12 किलोमीटर की बड़ी परिक्रमा समाप्त कर अब हम 9 किलोमीटर की छोटी परिक्रमा की और जा रहे थे। रात होने के बावजूद यात्रियों की भीड़ बनी हुई थी। उबड़ खाबड़ सड़क से होते हुए जल्द ही हम परिक्रमा मार्ग पर आ गए। इस मार्ग में गिरिराज के दर्शन उतने सुलभ नहीं हैं जितने बड़ी परिक्रमा मार्ग में हैं। अभी तो अँधेरा था पर दिन में भी गिरिराज के दर्शन सुलभ नहीं हैं। मान्यता ये है कि प्रतिदिन गिरिराज तिल तिल कर के भूमि में समाते जा रहे हैं। और मैं इसे मानता भी हूँ क्योंकि आज से 50 वर्ष पूर्व इस स्थान पर गिरिराज की ऊंचाई काफी थी जो अब देखने को नहीं मिलती। हमारे बाईं और खेत थे और दाहिने हाथ की तरफ गिरिराज। बैटरी रिक्शा बिना कोई आवाज़ किये फ़र फ़र आगे बढ़ रहा था। उस मार्ग पर कुछ गौ शालाएं भी हैं जो रात में बंद थीं। दिन के समय यँहा गय्या को चारा, गुड़ और चूरी खिलाने की अपनी ही संतुष्टि है। गौर धाम से पहले एक छोटी नहर आती है जिसे मेरे दिवंगत श्वसुर साहिब "बम्बा" कहते थे। कभी इसके पानी में लताएं पड़ी रहती थीं और पानी खड़ा प्रतीत होता था। अब कुछ समय से इसे साफ़ कर दिया गया है। पैदल परिक्रमा पर इसके मुंडेरों पर बैठ कर मैं कुछ विश्राम करता था। अब हम गौर धाम के आगे से निकल रहे थे। ये गौड़ सम्प्रदाय के अनुयायियों द्वारा बनाया गया विस्तृत कॉम्प्लेक्स है। जिनमें अधिकतर बंगाली है। ये चैतन्य महाप्रभु को मानते है। इससे आगे बढ़ने पर हम राधा कुंड आ गए। रिक्शा वाले ने हमें बाहर ही उतार दिया क्योंकि अंदर रिक्शा प्रतिबन्धित थी। करीब 750 मीटर की दूरी चल कर हम राधा कुंड आ पँहुचे। ये दो कुंड हैं जिन्हें राधा और कृष्ण कुंड के नाम से जाना जाता है। कहते हैं अरिष्टासुर के वध के बाद श्री राधा ने कृष्ण से कहा कि आपको जो हत्या लगी है उससे स्न्नान से ही निवृत्त हो सकते हैं । तब श्री कृष्ण ने अपने पैर के अंगूठे मात्र से ये कुंड खोदा था। इस पर श्री राधा ने अपने कंगन से पास ही में एक और कुंड खोद दिया था। श्री कृष्ण के आवाह्न से समस्त तीर्थो ने मूर्तिमान हो अपना जल इन कुंडों में डाला था। आज भी निःसन्तान दंपति अहोईअष्टमी को सन्तान प्राप्ति के लिए इन कुंडों में स्न्नान करते हैं। यँहा कछुए बहुत हैं। मैंने नीचे उतर कर देखा तो समस्त ओर काई की मोटी परत थी। बड़ी मुश्किल से काई हटा कर थोड़ा जल ले सिर पर छिड़का। यँहा बाज़ार में काफ़ी रौनक थी। तुलसी की कंठी, रुद्राक्ष माला, सुन्दर तस्वीरें, धोती, बगल बन्दी औऱ भी भांति भांति की पोशाकों से बाजार अटा पड़ा था। मेरी पत्नी ने मेरे लिए पीले रंग की एक धोती और बगल बन्दी ली जिसे मैंने अगले दिन पहना। बाहर रिक्शा वाला बेचैन था। जैसे ही उसने हमें आते देखा उसके चहरे पर शांति के भाव आ गए। हम फिर से उसमें सवार हुए और आगे चल पड़े। अब हम वापस लौट रहे थे। गिरिराज एक बार पुनः दृष्टि गोचर होने लगे। हमनें एक बार फिर वो नहर पार की। जगह जगह दुकानदार पैरो की थकान दूर करने की मशीनें लिए बैठे थे। कुछ यात्री उनमें पैर डाल कर परिक्रमा की थकान मिटा भी रहे थे। इसी मार्ग पर गिर्राज की तलहटी में ग्वाल पोखरा है। पिछली बार जब मैं यँहा गया था तो इस स्थल का जीर्णोद्धार का कार्य चल रहा था। ये मुख्य मार्ग से अंदर जा कर है। एक छोटे से मंदिर के अलावा यँहा एक पोखर है । नीचे जाने के लिए चारों और सीढ़िया बनी है। बन्दर इस पोखर में कूद कर खूब नहाते हैं। यँहा श्री कृष्ण ग्वाल बालों के संग गय्या चराते हुए आते थे । श्री राधा जी भी यँहा सखियों के संग आया करती थीं। रात में अंदर जाना उचित नहीं था। हम आगे निकल आये। इसी मार्ग में थोड़ा आगे कुसुम सरोवर के पश्चिम में उद्धव कुंड है। यँहा की लताओं में उद्धव जी आज भी निवास करते हैं। यहीं पर पुरातन समय में भागवत की कथा में जब कीर्तन हो रहा था लताओं के मध्य से उद्धव जी प्रकट हो गए थे। आज भी रात्रि के समय गोविंद कुंड और उद्धव कुंड में आचमन व स्न्नान वर्जित है।
