Sunday, 17 November 2019

गोवर्धन यात्रा - गतांक से आगे

12 किलोमीटर की बड़ी परिक्रमा समाप्त कर अब हम 9 किलोमीटर की छोटी परिक्रमा की और जा रहे थे। रात होने के बावजूद यात्रियों की भीड़ बनी हुई थी। उबड़ खाबड़ सड़क से होते हुए जल्द ही हम परिक्रमा मार्ग पर आ गए। इस मार्ग में गिरिराज के दर्शन उतने सुलभ नहीं हैं जितने बड़ी परिक्रमा मार्ग में हैं। अभी तो अँधेरा था पर दिन में भी गिरिराज के दर्शन सुलभ नहीं हैं। मान्यता ये है कि प्रतिदिन गिरिराज तिल तिल कर के भूमि में समाते जा रहे हैं। और मैं इसे मानता भी हूँ क्योंकि आज से 50 वर्ष पूर्व इस स्थान पर गिरिराज की ऊंचाई काफी थी जो अब देखने को नहीं मिलती। हमारे बाईं और खेत थे और दाहिने हाथ की तरफ गिरिराज। बैटरी रिक्शा बिना कोई आवाज़ किये फ़र फ़र आगे बढ़ रहा था। उस मार्ग पर कुछ गौ शालाएं भी हैं जो रात में बंद थीं। दिन के समय यँहा गय्या को चारा, गुड़ और चूरी खिलाने की अपनी ही संतुष्टि है। गौर धाम से पहले एक छोटी नहर आती है जिसे मेरे दिवंगत श्वसुर साहिब "बम्बा" कहते थे। कभी इसके  पानी में लताएं पड़ी रहती थीं और पानी खड़ा प्रतीत होता था। अब कुछ समय से इसे साफ़ कर दिया गया है। पैदल परिक्रमा पर इसके मुंडेरों पर बैठ कर मैं कुछ विश्राम करता था। अब हम गौर धाम के आगे से निकल रहे थे। ये गौड़ सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा बनाया गया विस्तृत कॉम्प्लेक्स है। जिनमें अधिकतर बंगाली है। ये चैतन्य महाप्रभु को मानते है। इससे आगे बढ़ने पर हम राधा कुंड आ गए। रिक्शा वाले ने हमें बाहर ही उतार दिया क्योंकि अंदर रिक्शा प्रतिबन्धित थी। करीब 750 मीटर की दूरी चल कर हम राधा कुंड आ पँहुचे। ये दो कुंड हैं जिन्हें राधा और कृष्ण कुंड के नाम से जाना जाता है। कहते हैं अरिष्टासुर के वध के बाद श्री राधा ने कृष्ण से कहा कि आपको जो हत्या लगी है उससे स्न्नान से ही निवृत्त हो सकते हैं । तब श्री कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे मात्र से ये कुंड खोदा था। इस पर श्री राधा ने अपने कंगन से पास ही में एक और कुंड खोद दिया था। श्री कृष्ण के आवाह्न से समस्त तीर्थो ने मूर्तिमान हो अपना जल इन कुंडों में डाला था। आज भी निःसन्तान दंपति अहोईअष्टमी को सन्तान प्राप्ति के लिए इन कुंडों में स्न्नान करते हैं।  यँहा कछुए बहुत हैं। मैंने नीचे उतर कर देखा तो समस्त ओर काई की मोटी परत थी। बड़ी मुश्किल से काई हटा कर थोड़ा जल ले सिर पर छिड़का। यँहा बाज़ार में काफ़ी रौनक थी। तुलसी की कंठी, रुद्राक्ष माला, सुन्दर तस्वीरें, धोती, बगल बन्दी औऱ भी भांति भांति की पोशाकों से बाजार अटा पड़ा था। मेरी पत्नी ने मेरे लिए पीले रंग की एक धोती और बगल बन्दी ली जिसे मैंने अगले दिन पहना। बाहर रिक्शा वाला बेचैन था। जैसे ही उसने हमें आते देखा उसके चहरे पर शांति के भाव आ गए। हम फिर से उसमें सवार हुए और आगे चल पड़े। अब हम वापस लौट रहे थे। गिरिराज एक बार पुनः दृष्टि गोचर होने लगे। हमनें एक बार फिर वो नहर पार की। जगह जगह दुकानदार पैरो की थकान दूर करने