रद्धालु तीर्थों पर जमा होते हैं। इस पर्व पर गोवर्धन भी श्रद्धालुओं से भरा था। ऐसे में हम वँहा पँहुचे। बस अड्डे से ही भीड़ से सामना हुआ। कार का परिक्रमा मार्ग पर जाना निषेध था। हमने बाहर ही बस अड्डे के पास की पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर दी। अब समस्या थी कि सामान के साथ धर्मशाला तक कैसे जाएं। बैटरी से चलने वाली रिक्शाओं की लाइन लगी थी पर कोई भी अंदर जाने को तैयार नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से एक रिक्शे वाला राजी हुआ। उसने एक मोटरसाइकिल पर एक छकड़े जैसी कार्ट बांध रखी थी जिसमें आमने सामने 6 लोग बैठ सकते थे। जैसे तैसे हम सामान के साथ उसमें ठुसें। छोटी संकरी गलियों से आड़े तिरछे होते हुए वो जुगाड़ चला। हमें ऐसा लग रहा था कि अब मोटर साईकिल निकली तब निकली। जैसे तैसे हम धर्मशाला पँहुचे। भीड़ अपने चरम पर थी। लोग नीचे लेट कर दंडोति परिक्रमा कर रहे थे। बिना ये परवाह किये कि जुगाड़ की रिक्शा से वो कुचले जा सकते हैं। मुकुट के सामने भारी भीड़ जमा थी। लाउडस्पीकर पर लगातार भक्तों से कहा जा रहा था कि अंदर आएं और दर्शन का लाभ लें। बाहर दूध के नाम पर पतला दूध मिला पानी बेचने वालों की दुकानें सजी थी। आते जाते लोगों के सामने जल से भरी झारी बढ़ा कर हाथ "ख़ासा" करने को कह रहे थे। हमारा जुगाड़ आगे बढ़ चुका था। चकलेश्वर से कुछ पहले धर्मशाला के आगे हम उतरे। सामने के होटल में दो बड़े कमरे लिए और सामान रखा। अंधेरा घिर आया था। सुबह का हल्का नाश्ता ही किया था। भूख लग आयी थी। अख़बार बिछा के घर से लाई पूरियां और पराँठे, सब्ज़ी आचार के साथ खोल लिए। सभी ने खाना खाया ।यही रात का भोजन था। भोजनोपरांत मैं पास ही बने अपने पुरोहित के घर गया और अगले दिन की पूजा की व्यवस्था की। कोई पचास वर्ष पहले जब मैं नाना जी के साथ यँहा आता था तो वह इसी घर में ठहरते थे। आँगन में जो कुंआ था वो आज भी है। आँगन भी क़रीब क़रीब वैसा ही है। सामने बरामदे में बना गिरिराज गोवर्धन का मंदिर भी अपनी जगह ही है। अलबत्ता नीचे और छत पर बने कमरे जीर्ण शीर्ण हो गए हैं। समय की दीमक इसकी दीवारों को खा गई है। पुरोहित के पिता को गुज़रे भी जमाना बीत गया। अब तो उनका पुत्र ही हमारी पुरोताही करता है। इसने विवाह नहीं किया। छोटे भाई के परिवार है। सब इसी मकान में रहते हैं। मुझे अच्छे से याद है जब हम यँहा ठहरते थे तो हमारे कमरे की खिड़की से मानसी गंगा दिखती थी। ये मकान बिल्कुल मानसी गंगा के तट पर बना है। इसकी लहरे इस मकान की दीवारों से टकराती थी। आँगन में पड़ी खाट पर मैं बैठ गया और पुरोहित से अगले दिन की पूजा के बारे में चर्चा की। हमें परिक्रमा पर निकलना था। मैंने पुरोहित से विदा ली और वापस अपने कमरे में आ गया। मैं, मेरी पत्नी, छोटा भाई और उसकी पत्नी और बेटा - हम पांच जने परिक्रमा के लिए निकल पड़े। बीच वाले भाई और उसकी पत्नी दोपहर में ही परिक्रमा कर चुके थे। हम पैदल चलते हुए मुकुट के मंदिर तक आये। दर्शन किये और मानसी गंगा से आचमन लिया फिर पैदल ही चलते हुए बाहर थाने तक आए। वँहा गिरिराज मिष्ठान भंडार पर गर्मा गर्म कढ़ाई का दूध पिया और एक बैटरी रिक्शा तय करी। हम सभी इसमें बैठे और परिक्रमा को चल पड़े। पैदल परिक्रमा अब होती नहीं है। घुटने, कमर और पैर सब उम्र के चलते साथ छोड़ने लगे हैं। रिक्शा शीघ्र ही परिक्रमा मार्ग पर आ चुका था। आसमान पर चाँद चमक रहा था। हवा के साथ ठंड बढ़ गई थी। मेरी पत्नी ने शॉल लिया हुआ था और मैंने पूरी बाजू की जैकेट पहन रखी थी। छोटा भाई और उसका बेटा मात्र टी शर्ट ही पहने था। उन्हें ठंड लग रही थी। गिरिराज पर्वत की ओर दीपों की कतार जग मगा रही थी। लोग उच्च स्वर में भजन गाते हुए पैदल परिक्रमा कर रहे थे। दोंनो ओर जंगल और रात का समय। ठंडी हवा तेज़ी से बहने लगी थी। दिन भर के थके होने से मुझे नींद आ रही थी। मन करता था कि ये रिक्शा सब तरफ़ से ढक जाए और अंदर के गर्म वातावरण में मैं सो जाऊं। आन्यौर कब आ गया पता नही पड़ा। दिन का समय होता तो अंदर जा कर सद्दू पांडे की बैठक के दर्शन करते। उनके वंशज आज भी यँहा निवास करते हैं। पर रात में ये संभव नहीं था। जल्द ही हम संकर्षण कुंड के सामने थे। कुछ समय पहले ये कुंड जर्जर अवस्था में था। अभी एक आध वर्ष पूर्व ही इसका जीर्णोद्धार हुआ है। अब ये एक दर्शनीय स्थल है। इसके पास ही कुम्भनदास जी की समाधि है जो खस्ता हाल है। टूटे कुल्हड़ और जीर्ण शीर्ण अवस्था। पता नहीं इसकी सुध क्यों नहीं ली ? फिर भी यँहा आकर शीश झुकाने से परम् शांति का अनुभव होता है। रात होने के कारण हम यँहा रुके नहीं और आगे बढ़ गए। हमनें पूँछरी के लौठा में रिक्शा रुकवाई। हम सभी वँहा उतरे, मंदिर की परिक्रमा कर दण्डवत की।एक हट्टा कट्टे साधु महाराज ललाट पर भभूत लगाए वँहा तख्त पर विराजमान थे। ऐसे साधु अधिकतर कुम्भ के मेले में देखे जाते हैं। लोग उनके चरणस्पर्श कर आशिर्वाद ले रहे थे। हम मंदिर के चबूतरे से नीचे उतर आए और रिक्शा में जा बैठे। एक अदद कम्बल की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी के पास अंदर एक भव्य मंदिर बना हुआ है। यँहा नयनाभिराम छवियां है और यात्रियों के ठहरने की उचित व्यवस्था भी है। ये बिल्कुल गोवर्धन की तलहटी से लगा है। दिन का समय ही तो इसके बाहर से गिरिराज पर्वत के सुंदर दर्शन होते हैं। गिरिराज को अपने दायें रखते हुए हम आगे बढ़ते हैं। जगह जगह दीप दान किया हुआ है। दीपों की लंबी कतार बहुत सुंदर लग रही थी। जतीपुरा से पहले, यदि दिन में आप गोवर्धन की तलहटी से परिक्रमा कर रहे हैं तो एक और स्थान पड़ता है जँहा इंद्र का मान प्रभु ने तोड़ा था और इंद्र ने फिर