हम अब कुसुम सरोवर के सामने थे। यह सरोवर 450 फीट लंबा और 60 फीट गहरा है। यह चारों तरफ से सीढ़ियों से घिरा है। सरोवर के आस पास कई कदम्ब के पेड़ हैं।श्री राधारानी की सखी कुसमा के नाम पर इस सरोवर का ये नाम पड़ा। यहां भगवान श्री कृष्ण राधाजी के श्रृंगार के लिए फूल एकत्र कर मालायें गुंथा करते थे। इसमें कई छत्रियां भव्य कलात्मकता को लिए खड़ी हैं। जाट राजा सूरजमल ने इसका जीर्णोद्धार कराकर इसे ये कलात्मक रूप प्रदान किया था।
अभी हम कुछ ही आगे बढे थे तो देखा कि चाची जी अपने बेटे के साथ पैदल परिक्रमा कर रही थीं। हमने रिक्शा रुकवाई और चाची जी से थोड़ी सी शेष बच गई परिक्रमा रिक्शा से करने को कहा। पर उन्होंने शेष परिक्रमा भी पैदल ही करने की जिद की। हम कान वाले गिरिराज के सामने रुके। मंदिर खुला था । हमनें दर्शन का लाभ लिया, परिक्रमा की। इस गिरिराज शिला में एक कान जैसी आकृति होने से इसे "कान वाले गिरिराज" के नाम से जाना जाता है। भक्त गण इनके कान में अपनी मनोकामना कहते हैं और वह पूरी भी होती है। यँहा से मानसी गंगा कुछ ही दूरी पर है जँहा आ कर ये 21 किलोमीटर की परिक्रमा पूर्ण होती है। हमारी परिक्रमा समाप्त ही गई थी। हम अपने कमरों में वापस लौट आये। थके होने के कारण शीघ्र ही नींद आ गई।
इस परिक्रमा मार्ग पर कई ऐसे स्थल हैं जिन्हें हम नहीं जानते। ये भूमि वास्तव में विलक्षण है। बृज की ये 84 कोस की भूमि जिसके अंतर्गत वृन्दावन, बरसाना, मथुरा, गोकुल व गोवेर्धन जैसे क्षेत्र आते हैं, राजस्थान व हरियाणा जिले के कई गांवों से होकर गुजरती है। करीब 268 किलोमीटर परिक्रमा में कृष्ण की लीलाओं से जुड़ी 1100 सरोवरें, 36 वन-उपवन, पहाड़-पर्वत पड़ते हैं। बृज की ये भूमि श्री राधा रानी के लिए विशेष रूप से श्री कृष्ण गोलोक से लाये हैं। इस भूमि का प्रलय काल में भी नाश नहीं होता क्योंकि ये पुनः गोलोक में चली जाने वाली है। इसकी अधिष्ठात्री स्वयं श्री राधा रानी हैं। ऐसी महिमा है इस भूमि की !
अगले दिन हम सुबह जल्दी नहा कर तैयार हो गए। हमें गय्या के चारे के लिए गोशाला जाना था। श्री वल्लभ गोशाला बड़ी परिक्रमा के मार्ग के अंत से कुछ दूरी पर है। जब तक हम लौट कर आये, पुरोहित ने पूजा की व्यवथा कर ली थी। हमने मानसी गंगा के तट पर स्थित मंदिर में पूजा सम्पन्न की। मंदिर के बिल्कुल पास श्री वल्लभाचार्य जी की बैठक जी हैं। हमनें वँहा दर्शन किये। झारी जल और प्रसाद लिया और लौट आये। होटल के सामने ही स्थित हमारे समाज की धर्मशाला है जिसमें अन्नकूट का आयोजन था। हमारे आने का एक उद्देश्य ये भी था कि इस भव्य आयेजन में सम्मिलित हो सकें। यँहा अन्नकूट के दर्शन किये। पंगत में बैठ प्रसाद ग्रहण किया। अब बस लौटने की तैयारी थी। संध्या चार बजे के आसपास हम गोवर्धन- मथुरा मार्ग पर दिल्ली के लिए बढ़ रहे थे। 21 किलोमीटर का मार्ग तय करके हम गोवर्धन चौक पँहुचे जँहा से हम नेशनल हाई वे 2 पर मुड़ गए। सूर्य अपना दिन भर का सफ़र समाप्त कर अस्ताचल की ओर चल दिये थे। और हमारा भी दो दिन की इस यात्रा का अंत हो रहा था। पीछे छूटती जा रही थी श्री कृष्ण की लीला स्थली जँहा आज से कोई 5000 वर्ष पूर्व श्री कृष्ण के चरण पड़े थे।
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