की मशीनें लिए बैठे थे। कुछ यात्री उनमें पैर डाल कर परिक्रमा की थकान मिटा भी रहे थे। इसी मार्ग पर गिर्राज की तलहटी में ग्वाल पोखरा है। पिछली बार जब मैं यँहा गया था तो इस स्थल का जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा था। ये मुख्य मार्ग से अंदर जा कर है। एक छोटे से मंदिर के अलावा यँहा एक पोखर है । नीचे जाने के लिए चारों और सीढ़िया बनी है। बन्दर इस पोखर में कूद कर खूब नहाते हैं। यँहा श्री कृष्ण ग्वाल बालों के संग गय्या चराते हुए आते थे । श्री राधा जी भी यँहा सखियों के संग आया करती थीं। रात में अंदर जाना उचित नहीं था। हम आगे निकल आये। इसी मार्ग में थोड़ा आगे कुसुम सरोवर के पश्चिम में उद्धव कुंड है। यँहा की लताओं में उद्धव जी आज भी निवास करते हैं। यहीं पर पुरातन समय में भागवत की कथा में जब कीर्तन हो रहा था लताओं के मध्य से उद्धव जी प्रकट हो गए थे। आज भी रात्रि के समय गोविंद कुंड और उद्धव कुंड में आचमन व स्न्नान वर्जित है। 

हम अब कुसुम सरोवर के सामने थे। यह सरोवर  450 फीट लंबा और 60 फीट गहरा है। यह चारों तरफ से सीढ़ियों से घिरा है। सरोवर के आस पास कई कदम्ब के पेड़ हैं।श्री राधारानी की सखी कुसमा के नाम पर इस सरोवर का ये नाम पड़ा। यहां भगवान श्री कृष्ण राधाजी के श्रृंगार के लिए फूल एकत्र कर मालायें गुंथा करते थे। इसमें कई छत्रियां भव्य कलात्मकता को लिए खड़ी हैं। जाट राजा सूरजमल ने इसका जीर्णोद्धार कराकर इसे ये कलात्मक रूप प्रदान किया था।

अभी हम कुछ ही आगे बढे थे तो देखा कि चाची जी अपने बेटे के साथ पैदल परिक्रमा कर रही थीं। हमने रिक्शा रुकवाई और चाची जी से थोड़ी सी शेष बच गई परिक्रमा रिक्शा से करने को कहा। पर उन्होंने शेष परिक्रमा भी पैदल ही करने की जिद की। हम कान वाले गिरिराज के सामने रुके। मंदिर खुला था । हमनें दर्शन का लाभ लिया, परिक्रमा की। इस गिरिराज शिला में एक कान जैसी आकृति होने से इसे "कान वाले गिरिराज" के नाम से जाना जाता है। भक्त गण इनके कान में अपनी मनोकामना कहते हैं और वह पूरी भी होती है। यँहा से मानसी गंगा कुछ ही दूरी पर है जँहा आ कर ये 21 किलोमीटर की परिक्रमा पूर्ण होती है। हमारी परिक्रमा समाप्त ही गई थी। हम अपने कमरों में वापस लौट आये। थके होने के कारण शीघ्र ही नींद आ गई।

 इस परिक्रमा मार्ग पर कई ऐसे स्थल हैं जिन्हें हम नहीं जानते। ये भूमि वास्तव में विलक्षण है। बृज की ये 84 कोस की भूमि जिसके अंतर्गत वृन्दावन, बरसाना, मथुरा, गोकुल व गोवेर्धन जैसे क्षेत्र आते हैं, राजस्थान व हरियाणा जिले के कई गांवों से होकर गुजरती है। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा में  कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवरें, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बृज  की ये भूमि श्री राधा रानी के लिए विशेष रूप से श्री कृष्ण गोलोक से लाये हैं।  इस भूमि का प्रलय काल में भी नाश नहीं होता क्योंकि ये पुनः गोलोक में चली जाने वाली है। इसकी अधिष्ठात्री स्वयं श्री राधा रानी हैं। ऐसी महिमा है इस भूमि की !

