Wednesday, 22 April 2020

अर्थ का अनर्थ

इन दिनों जब विश्व कोरोना महामारी से त्रस्त है, एक संदेश खूब वायरल हो रहा है जिसमें श्री रामचरितमानस के उत्तरकांड की निम्न चौपाइयों के माध्यम से अनर्गल व्याख्या करते हुए ये कहा जा रहा है कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने कोरोना की भविष्यवाणी तब ही कर दी थी। संदेश कुछ इस प्रकार से है:

"रामायण के दोहा नंबर 120 में लिखा है जब पृथ्वी पर निंदा बढ़ जाएगी पाप बढ़ जाएंगे तब चमगादरअवतरित होंगे और चारों तरफ उनसे संबंधित बीमारी फैल जाएंगी और लोग मरेंगे और दोहा नंबर 121 में लिखा है की एक बीमारी जिसमें नर मरेंगे उसकी सिर्फ एक दवा है प्रभु भजन दान और समाधि में रहना यानी  लोक डाउन।"

और यह संदेश शिक्षित व्यक्ति भी बिना सोचे समझे, धड़ाधड़ आगे प्रेषित करते चले जा रहे हैं। जिन चौपाइयों और दोहे को इस संदेश से जोड़ा गया है वह मैं नीचे दे रहा हूँ।

सब कै निंदा जे जड़ करहीं। ते चमगादुर होइ अवतरहीं॥

सुनहु तात अब मानस रोगा। जिन्ह ते दु:ख पावहिं सब लोगा॥

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला। तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला।।

काम बात कफ लोभ अपारा। क्रोध पित्त नित छाती जारा।।

एक ब्याधि बस नर मरहिं ए असाधि बहु ब्याधि।

पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि॥

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी। सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥

मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥

मैं कोई मानस का मर्मज्ञ तो नहीं पर बचपन से मानस पढ़ता रहा हूँ इसलिए इतना अवश्य जानता हूँ कि इस संदेश में इन चौपाइयों को कैसे तोड़ा मरोड़ा गया है। आइए इस का संदर्भ देखते हैं। उपरोक्त चौपाइयां उत्तरकाण्ड से उधृत हैं। प्रस्तुत प्रसंग में कागभुशुण्डि और गरुड़ जी आपस में संवाद कर रहे हैं। गुरुड़ जी द्वारा निम्न सात प्रश्न किये गए;

1 सबसे दुर्लभ शरीर कौन सा है?

2 सबसे बड़ा दुःख कौनसा है?

3.सबसे बड़ा सुख कौनसा है?

4.संत और असंत का मर्म क्या है?

5.महान पुण्य कौनसा है?

6.सबसे भयंकर पाप कौनसा है?

7. मानस रोग कौन कौन से हैं?

