इतना ही नहीं, ये भी पता चला कि थाली, घन्टी और शंखनाद से खेतों में विषाणु नष्ट हो जाते हैं। वो बात अलग है कि दिल्ली जैसे महानगर में खेत खलिहान बचे ही कितने हैं। मुझे व्यक्तिगत रूप से इन जीवाणुओं और विषाणुओं में कोई दिलचस्पी नहीं है। ये जिनका क्षेत्र है वह ही जाने। बहरहाल हाथ धोये जा रहा हूँ।
वैसे हमारे परिवार में हाथ धोने की पुरानी परम्परा है। बचपन में माँ हाथ धुलवाती थी अब पत्नी धुलवाती है। धुले हाथ भी धुलवा ही देती है। पीछे से यदि हाथ गीला न हो तो उसका मानना है कि हाथ धुले ही नहीं। कई बार तो मैं खीझ भी जाता हूँ कि कहो तो कंधे तक धो लूं!
मैं कोरोना वायरस पर कुछ नहीं लिखूंगा ये मैंने सोचा है। अरे, न तो मैं कोई चिकित्सक हूँ और न ही माइक्रोबायलॉजी के क्षेत्र से हूं। मैं तो सरल ह्रदय लेखक हूँ जिसे अपने आस पास की प्रकृति बहुत सुहाती है। जिसे वर्षा से पहले धरा से उठती मिट्टी की सुगंध नासा छिद्रों में गहरे तक भरना बहुत आनन्दित करता है। जिसे फूल,तितलियाँ, भँवरे अच्छे लगते है। जो अभी भी , जीवन की संध्या में भी , एक बच्चा ही है। जिसे सुबह सुबह उगते सूर्य की लाली भाती है। चंद्रमा की शीतलता जिसे भीतर तक शीतल कर देती है। जो प्रभु की इस प्रकृति को जी भर के आत्मसात करना चाहता है। मुझे इन विषाणुओं और जीवाणुओं से क्या काम!
घर में बंद रहना भी एक सज़ा सी है। मुझे सोना बहुत पसंद है। तकिया मुँह पर डाल कमरे में अंधेरा कर, अपनी कल्पना के संसार मे विचरते हुए मैं कब निद्रा में लीन हो जाता हूँ पता ही नहीं चलता। पर सोया भी जाये तो कितना? दिन में सो लूँ तो रात्रि में नींद नहीं आती। फिर मैं अपना कैमरा निकाल लेता हूँ और बाहर कॉलोनी में आ जाता हूँ। पर फ़ोटोग्राफ़ी के लिए भी तो नई नई लोकेशन चाहिए। वो ही फूल, वो ही पेड़, वो ही पौधे, वो ही पक्षी और वो ही बन्दर। आख़िर कोई कितनी फ़ोटो खींचे? कुछ ही देर में कैमरा वापस रख देता हूँ।
फेस बुक खोलो या व्हाट्सएप सब कोरोना से संक्रमित हैं। आख़िर करें क्या? ये एक बड़ा प्रश्न है। सोचता हूँ, कुछ समय बाद तो ये सामान्य दिनचर्या हो जाने वाली है। रिटायरमेंट के बाद तो लॉक डाउन होना ही है। बस बाहर निकलने पर प्रतिबंध नहीं होगा। और न ही होगा कोरोना का भय। तब की तब सोचेंगे। अभी तो पलकें भारी हो रही हैं। एक झपकी ले ली जाए।
बाहर कोई पक्षी बहुत ही मीठे स्वर में बोल रहा है। मानो लोरी सुना रहा हो। ऐसा ही सन्नाटा है। माँ की गोद में साडी का पल्लू ढके मैं सोने का उपक्रम कर रहा हूं। माँ धीरे धीरे थपकी दे रही है। चन्दा मामा दूर के ..उसकी लोरी जारी है। पास कँही कोई हैंड पम्प चला रहा है। पलके बोझिल हैं और मैं सो गया हूँ। स्वपन जारी है....
No comments:
Post a Comment