अगले दिन हम सुबह जल्दी नहा कर  तैयार हो गए। हमें गय्या के चारे के लिए गोशाला जाना था। श्री वल्लभ गोशाला बड़ी परिक्रमा के मार्ग के अंत से कुछ दूरी पर है। जब तक हम लौट कर आये, पुरोहित ने पूजा की व्यवथा कर ली थी। हमने मानसी गंगा के तट पर स्थित मंदिर में पूजा सम्पन्न की। मंदिर के बिल्कुल पास श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। हमनें वँहा दर्शन किये। झारी जल और प्रसाद लिया और लौट आये। होटल के सामने ही स्थित हमारे समाज की धर्मशाला है जिसमें अन्नकूट का आयोजन था। हमारे आने का एक उद्देश्य ये भी था कि इस भव्य आयेजन में सम्मिलित हो सकें। यँहा अन्नकूट के दर्शन किये। पंगत में बैठ प्रसाद ग्रहण किया। अब बस लौटने की तैयारी थी। संध्या चार बजे के आसपास हम गोवर्धन- मथुरा मार्ग पर दिल्ली के लिए बढ़ रहे थे। 21 किलोमीटर का मार्ग तय करके हम गोवर्धन चौक पँहुचे जँहा से हम नेशनल हाई वे 2 पर मुड़ गए। सूर्य अपना दिन भर का सफ़र समाप्त कर अस्ताचल की ओर चल दिये थे। और हमारा भी दो दिन की इस यात्रा का अंत हो रहा था। पीछे छूटती जा रही थी श्री कृष्ण की लीला स्थली जँहा आज से कोई 5000 वर्ष पूर्व श्री कृष्ण के चरण पड़े थे। 

Friday, 15 November 2019

गोवर्धन यात्रा वृत्तांत

कार्तिक पूर्णिमा आने वाली थी। इस पर्व पर बड़ा स्न्नान होता है। लाखों श्रद्धालु तीर्थों पर जमा होते हैं। इस पर्व पर गोवर्धन भी श्रद्धालुओं से भरा था। ऐसे में हम वँहा पँहुचे। बस अड्डे से ही भीड़ से सामना हुआ। कार का परिक्रमा मार्ग पर जाना निषेध था। हमने बाहर ही बस अड्डे के पास की पार्किंग में गाड़ी खड़ी कर दी। अब समस्या थी कि सामान के साथ धर्मशाला तक कैसे जाएं। बैटरी से चलने वाली रिक्शाओं की लाइन लगी थी पर कोई भी अंदर जाने को तैयार नहीं हुआ। बड़ी मुश्किल से एक  रिक्शे वाला राजी हुआ। उसने एक मोटरसाइकिल पर एक छकड़े जैसी कार्ट बांध रखी थी जिसमें आमने सामने 6 लोग बैठ सकते थे। जैसे तैसे हम सामान के साथ उसमें ठुसें। छोटी संकरी गलियों से आड़े तिरछे होते हुए वो जुगाड़ चला। हमें ऐसा लग रहा था कि अब मोटर साईकिल निकली तब निकली। जैसे तैसे हम धर्मशाला पँहुचे। भीड़ अपने चरम पर थी। लोग नीचे लेट कर दंडोति परिक्रमा कर रहे थे। बिना ये परवाह किये कि जुगाड़ की रिक्शा से वो कुचले जा सकते हैं। मुकुट के सामने भारी भीड़ जमा थी। लाउडस्पीकर पर लगातार भक्तों से कहा जा रहा था कि अंदर आएं और दर्शन का लाभ लें। बाहर दूध के नाम पर पतला दूध मिला पानी बेचने वालों की दुकानें सजी थी। आते जाते लोगों के सामने जल से भरी झारी बढ़ा कर हाथ "ख़ासा" करने को कह रहे थे। हमारा जुगाड़ आगे बढ़ चुका था। चकलेश्वर से कुछ पहले धर्मशाला के आगे हम उतरे। सामने के होटल में दो बड़े कमरे लिए और सामान रखा। अंधेरा घिर आया था। सुबह का हल्का नाश्ता ही किया था। भूख लग आयी थी। अख़बार बिछा के घर से लाई पूरियां और पराँठे, सब्ज़ी आचार के साथ खोल लिए। सभी ने खाना खाया ।