इन्हीं का उत्तर देते हुए छटवें प्रश्न के उत्तर में काकभुशुण्डि जी कहते हैं कि परनिन्दा के समान कोई पाप नहीं है। आगे इसका फल बताते हुए वे बताते हैं कि गुरु की, शंकर जी की, ब्राह्मणों की, देवताओं की, वेदों की और संतो की निंदा करने वाले मनुष्य किस किस योनि में जन्म लेते हैं। (ये इन चौपाइयों में नहीं है) और अंत में कहते हैं कि वो मूर्ख मनुष्य जो उपरोक्त सभी की  निंदा करते  हैं, वह अगले जन्म में चमगादड़ योनि में जन्म लेते हैं।  (ये सबसे निकृष्ट योनि मानी गई है।) इसके बाद कागभुशुण्डि जी अंतिम प्रश्न का उत्तर देते हुए बताते हैं कि मानसिक रोग कौन कौन से हैं जिनसे सब दुःख पाते हैं। कहते हैं कि सब मानस रोगों की जड़ अज्ञान ही है अज्ञान से और बहुत सी मानसिक व्याधियां जन्म लेती हैं। (आगे मानसिक रोगों को समझाने के लिए शारीरिक व्याधियों से तुलना करते हैं।) काम जो है उसे वात जानो, और लोभ को कफ़ समझो। क्रोध तो मानो पित्त ही है जिससे सदा छाती जलती रहती है। (आयुर्वेद सभी शारीरिक रोगों की जड़ में कफ़, वात और पित्त की बात करता है। जब तक ये तीनो सामंजस्य में रहते हैं, मनुष्य स्वस्थ रहता है। इनमें से एक भी बिगड़ जाए तो शरीर में रोग की उत्तपत्ति हो जाती है। इन्हीं को इंगित कर गोस्वामी जी मानसिक रोग समझा रहे हैं।) आगे कहते हैं और यदि ये तीनों - काम, क्रोध और लोभ मिल जाएं तो भयंकर सन्निपात रोग हो जाता है। (अर्थात मनुष्य अपने होश खो बैठता है।) आगे बताते हैं कि जितनी भी कामनाएं हैं, ये कभी न खत्म होने वाली हैं। ये अनन्त, अधूरी कामनाएं मनुष्य को शूल सी चुभती रहती हैं। इस संसार में एक ही (शारीरिक) रोग से मनुष्य मर जाता है तो फिर ये मानसिक रोग तो असाध्य हैं। ऐसी दशा में मनुष्य शान्ति (समाधि) को कैसे प्राप्त कर सकता है?  आगे कहते हैं कि ये मैंने कुछ मानस रोग बताए हैं जो संसार में हैं तो सबको परन्तु इन्हें जान कोई बिरला ही पाया है।(देखा जाय तो संसार मे सभी काम, क्रोध और लोभ से ग्रस्त हैं। पर मनुष्य इन्हें रोग मानता ही नहीं। और जब मानता ही नहीं कि वह रोगी है तो इनकी औषधि क्यों कर करेगा।) आगे इनकी औषधि बताते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा संयोग बने कि मनुष्य पर प्रभु राम की कृपा हो और उसका अज्ञान नष्ट हो जाये जो समस्त विकारों की जड़ है तभी ये सारे रोग नष्ट हो सकते हैं। 

ये तो हुआ उपरोक्त चौपाइयों का भावार्थ। कोई मानस मर्मज्ञ ही इनकी विस्तृत व्याख्या कर सकता है। परन्तु यँहा उसकी आवश्यकता नहीं है। अब देखिए इन चौपाइयों और दोहे का क्या ही अनर्थ किया है। चमगादड़ का नाम देखते ही उसे करोना से जोड़ दिया। और समाधि को लॉक डाउन बना दिया। प्रबुद्ध जनों से मेरा निवेदन है कि बिना जाने समझे इस तरह के संदेश आगे न प्रेषित करें। मानस की प्रत्येक चौपाई मन्त्रवत है। उसका ऐसा घोर अनर्थ करना सर्वथा अनुचित है।

भावार्थ की अशुद्धियों के लिए ज्ञानीजन मुझे क्षमा करें। प्रभु से प्रार्थना है कि विश्व को जल्द रोग मुक्त करें जिससे मानव कल्याण हो।



Sunday, 19 April 2020

मानव और प्रकृति

कल शाम अचानक तेज़ हवाएं चलने लगीं। आसमान काले बादलों से आच्छादित हो गया। और बारिश शुरू हो गई। मैं ड्राईंग रूम में खिड़की के पास लगे सोफ़े पर बैठा था। अक्सर धूल के कारण बंद रहने वाली खिड़की का एक शीशा आज खुला था। हवा के झोंके पास लगे पाम की पत्तियों से खिड़की की जाली बजा रहे थे। शीशा खुला रहने से हवा ने ड्राईंग रूम में अनाधिकार प्रवेश कर लिया था। मेरी पत्नी शीशा बंद करना चाहती थी पर मैंने मना कर दिया। बारिश की बूंदों के साथ मिट्टी की सौंधी सुगन्ध नासा छिद्रों से होती हुई सीधी ह्रदय तक उतर गई। मैंने लम्बी श्वास ली। मैं उस भीनी सी महक को अपने भीतर समा लेना चाहता था। तड़ तड़ बूंदे बजती रही। तप्त धरा इनका आघात भी कितनी प्रसन्नता से झेलती है। बूंदों का संगीत जारी था। बीच बीच में तड़ित कौंध जाती, मानो तबले पर संगत दे रही हो। अंधेरे आकाश में एक चमकती सी रेखा उदित होती और उसी क्षण लुप्त हो जाती। थोड़ी देर में वर्षा रुक गई। पर हवा अब भी चल रही थी। आकाश अब भी रह रह कर गरज़ रहा था। नींद से पलकें भारी हो रही थीं। मैं सोफ़े पर ही पसर गया।