प्रभु के चरणों में पूजा सामग्री भेंट कर अपना अपराध क्षमा करवाया था। यँहा जतीपुरा जैसी न तो गहमागहमी ही है और न ही दुकानें। एक असीम शांति है यँहा , जो बीच बीच में पेड़ो की डालों पर उछल कूद करते बंदरों की आवाज़ से भंग होती है। या फिर कँही दूर, मोर की कूक सुनाई पड़ जाती है। दोपहर के समय तो पर्वत पर चढ़ी गय्या औऱ बकरियां भी पेड़ो के बीच नज़र आ जाती हैं। पर अभी तो रात है और हम तलहटी से बाहर सड़क पर हैं तो दूर से ही सिर झुका कर प्रणाम कर लेते हैं। जल्दी ही हम जतीपुरा आ पँहुचे। जतीपुरा इस 21 किलोमीटर की यात्रा में एक बड़े स्टेशन जैसा है। यँहा हमेशा - दिन हो या रात, आपको श्रद्धालुओं की भीड़ मिल जाएगी। मुख्य परिक्रमा मार्ग से अंदर आते हुए मिष्ठानों की महक से आप सरोबार हो जाते हैं। आलू की जलेबियां जो चाशनी में लिपटी हैं, कलाकन्द, केसर पेड़ा, बूरा से लिपटा पेड़ा, और न जाने क्या क्या है भोग लगाने को। कड़ाहे का गर्म दूध, दही की लस्सी , समोसे, कचौरी, ब्रेड पकौड़ा और भी बहुत कुछ है यँहा अपनी क्षुधा मिटाने को। यात्री यँहा खाते पीते हैं, मुखार बिंद पर दूध चढ़ाते हैं, भोग लगाते हैं और कुछ विश्राम कर परिक्रमा की थकान मिटाते हैं और आगे की परिक्रमा के लिए तरोताज़ा हो लेते हैं। इसके सामने ही महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। अभी तो उसमें ताला लगा था। हमनें मुखारविंद पर ढोक लगाया, बैठक जी की परिक्रमा की और बाहर जाने के लिए चल पड़े। तभी छोटे भाई की पत्नी की जलेबी की इच्छा हुई। भतीजे को भेज कर जलेबी मंगवाईं, उसका आस्वादन किया और बढ़ गए। कुछ आगे जा कर ही दंडोति शिला है। उसीके पास से पर्वत के ऊपर बने मंदिर को रास्ता जाता है। इसी शिला में महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी का तेज़ समा गया था। इस शिला की सात परिक्रमा करने से गिरिराज की सात कोस की एक परिक्रमा का फल मिलता है। हमनें इसकी परिक्रमा की, दण्डवत किया और बाहर की और चल पड़े। दिन के समय आज्ञा लेकर ऊपर बने मंदिर में जाना एक अलग सा अनुभव है। मैंने कई बार इसके दर्शनों का लाभ लिया है। चढ़ने में फिसलने का भय तो रहता है क्योंकि शिलाएँ काफी चिकनी हैं, पर पकड़ पकड़ कर चढ़ना हो ही जाता है। यूँ तो गिरिराज पर चरण रखना अपराध की श्रेणी में आता है, परन्तु आज्ञा मांग कर यँहा चढ़ा जा सकता है। ऊपर मंदिर में एक शय्या सुसज़्ज़ित है जिस पर प्रभु विश्राम करते हैं। और भी बहुत कुछ दर्शन के योग्य है। अंदर से एक गुप्त मार्ग है जिसमें से प्रभु आज भी रथ पर अस्वार ही रोज़ रात्रि में नाथद्वारा जाते है। हम अब तक बाहर आ गए थे जँहा रिक्शा हमारी प्रतीक्षा में था। हम पुनः चल पड़े। शीघ्र ही हमनें बड़ी परिक्रमा समाप्त कर ली थी। अब हम बीच बाज़ार से होते हुए राधा कुंड की परिक्रमा की और अग्रसर थे।