यही रात का भोजन था। भोजनोपरांत मैं पास ही बने अपने पुरोहित के घर गया और अगले दिन की पूजा की व्यवस्था की। कोई पचास वर्ष पहले जब मैं नाना जी के साथ यँहा आता था तो वह इसी घर में ठहरते थे। आँगन में जो कुंआ था वो आज भी है। आँगन भी क़रीब क़रीब वैसा ही है। सामने बरामदे में बना गिरिराज गोवर्धन का मंदिर भी अपनी जगह ही है। अलबत्ता नीचे और छत पर बने कमरे जीर्ण शीर्ण हो गए हैं। समय की दीमक इसकी दीवारों को खा गई है। पुरोहित के पिता को गुज़रे भी जमाना बीत गया। अब तो उनका पुत्र ही हमारी पुरोताही करता है। इसने विवाह नहीं किया। छोटे भाई के परिवार है। सब इसी मकान में रहते हैं। मुझे अच्छे से याद है जब हम यँहा ठहरते थे तो हमारे कमरे की खिड़की से मानसी गंगा दिखती थी। ये मकान बिल्कुल मानसी गंगा के तट पर बना है। इसकी लहरे इस मकान की दीवारों से टकराती थी। आँगन में पड़ी खाट पर मैं बैठ गया और पुरोहित से अगले दिन की पूजा के बारे में चर्चा की। हमें परिक्रमा पर निकलना था। मैंने पुरोहित से विदा ली और वापस अपने कमरे में आ गया। मैं, मेरी पत्नी, छोटा भाई और उसकी पत्नी और बेटा - हम पांच जने परिक्रमा के लिए निकल पड़े। बीच वाले भाई और उसकी पत्नी दोपहर में ही परिक्रमा कर चुके थे। हम पैदल चलते हुए मुकुट के मंदिर तक आये। दर्शन किये और मानसी गंगा से आचमन लिया फिर पैदल ही चलते हुए बाहर थाने तक आए। वँहा गिरिराज मिष्ठान भंडार पर गर्मा गर्म कढ़ाई का दूध पिया और एक बैटरी रिक्शा तय करी। हम सभी इसमें बैठे और परिक्रमा को चल पड़े। पैदल परिक्रमा अब होती नहीं है। घुटने, कमर और पैर सब उम्र के चलते साथ छोड़ने लगे हैं। रिक्शा शीघ्र ही परिक्रमा मार्ग पर आ चुका था। आसमान पर चाँद चमक रहा था। हवा के साथ ठंड बढ़ गई थी। मेरी पत्नी ने शॉल लिया हुआ था और मैंने पूरी बाजू की जैकेट पहन रखी थी। छोटा भाई और उसका बेटा मात्र टी शर्ट ही पहने था। उन्हें ठंड लग रही थी। गिरिराज पर्वत की ओर दीपों की कतार जग मगा रही थी। लोग उच्च स्वर में भजन गाते हुए पैदल परिक्रमा कर रहे थे। दोंनो ओर जंगल और रात का समय। ठंडी हवा तेज़ी से बहने लगी थी। दिन भर के थके होने से मुझे नींद आ रही थी। मन करता था कि ये रिक्शा सब तरफ़ से ढक जाए और अंदर के गर्म वातावरण में मैं सो जाऊं। आन्यौर कब आ गया पता नही पड़ा। दिन का समय होता तो अंदर जा कर सद्दू पांडे की बैठक के दर्शन