सुबह जब सैर के लिए निकला तो कल की आंधी के निशान चहुं ओर सूखे पत्तों में बिखरे पड़े थे। आकाश में अब भी बादल थे। पर प्राची दिशा में भुवन भास्कर लालिमा फैलाए अपने आने का संदेश दे रहे थे। पतझड़ अब बीत ही चुका है। रहे सहे सूखे पीले पत्ते कल के अंधड़ से लड़ते हुए धराशायी हुए पड़े थे। सभी वृक्ष पत्तो से पूरी तरह भर गए हैं। दो पीपल के वृक्ष भी जो कल तक लाल लाल कोंपलों से सुसज्जित थे, बड़े बड़े गहरे हरे पत्तो से ढक गए हैं। वृहद नीम भी घना हो गया है। उस पर आयी  बौर आंधी की भेंट चढ़ गई है। उसके नीचे से गुज़रते हुए निबौली की चिर परिचित गन्ध आती है।  बचपन में हमारे घर के सामने एक बहुत घना नीम का वृक्ष था। उसके चारों ओर पक्का गोल चबूतरा था। मोहल्ले की महिलाओं की दोपहरी वहीं व्यतीत होती थी। और हम बच्चे, मूँज की खाट पर गीली धोती मुँह तक ओढ़ कर लेट जाते थे। भरी गर्मियों में वही हमारा वातानुकूलित स्थान था। भूख लगे तो पकी निबौलियों को चूस कर सारे में गुठलियां बिखेर देते। वर्षा ऋतु आती तो ढेर से नन्हें नन्हें नीम के पौधे कुकरमुत्तों से उग आते। आज भी बिल्कुल वही जानी पहचानी निबौलियों की सुगंध आ रही है। 

पास की दीवार पर चार पांच मधु मालती की बेलें चढ़ी थीं। उनमे से एक कल शाम की आंधी बारिश से नीचे आ पड़ी है। कुछ वर्ष पहले तक एक ऐसी ही घनी बेल हमारे रसोईघर की खिड़की के पास से होती हुई छत तक गई हुई थी। ग्रीष्म ऋतु में जब वह पुष्पों से भर जाती तो मधु मालती की गंध से आसपास तक का वातावरण महकता रहता। अब वो नहीं है। माली ने गिर पड़ने पर काट दी थी। कनेर भी पीले पुष्पों से पुष्पित हो रहा है। वन में जब भगवान कृष्ण गाय चराने जाते तो इन्हीं कनेर के पीताभ पुष्पों से अपने को सजाया करते थे। अनार का एक ही पेड़ है यँहा। उस पर कुछ लाल लाल पुष्प आ गए हैं। आम पर भी नए पत्ते आ चुके हैं। पर बौर इस वर्ष नहीं के बराबर है। गत वर्ष तो यह खूब फला था। कँही पास ही कोयल कूक रही है। कबूतर, तोते, मैना और कौवे पास ही दाना चुग रहे हैं। मेरे आने की आहट से उड़ कर तितर बितर हो जाते हैं। 

प्रकृति अपने पथ पर अग्रसर है। जब हम इसके साथ इतनी छेड़ खानी करते हैं कि अपनी सीमा लांघ जाते हैं तो ये पलटकर जवाब देने पर विवश होती है। क्यों हम अपनी हद पार करते हैं आखिर! क्या चाहिए हमें? मुझे नहीं पता । पर एक बात सिद्ध है कि मनुष्य इस विश्व का मालिक नहीं है। इस का संचालन हम नहीं कर रहें हैं। जितनी जल्द मनुष्य ये समझ जाएगा उतना ही उसका हित सधेगा। वरन वो ऐसे ही घरों में कैद हो कर रह जायेगा।
 

