Saturday, 2 November 2019

दिल्ली का पॉल्युशन

अजीब सा मौसम हो गया है दिल्ली का। कई दिनों से सूर्य के दर्शन दुर्लभ हैं। आप कहेंगें , इसमें क्या बात है! सर्दियों में तो ऐसा ही रहता है। पर साहब, सर्दी कहाँ हैं! सर्दियों की भी खूब कही। दिल्ली की सर्दी तो वो ही जान सकता है जो हमारी उम्र का हो। आज की पौध क्या जाने कि कैसी कड़ाकेदार ठंड पड़ती थी यहाँ। अब तो कहाँ सर्दी और कहाँ वो मौसम! अब तो यहाँ घुटन ही घुटन है। भीतर घुटन, बाहर घुटन। जहाँ देखो दम घोंटू वातावरण हैं। कहते हैं, पराली जलने से ऐसा हुआ है। अरे! क्या पहले पराली नहीं जलती थी? पर ऐसी घुटन जो पिछले 8- 10 वर्षों से दिल्ली और आसपास के लोगों का दम घोट रही है, नहीं हुआ करती थी। उन दिनों तो घर घर में अंगीठी सुलगाई जाती थी, जिसका गाढ़ा सफेद काला धुंआ सुबह शाम खूब उठता था। चूल्हे में लकड़ियां सुलगे बिना खाना कहाँ बनता था? फूंक मार मार के या गत्ते से हवा कर बड़ी मुश्किल से लौं पकड़ती थीं। स्टीम इंजन से खूब धुंआ उड़ता था। ये इन्द्रप्रस्थ के पावर प्लांट की चिमनियां रात दिन धुंआ उगलती थीं। पर इन सबके बावजूद भी ऐसा दम घोटने वाला वातावरण नहीं था। आप कह सकते हैं कि वाहन बहुत कम थे। लोग अधिकतर साईकल पर चलते थे। अब तर्क तो पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ़ से दिया जा सकता है। पर एक बात तो आप मानेंगे कि दिल्ली को किसी की नज़र लग गई है। देखते देखते बहुत बदल गई है हमारी दिल्ली।  कुछ तो हवा में ज़हर घुला है और रही सही कसर इन मीडिया वालों ने पूरी कर दी है। रोज़ एयर क्वालिटी इंडेक्स बताया जा रहा है। जो कि खतरनाक स्तर पर पहुँच चुका है। जिस इंडेक्स को 50 से नीचे होना चाहिए वो 478 का स्तर छू रहा है। कहा जा रहा है कि आप रोज 20 सिगरेट पीने के बराबर धुंआ अपने फेफड़ो में ले रहे हैं। मुझे तो ये पता होता तो शायद मैं कब से सिगरेट पीना शुरू कर देता। अरे जब बिना पिये भी पीने का नुकसान झेलना पड़ रहा है तो पी के ही क्यों न मज़ा लिया जाय। कल बता रहे थे कि इस पॉल्युशन की वजह से दिल्ली के लोगों का जीवन 10 वर्ष कम हो चुका है। अब मेरा तो ये मानना है कि व्यक्ति की मृत्यु का समय, स्थान और तिथि जन्म के साथ ही निश्चित होती है। इसमें कैसी फ़ेर बदल! खैर तर्क कुतर्क यँहा भी किया जा सकता है। और मेरे निजी विचार आप जरूर मानें ही, ऐसा भी मेरा कोई पूर्वाग्रह नहीं है। मैं तो बस इस धुँए से भरे, घुटे घुटे से निराश मौसम की बात कर रहा था, जिसमें न घर में चैन न बाहर चैन। इस पर सुबह सुबह फेस बुक पर किसी सम्बन्धी के दुनियां से चले जाने की खबर मिल जाये तो मन और बोझिल हो जाता है। "जौक' ने कहा था - "इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी कदर-ए-सुखन। कौन जाए "जौक" पर दिल्ली की गलियां छोड़ कर" । आज होते तो यक़ीनन कहते, - " क्यूँ रहें "जौक" दिल्ली की गलियों में यहाँ। चल चलें हम तो दकन में साफ़ है आबो हवा।" दिल्ली वास्तव में रहने योग्य नहीं रह गई है। कल मेरी बेटी से बात हो रही थी। उसने कहा कि आप लोग कनाडा आ जाओ, यहाँ कोई पॉल्युशन नहीं है। मुझे उत्सुकता हुई कि देखें वहाँ का एयर क्वालिटी इंडेक्स  क्या  है। जब चैक किया तो मात्र 17 था। पर वहाँ की सर्दी भी हमारी तो बर्दाश्त की सीमा से बाहर है। कोई दो वर्ष पहले हम दिसंबर में वँहा थे। तापमान था -35 डिग्री सेल्सियस। पर यहाँ भी तो अति हो चुकी है। कब तक झेलेंगे। दिल्ली छोड़ने के अलावा कोइ और विकल्प नज़र नहीं आता। मौसम कुछ साफ़ हो तो बाहर निकलें। घर में भी कब तक बंद रहा जा सकता है!

No comments:

Post a Comment