करते। उनके वंशज आज भी यँहा निवास करते हैं। पर रात में ये संभव नहीं था। जल्द ही हम संकर्षण कुंड के सामने थे। कुछ समय पहले ये कुंड जर्जर अवस्था में था। अभी एक आध वर्ष पूर्व ही इसका जीर्णोद्धार हुआ है। अब ये एक दर्शनीय स्थल है। इसके पास ही कुम्भनदास जी की समाधि है जो खस्ता हाल है। टूटे कुल्हड़ और जीर्ण शीर्ण अवस्था। पता नहीं इसकी सुध क्यों नहीं ली ? फिर भी यँहा आकर शीश झुकाने से परम् शांति का अनुभव होता है। रात होने के कारण हम यँहा रुके नहीं और आगे बढ़ गए। हमनें पूँछरी के लौठा में रिक्शा रुकवाई। हम सभी वँहा उतरे, मंदिर की परिक्रमा कर दण्डवत की।एक हट्टा कट्टे साधु महाराज ललाट पर भभूत लगाए वँहा तख्त पर विराजमान थे। ऐसे साधु अधिकतर कुम्भ के मेले में देखे जाते हैं। लोग उनके चरणस्पर्श कर आशिर्वाद ले रहे थे। हम मंदिर के चबूतरे से नीचे उतर आए और रिक्शा में जा बैठे। एक अदद कम्बल की सख्त आवश्यकता महसूस हो रही थी। इसी के पास अंदर एक भव्य मंदिर बना हुआ है। यँहा नयनाभिराम छवियां है और यात्रियों के ठहरने की उचित व्यवस्था भी है। ये बिल्कुल गोवर्धन की तलहटी से लगा है। दिन का समय ही तो इसके बाहर से गिरिराज पर्वत के सुंदर दर्शन होते हैं। गिरिराज को अपने दायें रखते हुए हम आगे बढ़ते हैं। जगह जगह दीप दान किया हुआ है। दीपों की लंबी कतार बहुत सुंदर लग रही थी। जतीपुरा से पहले, यदि दिन में आप गोवर्धन की तलहटी से परिक्रमा कर रहे हैं तो एक और स्थान पड़ता है जँहा इंद्र का मान प्रभु ने तोड़ा था और इंद्र ने फिर प्रभु के चरणों में पूजा सामग्री भेंट कर अपना अपराध क्षमा करवाया था। यँहा जतीपुरा जैसी न तो गहमागहमी ही है और न ही दुकानें। एक असीम शांति है यँहा , जो बीच बीच में पेड़ो की डालों पर उछल कूद करते बंदरों की आवाज़ से भंग होती है। या फिर कँही दूर, मोर की कूक सुनाई पड़ जाती है। दोपहर के समय तो पर्वत पर चढ़ी गय्या औऱ बकरियां भी पेड़ो के बीच नज़र आ जाती हैं। पर अभी तो रात है और हम तलहटी से बाहर सड़क पर हैं तो दूर से ही सिर झुका कर प्रणाम कर लेते हैं। जल्दी ही हम जतीपुरा आ पँहुचे। जतीपुरा इस 21 किलोमीटर की यात्रा में एक बड़े स्टेशन जैसा है। यँहा हमेशा - दिन हो या रात, आपको श्रद्धालुओं की भीड़ मिल जाएगी। मुख्य परिक्रमा मार्ग से अंदर आते हुए मिष्ठानों की महक से आप सरोबार हो जाते हैं। आलू की जलेबियां जो चाशनी में लिपटी हैं, कलाकन्द, केसर पेड़ा, बूरा से लिपटा पेड़ा, और न जाने क्या क्या है भोग लगाने को। कड़ाहे का गर्म दूध, दही की लस्सी , समोसे, कचौरी, ब्रेड पकौड़ा और भी बहुत कुछ है यँहा अपनी क्षुधा मिटाने को। यात्री यँहा खाते पीते हैं, मुखार बिंद पर दूध चढ़ाते