Saturday, 11 April 2020

बेमतलब

रात आधी बीत चुकी है। सोने के सारे उपक्रम नाक़ाम रहे हैं। बेड रूम से ड्राइंग रूम और पुनः बेड रूम कई बार स्थान परिवर्तन कर लिया कि कहीं तो नींद आएगी पर  कम्बख़्त नींद है कि पता नहीं कहाँ नदारद है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। पर आज तो हद ही हो गई। आख़िर जबरदस्ती आंखे मूंद कर कोई कब तक लेटा रह सकता है। 
बचपन में भरी दुपहरी में जब सूर्य पूरे ताप पर तपता था तो माँ हम बच्चों को ले कर हमारे पास रह रहे चाचा जी के घर आ जाती थीं। तब हमारे पास बिजली का पँखा नहीं था। हाथ का पँखा कोई कब तक झलता। चाचा जी के यँहा उषा कम्पनी का छत का पँखा था। हमारी चाची हमारी मौसी भी थीं। तो माँ हम बच्चों को ले कर गर्मियों की दोपहरी में पंखे के कारण चाचा जी के आ जाती थीं। हम दोनों भाइयों को अपने साथ ले कर ठंडे फर्श पर माँ लेट जातीं। हम भी आँख मूंदे पड़े रहते और जैसे ही लगता कि माँ सो चुकी हैं, हम खिसक लेते तपती दुपहरी में बाहर आँगन में खेलने के लिए। 
पर  इतनी रात में अब कहाँ निकलूँ। तंग आ कर ड्राइंग रूम के सोफ़े पर पसर गया हूँ । साइड लैम्प जला कर ये पोस्ट लिख रहा हूँ। शायद नींद आ जाये।
बाहर चारों ओर नीरवता का साम्राज्य फैला है। सभी सो चुके हैं। आज तो झींगुर भी नहीं बोल रहे। ये समय पढ़ने के लिए सबसे बढ़िया है। मैं अधिकतर रात में ही पढ़ता था। पर अब क्या करूं?  सिर पर पँखा पूरी गति से घूम रहा है। भूख सी भी लग आई है। पर खाऊंगा कुछ नहीं। बस नींद आ जाये किस तरह! 
21 मार्च से घर मे बंद हूँ। वही एकरसता। अभी पता नहीं कितने  दिन और बंद रहना है। दिन में सो जाता हूँ तो रात में नींद कैसे आएगी? बस आज कुछ अधिक ही हो गया। लेटते ही नाक बंद हो जाती है। फिर उठ बैठता हूँ। घड़ी की सुइयां आगे बढ़ रही हैं। पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमते घूमते अपना अर्ध चक्र पूरा कर चुकी है। कुछ घँटों बाद सूर्य नारायण उदय हो जाएंगे। इस कोरोना की महामारी ने पूरे विश्व में उथल पुथल मचा दी है। कितने ही लोग काल के गाल में समा गए। पता नहीं ये कब समाप्त होगी? उम्मीद कम है कि 15 अप्रैल से लॉक डाउन खुल जायेगा। और दो तीन दिन में पता चल ही जायेगा। पहले कोई छींकता था तो लोग "गॉड ब्लेस यू" कह कर आशीर्वाद दिया करते थे। अब कोई छींक देता है तो लोग ऐसे देखते हैं जैसे वो व्यक्ति न हुआ, वायरस की चलती फिरती फैक्ट्री हो गया। अरे चैत्र और क्वार माह में तो ये सब बहुत आम हुआ करता था। पर अब तो छींकते, खांसते भी डर लगने लगा है। क्या किया जाय। जाहि विधि राखे राम। चलिए, जै राम जी की। सोने का प्रयत्न करता हूँ। नींद तो नहीं आ रही पर आँखे थक गई हैं। इन्हें आराम देना आवश्यक है।