हैं, भोग लगाते हैं और कुछ विश्राम कर परिक्रमा की थकान मिटाते हैं और आगे की परिक्रमा के लिए तरोताज़ा हो लेते हैं। इसके सामने ही महाप्रभु श्री  वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। अभी तो उसमें ताला लगा था। हमनें मुखारविंद पर ढोक लगाया, बैठक जी की परिक्रमा की और बाहर जाने के लिए चल पड़े। तभी छोटे भाई की पत्नी की जलेबी की इच्छा हुई। भतीजे को भेज कर जलेबी मंगवाईं, उसका आस्वादन किया और बढ़ गए। कुछ आगे जा कर ही दंडोति शिला है। उसीके पास से पर्वत के ऊपर बने मंदिर को रास्ता जाता है। इसी शिला में महाप्रभु श्री  वल्लभाचार्य जी का  तेज़  समा गया था। इस शिला की सात परिक्रमा करने से गिरिराज की सात कोस की एक परिक्रमा का फल मिलता है। हमनें इसकी परिक्रमा की, दण्डवत किया और बाहर की और चल पड़े। दिन के समय आज्ञा लेकर ऊपर बने मंदिर में जाना एक अलग सा अनुभव है। मैंने कई बार इसके दर्शनों का लाभ लिया है। चढ़ने में फिसलने का भय तो रहता है क्योंकि शिलाएँ काफी चिकनी हैं, पर पकड़ पकड़ कर चढ़ना हो ही जाता है। यूँ तो गिरिराज पर चरण रखना अपराध की श्रेणी में आता है, परन्तु आज्ञा मांग कर यँहा चढ़ा जा सकता है। ऊपर मंदिर में एक शय्या सुसज़्ज़ित है जिस पर प्रभु विश्राम करते हैं। और भी बहुत कुछ दर्शन के योग्य है। अंदर से एक गुप्त मार्ग है जिसमें से प्रभु आज भी रथ पर अस्वार ही रोज़ रात्रि में नाथद्वारा जाते है। हम अब तक बाहर आ गए थे जँहा रिक्शा हमारी प्रतीक्षा में था। हम पुनः चल पड़े।  शीघ्र ही हमनें बड़ी परिक्रमा समाप्त कर ली थी। अब हम बीच बाज़ार से होते हुए राधा कुंड की परिक्रमा की और अग्रसर थे।

Saturday, 2 November 2019

दिल्ली का पॉल्युशन

अजीब सा मौसम हो गया है दिल्ली का। कई दिनों से सूर्य के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहेंगें , इसमें क्या बात है! सर्दियों में तो ऐसा ही रहता है। पर साहब, सर्दी कहाँ हैं! सर्दियों की भी खूब कही। दिल्ली की सर्दी तो वो ही जान सकता है जो हमारी उम्र का हो। आज की पौध क्या जाने कि कैसी कड़ाकेदार ठंड पड़ती थी यहाँ। अब तो कहाँ सर्दी और कहाँ वो मौसम! अब तो यहाँ घुटन ही घुटन है। भीतर घुटन, बाहर घुटन। जहाँ देखो दम घोंटू वातावरण हैं। कहते हैं, पराली जलने से ऐसा हुआ है। अरे! क्या पहले पराली नहीं जलती थी? पर ऐसी घुटन जो पिछले 8- 10 वर्षों से दिल्ली और आसपास के लोगों का दम घोट रही है, नहीं हुआ करती थी। उन दिनों तो घर घर में अंगीठी सुलगाई जाती थी, जिसका गाढ़ा सफेद काला धुंआ सुबह शाम खूब उठता था। चूल्हे में लकड़ियां सुलगे बिना खाना कहाँ बनता था? फूंक मार मार के या गत्ते से हवा कर बड़ी मुश्किल से लौं पकड़ती थीं। स्टीम इंजन से खूब धुंआ उड़ता था। ये इन्द्रप्रस्थ के पावर प्लांट की चिमनियां रात दिन धुंआ उगलती थीं। पर इन सबके बावजूद भी ऐसा दम घोटने वाला वातावरण नहीं था। आप कह सकते हैं कि वाहन बहुत कम थे। लोग अधिकतर साईकल पर चलते थे। अब तर्क तो पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से दिया जा सकता है। पर एक बात तो आप मानेंगे कि दिल्ली को किसी की नज़र लग गई है। देखते देखते बहुत बदल गई है हमारी दिल्ली।  कुछ तो हवा में ज़हर घुला है और रही सही कसर इन मीडिया वालों ने पूरी कर दी है। रोज़ एयर क्वालिटी इंडेक्स बताया जा रहा है। जो कि खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। जिस इंडेक्स को 50 से नीचे होना चाहिए वो 478 का स्तर छू रहा है। कहा जा रहा है कि आप रोज 20 सिगरेट पीने के बराबर धुंआ अपने फेफड़ो में ले रहे हैं। मुझे तो ये पता होता तो शायद मैं कब से सिगरेट पीना शुरू कर देता। अरे जब बिना पिये भी पीने का नुकसान झेलना पड़ रहा है तो पी के ही क्यों न मज़ा लिया जाय। कल बता रहे थे कि इस पॉल्युशन की वजह से दिल्ली के लोगों का जीवन 10 वर्ष कम हो चुका है। अब मेरा तो ये मानना है कि व्यक्ति की मृत्यु का समय, स्थान और तिथि जन्म के साथ ही निश्चित होती है। इसमें कैसी फ़ेर बदल! खैर तर्क कुतर्क यँहा भी किया जा सकता है। और मेरे निजी विचार आप जरूर मानें ही, ऐसा भी मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं तो बस इस धुँए से भरे, घुटे घुटे से निराश मौसम की बात कर रहा था, जिसमें न घर में चैन न बाहर चैन। इस पर सुबह सुबह फेस बुक पर किसी सम्बन्धी के दुनियां से चले जाने की खबर मिल जाये तो मन और बोझिल हो जाता है। "जौक' ने कहा था - "इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी कदर-ए-सुखन। कौन जाए "जौक" पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर" । आज होते तो यक़ीनन कहते, - " क्यूँ रहें "जौक" दिल्ली की गलियों में यहाँ। चल चलें हम तो दकन में साफ़ है आबो हवा।" दिल्ली वास्तव में रहने योग्य नहीं रह गई है। कल मेरी बेटी से बात हो रही थी। उसने कहा कि आप लोग कनाडा आ जाओ, यहाँ कोई पॉल्युशन नहीं है। मुझे उत्सुकता हुई कि देखें वहाँ का एयर क्वालिटी इंडेक्स  क्या  है। जब चैक किया तो मात्र 17 था। पर वहाँ की सर्दी भी हमारी तो बर्दाश्त की सीमा से बाहर है। कोई दो वर्ष पहले हम दिसंबर में वँहा थे। तापमान था -35 डिग्री सेल्सियस। पर यहाँ भी तो अति हो चुकी है। कब तक झेलेंगे। दिल्ली छोड़ने के अलावा कोइ और विकल्प नज़र नहीं आता। मौसम कुछ साफ़ हो तो बाहर निकलें। घर में भी कब तक बंद रहा जा सकता है!